हिन्दी नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में एक मुद्दा लम्बे अरसे से चर्चा के केन्द्र में रहा है कि हिन्दी नाट्य जगत में कुछ गिने-चुने ही नाटक ऐसे हैं जिनमें रंगमंचीय सम्भावनाओं की तलाश की जा सकती है अथवा जिनका मंचन की दृष्टि से सफलतम नाटकों में शुमार किया जा सकता है। इसके कारण जो भी रहे हों पर इसका परिणाम यह रहा कि हिन्दी भाषा में अन्य भाषाओं की नाट्य कृतियों का समय-समय पर अनुवाद होता रहा और उन नाटकों को हिन्दी रंगमंच के नाम पर खेला जाता रहा। इन नाटकों में प्रमुख रूप से बँगला, मराठी, गुजराती, कन्नड़, यहाँ तक कि अंग्रेजी भाषा के नाटकों का समावेश हुआ है। यह अलग प्रश्न हो सकता है कि इन नाटकों को हिन्दी नाटक और हिन्दी रंगमंच की परिधि में रक्खा जाए या नहीं। समझा जाता है कि हिन्दी नाट्य जगत के पास उसका अपना कोई पारंपरिक रंगमंच नहीं था जो उसे विशुद्ध रूप से हिन्दी रंगमंच की पहचान दिलाता। दूसरी बात यह भी है कि हिन्दी भाषा के या खड़ी बोली के आविर्भाव और विकास के समानान्तर ही हिन्दी रंगमंच की कल्पना की जा सकती है। इसी कारण भारतेन्दु युग के आसपास से ही हिन्दी रंगमंच अस्तित्व में आता है। दूसरी तरफ, हिन्दी भाषा का रंगमंच भले ही परवर्ती दौर में सामने आया हो पर हजारों वर्षों से हिन्दी की बोलियों का अपना मंच अस्तित्व में रहा जिसे लोक रंगमंच के तौर पर ही स्वीकार किया गया। इस रंगमंच को सीधे-सीधे हिन्दी रंगमंच कहना शायद औचित्यपूर्ण न होगा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से, बल्कि उनसे भी पूर्व गोपाल चन्द गिरधरदास (नहुष) से जब हम हिन्दी नाटक के आविर्भाव को स्वीकार करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमें हिन्दी रंगमंच के अस्तित्व को भी भारतेन्दु युग से ही स्वीकार करना पड़ता है। अब सवाल यह रह जाता है कि आखिर अपने प्रारम्भिक दौर में अर्थात भारतेन्दु युग में हिन्दी रंगमंच की दिशा और दशा क्या थी ? अधिकांश विद्वान इस तथ्य से सहमत नजर आयेंगे कि भारतेन्दु युग में हिन्दी नाट्य-लेखन रंगमंचीय संभावनाओं को ध्यान में रखकर किया गया था। स्वयं भारतेन्दु बाबू ने अपने नाटकों को महज 'स्क्रिप्ट' तक सीमित नहीं रखा था बल्कि अपने नाट्य सृजन में रंगमंचीयता को उन्होंने कूट-कूट कर भरा था। यही कारण है कि भारतेन्दु युगीन नाटकों की रंगमंचीयता ने अपने प्रारम्भिक दौर में ही हिन्दी रंगमंच की पहचान कायम करने में बड़ी भूमिका अदा की थी।
सवाल जस का तस है कि जब हिन्दी नाटक अपने प्रारम्भिक चरण में सन्तोषजनक ढंग से रंगमंचीय बन चुका था तो फिर उसे आगे चलकर कौन-सा ग्रहण लगा ? भारतेन्दु बाबू ने तो भरसक कोशिश की थी कि हिन्दी नाटक सदा-सर्वदा के लिए रंगमंचीय बने परन्तु आगे चलकर ऐसा हो नहीं पाया। सीधी-सादी खड़ी बोली अथवा हिन्दुस्तानी के स्थान पर पांडित्यपूर्ण भाषा का उपयोग और दृश्य विधान में मंचीय जटिलताओं के चलते हिन्दी नाटक और हिन्दी रंगमंच के बीच एक प्रकार का अन्तराल दिखाई पड़ने लगा था। स्वयं जयशंकर प्रसाद और उनकी भाषा, उनके नाटक इसकी जीती जागती मिसाल है। लगता है कि उस जमाने के नाट्य-निर्देशक या तो उतने कल्पनाशील नहीं थे या फिर उन्हें नाट्यकृतियों को रंगमंच के अनुकूल बनाने की इजाजत नहीं थी। यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि प्रसाद के बाद उनके कुछ नाटकों को फेर बदल के साथ खेला गया। प्रसाद युग में उनके नाटक क्यों महज पाठ्यनाटक बनकर रह गए थे। यह बात तो समझ में आती है कि कवि हृदय प्रसाद के नाटकों का काव्यात्मक होना और कुछ जटिल होना स्वाभाविक था लेकिन उस युग के निर्देशकों ने अपनी निर्देशन स्वायत्तता का उपयोग पूरी तरह क्यों नहीं किया, यह बात फिर कुछ सवाल पैदा करती है। हम जानते हैं कि नाटक जैसी विधा में मंचीय स्तर पर प्रयोगधर्मिता की संभावनाएँ सतत बरकरार रहती हैं। क्या उस दौर में प्रयोगशीलता से बचा जाना निर्देशकों की कोई मजबूरी थी ? क्या नाट्य लेखकों को ओर से निर्देशक को अपेक्षित स्वतन्त्रता नहीं दी गई थी? क्या आज के जैसी मंचीय तकनीकों की कमी थी ? क्या साहित्यिक नाटकों को मंच पर लोकप्रियता मिलने की गुंजाइश कम थी ? क्या पारसी रंगमंच के दबदबे के कारण हिन्दी रंगमंच की विसात कमजोर थी ? क्या हिन्दी रंगमंच पारसी रंगमंच से अलग अपनी पहचान बनाने में समर्थ नहीं था ?
एक अनुमान यह भी है कि कालान्तर में अर्थात् भारतेन्दु बाबू के बाद हिन्दी की साहित्यिक विधाओं को अधिक परिष्कृत करने की गरज के कारण भाषा का सजा-सँवरा और निखरा रूप सामने लाने की कवायत जारी थी और एक प्रकार का सुधारवादी रवैया अख्तियार किया जा रहा था जिसके चलते भारतेन्दु युगीन हिन्दी, जो कि असल में 'हिन्दुस्तानी' थी, वह धीरे-धीरे संस्कृतनिष्ठ होकर कुछ गरिष्ठ होने लगी थी। हिन्दी नाटक विधा भी आगे चलकर इसी रवैये का शिकार हुई और हिन्दी नाटक पारसी रंगमंच से अलग होकर धीरे-धीरे विशुद्ध साहित्यिक नाटक के रूप उभरने लगा था। इस स्थिति के लिए सर्वाधिक रूप से लेखकीय अभिगम ही जिम्मेदार था क्योंकि लेखक यह भूल गया कि नाट्य साहित्य के साथ एक कला भी है। स्वयं प्रसाद ने पारसी शैली के नाटकों व उनकी भाषा को' चवन्नी छाप' दर्शकों से जोड़ दिया था। उनकी यह सोच कितनी सही थी और कितनी गलत, इसका फैसला करना तो अलग बात है परन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि नाटक के रंगमंच के जरिए सर्वसुलभ कराने की मुहिम में यह एक प्रकार की बाधा थी जो न केवल भाषा के स्तर पर बल्कि दृश्य योजना और रंगमंचीय उपकरणों के स्तर पर नाटकों में मौजूद रही। इसके चलते अब हिन्दी रंगमंच को एक बड़े अन्तराल का सामना करना लाज़िमी हो गया था।
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