पुस्तक के विषय में
कृष्णभक्त कवियों में सूरदास का नाम अग्रगण्य है। विनय-वात्सल्य और श्रृंगार के विविध रूपों की उनकी अभिव्यक्ति मार्मिक और अनुपम है। अष्टछाप के प्रमुखतम कवि सूरदास भारतीय भक्ति साहित्य की उस उदात्त परंपरा के वाहक हैं जो मानवता को उदारता, सामंजस्य और सद्भाव के आदर्शों की ओर ले जाती है। निश्चय ही, नेत्र-विहीन सूर विलक्षण दूर-दृष्टि से संपन्न थे। उनके काव्य ने साहित्य, संगीत और भक्ति का मनोरम आलोक फैलाया और ब्रजभाषा का गौरव बढ़ाया।
प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुष्टिमार्ग के पोषक अष्टछाप के कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित पुस्तकों को पाठकों की सराहना मिली है। प्रस्तुत पुस्तक इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। इसके लेखक डॉ. हरगुलाल साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं।
प्राक्कथन
कृष्णभक्त कवियों में सूरदास का स्थान अग्रगण्य है । इस नेत्रविहीन कवि ने आत्मा की मधुरतम वर्तुलाकार उद्वेलित होने वाली भाव लहरियों में 'कान्हा' को ब्रज की गोपियों में कुछ इस तरह उपस्थापित किया है कि जीवन का मधुरतम पक्ष एक ऐसी शाश्वत कहानी बन गया है, जिसे आधुनिकता का कोई भी रंग-रोगन न तो मिटा सकता है और न परिवर्तित कर सकता है । आचार्य वल्लभ के निदेश पर कृष्ण के बाल जीवन के सभी रूपों का सूर ने तानपूरा के सहारे कुछ ऐसा अभिचित्रण किया है कि उनका काव्य-जगत धर्म, संप्रदाय और भाषा के सभी बंधनों को तोड़कर देशव्यापी बन गया और 19वीं शदी में जब अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में शर्तबंध प्रथा के आधार पर गन्ने की खेती करने के लिए भारतीय मजदूरों को वहां भेजा तो वे अपने साथ माता-पिता की आशीष और भाई-बहिन के प्यार के अतिरिक्त देश-प्रेम की गठरी में गीता रामायण जप-माला, छापा-तिलक, रामनामी चादर आदि के साथ-साथ चौताल झाल रामायण, रसिया, कबीरा, लेज, मीरा और सूर के पदों को भी ले गए । इस तरह सूर भारत के बाहर भी फैल गए और सूर पंचशती के अवसर पर (1977-78) ट्रिनिडाड स्थित भारतीय उच्चायोग में सूर-स्मारिका के प्रकाशन के साथ-साथ जब मैंने अन्यान्य कार्यक्रमों का आयोजन किया, तब उनमें भारतीय मूल के लोगों के साथ दूसरे धर्मावलंबियों को सोत्साह भाग लेते देखकर मुझे ऐसा लगा कि श्रीनाथ मंदिर का चौबारा बढ़कर विश्वव्यापी हो गया है । सूर-काव्य चतुर्दिक में फैलने वाला अमर काव्य है ।
मध्यकाल में सूर ने ब्रह्म का ऐश्वर्य गाया कृष्ण की लीलाओं के रूप में; तुलसी ने भगवान का ऐश्वर्य गाया राम के लोकोत्तर कार्यो के रूप में; और महाकवि देव ने सच्चिदानंद का शुद्ध सौंदर्य गाया अपनी कलित कल्पनाओं के योग से । सूर उच्च कोटि के संत, महान गायक और कृष्ण को समर्पित परम भगवदीय साहित्यकार थे और उनका सूर सागर ब्रजभाषा को साहित्यिक गौरव कृष्णकाव्य वैराग्य का काव्य नहीं है वह वास्तव में जीवन में आस्था आस्तिकता और निष्ठा की प्रवृत्ति का काव्य है वह वास्तव में जीवन में आस्था आस्तिकता औंर निष्ठा की प्रवृति का कथ्य है वह मानव के उदात्तीकरण और आत्मप्रेरणा का काव्य है । कृष्ण काव्य में अष्टछाप कवियों का महत्व अनेक दृष्टियों से उल्लेखनीय है । अष्टछाप कवियों ने श्रीकृष्ण की लीलाओं का भावात्मक चित्रण करते हुए उस लोकहितकारिणी आध्यात्मिक शक्ति को सांस्कृतिक दृष्टि से. उद्वेलित करने का प्रयास किया है, जा मानव की मानसिक कुप्रवृत्तियों को हटाकर उन्हें सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करने कै लिए आवश्यक है ।
आचार्य विट्ठलनाथ ने जिन आठ कवियों कौ लेकर हिंदी साहित्य मैं अष्टछाप की सुंदर परिकल्पना प्रस्तुत की उनमें से पहले चार वरिष्ठ कवि वल्लभाचार्य के ही शिष्य थे । अवस्था में कुंभन दास सबसे बड़े अवश्य थे । किंतु काव्य-प्रतिभा में सूरदास का स्थान ही अग्रगण्य माना जाता है । श्रीनाथ के मंदिर में कीर्तन के समय इन्होंने जो गीत गाए वे साहित्य संगीत और कला को अपूर्व दृष्टि प्रदान करते हैं ।
इस अमर गायक ने बहुत बड़ी संख्या में पदों की सर्जना की है । श्रीकृष्ण के बाल जीवन की लीलाओं पर रचित काव्य ने धम, संप्रदाय भाषा आदि की सीमाओं से ऊपर उठकर विश्वव्यापी सांस्कृतिक चेतना का रूप ले लिया है ।' सूर-काव्य ने भारत के प्रत्येक अंचल के जनमानस को कण की लोकरंजक लीलाओं में अवगाहन कराकर जीवन की मधुरता, उदात्तता और ऊर्जस्विता प्रदान की । समग्रत सूर-काव्य सत्यं शिवं और सुंदरम् का काव्य है ।' सूरदास का केवल हर सागर ही उन्हें साहित्यिक गौरव के साथ-साथ अक्षय कीर्ति प्रदान करन वाली अनुपम कृति हैं । सूर-काव्य में सौदर्य, भक्ति दर्शन एवं सांस्कृतिक और सामाजिक-चेतना का समायोजन है। सूरदास की भक्ति-चेतना का केंद्रवर्ती तत्व वह सात्विक एवं आंतरीय प्रेमभाव है जिसकी निरभ्र- अकलुष ऊर्जा अन्य सभी मानवीय संवेदनाओं को अपने दिव्य आलोक में समाहित किए हुए है । इनके प्रेम का आलंबन वह नटवर नागर श्याम है जो भक्तों का परम पुरुष गोपों का स्वजन-सखा, यादवों का प्यारा नंद-यशोदा का दुलारा आर्तजनों का सहारा और गोपियों के कन्हैया नाम से सर्वजन-मोहक, सौम्य, किंतु विराट व्यक्तित्व का धनी है । उस व्यक्तित्व की अपूर्व आधा और अद्वितीय रूप-माधुरी ने यदि किसी काल में प्रत्यक्ष युग-सुंदरी राधा एवं गोपियों को मुग्ध किया, तो उसके गुण-गायन ने परवर्ती युगों में न जाने कितनों को भक्त, साधक और उपासक बना दिया । 'भक्ति' का मूलतत्व 'प्रेम' है । 'प्रेम' 'मानवता' का पययि है । सूरदास ने 'प्रेम' का प्रतिपादन कर समाज को ' मानवता ' का शाश्वत संदेश दिया है ।
निश्चय ही सूर लोकोत्तर प्राणी थे, उनकी दृष्टि दिव्य थी, कृष्ण की लीलाओं का गान करते - करते वे उनमें पूरी तरह खों -गए थें और यही भगवन्निष्ठा आगे चलकर उनकी असाधारण काव्य- साधना बनी ।
यह भारतीय समाज की विडंबना ही कही जा सकती है कि भारत कें आत्मोन्मुखी से लोकोन्मुखी तक के समग्र जीवन की यात्रा करन वाले भक्ति-साहित्य को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और नितांत भौतिक विकास की समीक्षा-दृष्टियों से परखने का आधा-अधूरा असफल प्रयास किया जा रहा है । वस्तुत, उदात्त साहित्य का संबंध अंतर्मन की उस अभिव्यक्ति से होता है, जो आदिम मानस के उदात्तीकरण के लिए आधार भूमि बनती है । सामाजिक और भौतिक विकास की व्यक्तिमुखी प्रवृतियां मानव के उदात्तीकरण में समर्थ नहीं हैं ।
भक्ति-काव्य की यह विशेषता रही है कि उसकी अभिव्यक्ति धर्म और दर्शन की भारत की उस विकासोन्मुख संस्कृति से जुड़ी रही है जिसके अग्रनायक ' सूरदास ' जैसे महान कवि हुए । आज भारत में मानव और समाज के लिए आवश्यक विकासोन्मुखी संस्कृति के समस्त माध्यमों का मंथन करने की अनिवार्यता दृष्टिगोचर हो रही है ।
प्रकाशन विभाग ने कृष्णभक्ति काव्य-धारा के अष्टछाप के कवियों की रचनाओं और उनके कृतित्व का परिचय देनें की दिशा में अष्टछाप कवियों पर अलग- अलग ग्रंथ प्रकाशित करने की महत्वपूर्ण योजना बनाकर प्रशस्य एवं श्लाघनीय सारस्वत कार्य किया है । इससें पूर्व कृष्णदास 'छीतस्वामी' एवं 'गोविंदस्वामी' पर पुस्तकें प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित की जा चुकी हैं । इसके लिए मैं प्रकाशन विभाग कें अधिकारियों कीं साधुवाद देता हूं ।
इसी श्रृंखला की अगली कडी यह ग्रंथ 'सूरदास' है । इसका संकलन-संपादन ब्रज-साहित्य और संस्कृति के अध्यवसायी, अनुसंधाता और व्याख्याता डॉ. हरगुलाल ने किया है । वर्षों तक कृष्णकाव्य के अध्ययन एवं अध्यापन में लगे रहे डॉ. हरगुलाल के साहित्यिक अनुभव और उनकी गहन विद्वता से साक्षात्कार अनायास ही इस पुस्तक के माध्यम सै हो जाता है । मैं उन्हें इसके लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूं । भूमिका
कृष्णभक्त कवियों में सूरदास का स्थान अग्रगण्य है। इस नेत्रविहीन कवि ने आत्मा की मधुरतम वर्तुलाकार उद्वेलित होने वाली भाव लहरियों में 'कान्हा' को ब्रज की गोपियों में कुछ इस तरह उपस्थापित किया है कि जीवन का मधुरतम पक्ष एक ऐसी शाश्वत कहानी बन गया है, जिसे आधुनिकता का कोई भी रंग-रोगन न तो मिटा सकता है और न परिवर्तित कर सकता है। आचार्य वल्लभ के निदेश पर कृष्ण के बाल जीवन के सभी रूपों का सूर ने तानपूरा के सहारे कुछ ऐसा अभिचित्रण किया है कि उनका काव्य-जगत धर्म, संप्रदाय और भाषा के सभी बंधनों को तोड़कर देशव्यापी बन गया और 19वीं शदी में जब अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में शर्तबंध प्रथा के आधार पर गन्ने की खेती करने के लिए भारतीय मजदूरों को वहां भेजा तो वे अपने साथ माता-पिता की आशीष और भाई-बहिन के प्यार के अतिरिक्त देश-प्रेम की गठरी में गीता, रामायण, जप-माला, छापा-तिलक, रामनामी चादर आदि के साथ-साथ चौताल झाल, रामायण रसिया, कबीरा, लेज, मीरा और सूर के पदों को भी ले गए । इस तरह सूर भारत के बाहर भी फैल गए और सूर पंचशती के अवसर पर (1977-78) ट्रिनिडाड स्थित भारतीय उच्चायोग में सूर-स्मारिका के प्रकाशन के साथ-साथ जब मैंने अन्यान्य कार्यक्रमों का आयोजन किया, तब उनमें भारतीय मूल के लोगों के साथ दूसरे धर्मावलंबियों को सोत्साह भाग लेते देखकर मुझे ऐसा लगा कि श्रीनाथ मंदिर का चौबारा बढ़कर विश्वव्यापी हो गया है । सूर-काव्य चतुर्दिक में फैलने वाला अमर काव्य है ।
मध्यकाल में सूर ने ब्रह्म का ऐश्वर्य गाया कृष्ण की लीलाओं के रूप में; तुलसी ने भगवान का एश्वर्य गाया राम के लोकोत्तर कार्यो के रूप में; और महाकवि देव ने सच्चिदानंद का शुद्ध सौंदर्य गाया अपनी कलित कल्पनाओं के याग सैं । सूर उच्च कोटि के संत, महान गायक और कृष्ण को समर्पित परम भगवदीय साहित्यकार थे और उनका सूर सागर ब्रजभाषा को साहित्यिक गौरव प्रदान करने वाला अनुपम ग्रंथ है । पुष्टिमार्गीय अवधारणा के अनुरूप यह कृष्ण की लोकरंजक लीलाओं की समग्र अभिव्यक्ति है। नाभादास ने अपने 'भक्तमाल' में उनकी काव्य गरिमा का उल्लेख करते हुए कहा है- 'सूर कवित्त सुनि कौन कवि, जो नहि सिर चालन करै । 'सूर ने सगुण, निर्गुण, शैव और वैष्णवों के संघर्ष तथा वैष्णवों के अनेकानेक संप्रदायों में विभक्त होने की पीड़ा से संत्रस्त युग को अपने अनुपम काव्य से मुक्ति दिलाई । निश्चय ही सूर लोकोतर प्राणी थे, उनकी दृष्टि दिव्य थी, कृष्ण की लीलाओं का गान करते-करते वे उनमें पूरी तरह खो गए थे और यही भगवन्निष्ठां आगे चलकर उनकी असाधारण काव्य साधना बनी ।
आज के विविधता भरे युग में सूर का भक्तिपरक काव्य नितांत उपयोगी हैं और इस महान गायक के असंख्य पदों को कुछ पृष्ठों में सहेज कर उनकी सरसता और सहजता की बानगी सर्व साधारण के लिए प्रस्तुत करना एक महनीय कार्य है। प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार का आभार किन शब्दों में व्यक्त किया जाय, जिसने अष्टछाप के कवियों के प्रकाशन का बीड़ा उठाया है और सूरदास संबंधी इस ग्रंथ के प्रकाशन का जिम्मा उठाकर पाठकों को पठनीय सामग्री उपलब्ध कराई है।
Contents
व्यक्तित्व और कृतित्व | ||
1 | कवि परिचय तथा रचनाएं | 3 |
2 | भक्ति, दर्शन और प्रेम की त्रिवेणी | 10 |
3 | मनोभावों के चतुर चितेरे | 19 |
4 | सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना | 34 |
5 | सुर-साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार | 43 |
काव्य वैभव | ||
6 | नित्य लीला के पद | 49 |
7 | वर्षोंत्सव के पद | 40 |
8 | भ्रमर-गीत प्रसंग | 101 |
पुस्तक के विषय में
कृष्णभक्त कवियों में सूरदास का नाम अग्रगण्य है। विनय-वात्सल्य और श्रृंगार के विविध रूपों की उनकी अभिव्यक्ति मार्मिक और अनुपम है। अष्टछाप के प्रमुखतम कवि सूरदास भारतीय भक्ति साहित्य की उस उदात्त परंपरा के वाहक हैं जो मानवता को उदारता, सामंजस्य और सद्भाव के आदर्शों की ओर ले जाती है। निश्चय ही, नेत्र-विहीन सूर विलक्षण दूर-दृष्टि से संपन्न थे। उनके काव्य ने साहित्य, संगीत और भक्ति का मनोरम आलोक फैलाया और ब्रजभाषा का गौरव बढ़ाया।
प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुष्टिमार्ग के पोषक अष्टछाप के कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित पुस्तकों को पाठकों की सराहना मिली है। प्रस्तुत पुस्तक इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। इसके लेखक डॉ. हरगुलाल साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं।
प्राक्कथन
कृष्णभक्त कवियों में सूरदास का स्थान अग्रगण्य है । इस नेत्रविहीन कवि ने आत्मा की मधुरतम वर्तुलाकार उद्वेलित होने वाली भाव लहरियों में 'कान्हा' को ब्रज की गोपियों में कुछ इस तरह उपस्थापित किया है कि जीवन का मधुरतम पक्ष एक ऐसी शाश्वत कहानी बन गया है, जिसे आधुनिकता का कोई भी रंग-रोगन न तो मिटा सकता है और न परिवर्तित कर सकता है । आचार्य वल्लभ के निदेश पर कृष्ण के बाल जीवन के सभी रूपों का सूर ने तानपूरा के सहारे कुछ ऐसा अभिचित्रण किया है कि उनका काव्य-जगत धर्म, संप्रदाय और भाषा के सभी बंधनों को तोड़कर देशव्यापी बन गया और 19वीं शदी में जब अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में शर्तबंध प्रथा के आधार पर गन्ने की खेती करने के लिए भारतीय मजदूरों को वहां भेजा तो वे अपने साथ माता-पिता की आशीष और भाई-बहिन के प्यार के अतिरिक्त देश-प्रेम की गठरी में गीता रामायण जप-माला, छापा-तिलक, रामनामी चादर आदि के साथ-साथ चौताल झाल रामायण, रसिया, कबीरा, लेज, मीरा और सूर के पदों को भी ले गए । इस तरह सूर भारत के बाहर भी फैल गए और सूर पंचशती के अवसर पर (1977-78) ट्रिनिडाड स्थित भारतीय उच्चायोग में सूर-स्मारिका के प्रकाशन के साथ-साथ जब मैंने अन्यान्य कार्यक्रमों का आयोजन किया, तब उनमें भारतीय मूल के लोगों के साथ दूसरे धर्मावलंबियों को सोत्साह भाग लेते देखकर मुझे ऐसा लगा कि श्रीनाथ मंदिर का चौबारा बढ़कर विश्वव्यापी हो गया है । सूर-काव्य चतुर्दिक में फैलने वाला अमर काव्य है ।
मध्यकाल में सूर ने ब्रह्म का ऐश्वर्य गाया कृष्ण की लीलाओं के रूप में; तुलसी ने भगवान का ऐश्वर्य गाया राम के लोकोत्तर कार्यो के रूप में; और महाकवि देव ने सच्चिदानंद का शुद्ध सौंदर्य गाया अपनी कलित कल्पनाओं के योग से । सूर उच्च कोटि के संत, महान गायक और कृष्ण को समर्पित परम भगवदीय साहित्यकार थे और उनका सूर सागर ब्रजभाषा को साहित्यिक गौरव कृष्णकाव्य वैराग्य का काव्य नहीं है वह वास्तव में जीवन में आस्था आस्तिकता और निष्ठा की प्रवृत्ति का काव्य है वह वास्तव में जीवन में आस्था आस्तिकता औंर निष्ठा की प्रवृति का कथ्य है वह मानव के उदात्तीकरण और आत्मप्रेरणा का काव्य है । कृष्ण काव्य में अष्टछाप कवियों का महत्व अनेक दृष्टियों से उल्लेखनीय है । अष्टछाप कवियों ने श्रीकृष्ण की लीलाओं का भावात्मक चित्रण करते हुए उस लोकहितकारिणी आध्यात्मिक शक्ति को सांस्कृतिक दृष्टि से. उद्वेलित करने का प्रयास किया है, जा मानव की मानसिक कुप्रवृत्तियों को हटाकर उन्हें सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करने कै लिए आवश्यक है ।
आचार्य विट्ठलनाथ ने जिन आठ कवियों कौ लेकर हिंदी साहित्य मैं अष्टछाप की सुंदर परिकल्पना प्रस्तुत की उनमें से पहले चार वरिष्ठ कवि वल्लभाचार्य के ही शिष्य थे । अवस्था में कुंभन दास सबसे बड़े अवश्य थे । किंतु काव्य-प्रतिभा में सूरदास का स्थान ही अग्रगण्य माना जाता है । श्रीनाथ के मंदिर में कीर्तन के समय इन्होंने जो गीत गाए वे साहित्य संगीत और कला को अपूर्व दृष्टि प्रदान करते हैं ।
इस अमर गायक ने बहुत बड़ी संख्या में पदों की सर्जना की है । श्रीकृष्ण के बाल जीवन की लीलाओं पर रचित काव्य ने धम, संप्रदाय भाषा आदि की सीमाओं से ऊपर उठकर विश्वव्यापी सांस्कृतिक चेतना का रूप ले लिया है ।' सूर-काव्य ने भारत के प्रत्येक अंचल के जनमानस को कण की लोकरंजक लीलाओं में अवगाहन कराकर जीवन की मधुरता, उदात्तता और ऊर्जस्विता प्रदान की । समग्रत सूर-काव्य सत्यं शिवं और सुंदरम् का काव्य है ।' सूरदास का केवल हर सागर ही उन्हें साहित्यिक गौरव के साथ-साथ अक्षय कीर्ति प्रदान करन वाली अनुपम कृति हैं । सूर-काव्य में सौदर्य, भक्ति दर्शन एवं सांस्कृतिक और सामाजिक-चेतना का समायोजन है। सूरदास की भक्ति-चेतना का केंद्रवर्ती तत्व वह सात्विक एवं आंतरीय प्रेमभाव है जिसकी निरभ्र- अकलुष ऊर्जा अन्य सभी मानवीय संवेदनाओं को अपने दिव्य आलोक में समाहित किए हुए है । इनके प्रेम का आलंबन वह नटवर नागर श्याम है जो भक्तों का परम पुरुष गोपों का स्वजन-सखा, यादवों का प्यारा नंद-यशोदा का दुलारा आर्तजनों का सहारा और गोपियों के कन्हैया नाम से सर्वजन-मोहक, सौम्य, किंतु विराट व्यक्तित्व का धनी है । उस व्यक्तित्व की अपूर्व आधा और अद्वितीय रूप-माधुरी ने यदि किसी काल में प्रत्यक्ष युग-सुंदरी राधा एवं गोपियों को मुग्ध किया, तो उसके गुण-गायन ने परवर्ती युगों में न जाने कितनों को भक्त, साधक और उपासक बना दिया । 'भक्ति' का मूलतत्व 'प्रेम' है । 'प्रेम' 'मानवता' का पययि है । सूरदास ने 'प्रेम' का प्रतिपादन कर समाज को ' मानवता ' का शाश्वत संदेश दिया है ।
निश्चय ही सूर लोकोत्तर प्राणी थे, उनकी दृष्टि दिव्य थी, कृष्ण की लीलाओं का गान करते - करते वे उनमें पूरी तरह खों -गए थें और यही भगवन्निष्ठा आगे चलकर उनकी असाधारण काव्य- साधना बनी ।
यह भारतीय समाज की विडंबना ही कही जा सकती है कि भारत कें आत्मोन्मुखी से लोकोन्मुखी तक के समग्र जीवन की यात्रा करन वाले भक्ति-साहित्य को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और नितांत भौतिक विकास की समीक्षा-दृष्टियों से परखने का आधा-अधूरा असफल प्रयास किया जा रहा है । वस्तुत, उदात्त साहित्य का संबंध अंतर्मन की उस अभिव्यक्ति से होता है, जो आदिम मानस के उदात्तीकरण के लिए आधार भूमि बनती है । सामाजिक और भौतिक विकास की व्यक्तिमुखी प्रवृतियां मानव के उदात्तीकरण में समर्थ नहीं हैं ।
भक्ति-काव्य की यह विशेषता रही है कि उसकी अभिव्यक्ति धर्म और दर्शन की भारत की उस विकासोन्मुख संस्कृति से जुड़ी रही है जिसके अग्रनायक ' सूरदास ' जैसे महान कवि हुए । आज भारत में मानव और समाज के लिए आवश्यक विकासोन्मुखी संस्कृति के समस्त माध्यमों का मंथन करने की अनिवार्यता दृष्टिगोचर हो रही है ।
प्रकाशन विभाग ने कृष्णभक्ति काव्य-धारा के अष्टछाप के कवियों की रचनाओं और उनके कृतित्व का परिचय देनें की दिशा में अष्टछाप कवियों पर अलग- अलग ग्रंथ प्रकाशित करने की महत्वपूर्ण योजना बनाकर प्रशस्य एवं श्लाघनीय सारस्वत कार्य किया है । इससें पूर्व कृष्णदास 'छीतस्वामी' एवं 'गोविंदस्वामी' पर पुस्तकें प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित की जा चुकी हैं । इसके लिए मैं प्रकाशन विभाग कें अधिकारियों कीं साधुवाद देता हूं ।
इसी श्रृंखला की अगली कडी यह ग्रंथ 'सूरदास' है । इसका संकलन-संपादन ब्रज-साहित्य और संस्कृति के अध्यवसायी, अनुसंधाता और व्याख्याता डॉ. हरगुलाल ने किया है । वर्षों तक कृष्णकाव्य के अध्ययन एवं अध्यापन में लगे रहे डॉ. हरगुलाल के साहित्यिक अनुभव और उनकी गहन विद्वता से साक्षात्कार अनायास ही इस पुस्तक के माध्यम सै हो जाता है । मैं उन्हें इसके लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूं । भूमिका
कृष्णभक्त कवियों में सूरदास का स्थान अग्रगण्य है। इस नेत्रविहीन कवि ने आत्मा की मधुरतम वर्तुलाकार उद्वेलित होने वाली भाव लहरियों में 'कान्हा' को ब्रज की गोपियों में कुछ इस तरह उपस्थापित किया है कि जीवन का मधुरतम पक्ष एक ऐसी शाश्वत कहानी बन गया है, जिसे आधुनिकता का कोई भी रंग-रोगन न तो मिटा सकता है और न परिवर्तित कर सकता है। आचार्य वल्लभ के निदेश पर कृष्ण के बाल जीवन के सभी रूपों का सूर ने तानपूरा के सहारे कुछ ऐसा अभिचित्रण किया है कि उनका काव्य-जगत धर्म, संप्रदाय और भाषा के सभी बंधनों को तोड़कर देशव्यापी बन गया और 19वीं शदी में जब अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशों में शर्तबंध प्रथा के आधार पर गन्ने की खेती करने के लिए भारतीय मजदूरों को वहां भेजा तो वे अपने साथ माता-पिता की आशीष और भाई-बहिन के प्यार के अतिरिक्त देश-प्रेम की गठरी में गीता, रामायण, जप-माला, छापा-तिलक, रामनामी चादर आदि के साथ-साथ चौताल झाल, रामायण रसिया, कबीरा, लेज, मीरा और सूर के पदों को भी ले गए । इस तरह सूर भारत के बाहर भी फैल गए और सूर पंचशती के अवसर पर (1977-78) ट्रिनिडाड स्थित भारतीय उच्चायोग में सूर-स्मारिका के प्रकाशन के साथ-साथ जब मैंने अन्यान्य कार्यक्रमों का आयोजन किया, तब उनमें भारतीय मूल के लोगों के साथ दूसरे धर्मावलंबियों को सोत्साह भाग लेते देखकर मुझे ऐसा लगा कि श्रीनाथ मंदिर का चौबारा बढ़कर विश्वव्यापी हो गया है । सूर-काव्य चतुर्दिक में फैलने वाला अमर काव्य है ।
मध्यकाल में सूर ने ब्रह्म का ऐश्वर्य गाया कृष्ण की लीलाओं के रूप में; तुलसी ने भगवान का एश्वर्य गाया राम के लोकोत्तर कार्यो के रूप में; और महाकवि देव ने सच्चिदानंद का शुद्ध सौंदर्य गाया अपनी कलित कल्पनाओं के याग सैं । सूर उच्च कोटि के संत, महान गायक और कृष्ण को समर्पित परम भगवदीय साहित्यकार थे और उनका सूर सागर ब्रजभाषा को साहित्यिक गौरव प्रदान करने वाला अनुपम ग्रंथ है । पुष्टिमार्गीय अवधारणा के अनुरूप यह कृष्ण की लोकरंजक लीलाओं की समग्र अभिव्यक्ति है। नाभादास ने अपने 'भक्तमाल' में उनकी काव्य गरिमा का उल्लेख करते हुए कहा है- 'सूर कवित्त सुनि कौन कवि, जो नहि सिर चालन करै । 'सूर ने सगुण, निर्गुण, शैव और वैष्णवों के संघर्ष तथा वैष्णवों के अनेकानेक संप्रदायों में विभक्त होने की पीड़ा से संत्रस्त युग को अपने अनुपम काव्य से मुक्ति दिलाई । निश्चय ही सूर लोकोतर प्राणी थे, उनकी दृष्टि दिव्य थी, कृष्ण की लीलाओं का गान करते-करते वे उनमें पूरी तरह खो गए थे और यही भगवन्निष्ठां आगे चलकर उनकी असाधारण काव्य साधना बनी ।
आज के विविधता भरे युग में सूर का भक्तिपरक काव्य नितांत उपयोगी हैं और इस महान गायक के असंख्य पदों को कुछ पृष्ठों में सहेज कर उनकी सरसता और सहजता की बानगी सर्व साधारण के लिए प्रस्तुत करना एक महनीय कार्य है। प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार का आभार किन शब्दों में व्यक्त किया जाय, जिसने अष्टछाप के कवियों के प्रकाशन का बीड़ा उठाया है और सूरदास संबंधी इस ग्रंथ के प्रकाशन का जिम्मा उठाकर पाठकों को पठनीय सामग्री उपलब्ध कराई है।
Contents
व्यक्तित्व और कृतित्व | ||
1 | कवि परिचय तथा रचनाएं | 3 |
2 | भक्ति, दर्शन और प्रेम की त्रिवेणी | 10 |
3 | मनोभावों के चतुर चितेरे | 19 |
4 | सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना | 34 |
5 | सुर-साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार | 43 |
काव्य वैभव | ||
6 | नित्य लीला के पद | 49 |
7 | वर्षोंत्सव के पद | 40 |
8 | भ्रमर-गीत प्रसंग | 101 |