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चाणक्य और चंद्रगुप्त: Chanakya and Chadragupta

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Item Code: NZA954
Publisher: Diamond Pocket Books Pvt. Ltd.
Author: राजेन्द्र पाण्डेय (Rajendra Pandey)
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 9788128835070
Pages: 143
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 220 gm
Fully insured
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100% Made in India
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Book Description

पुस्तक के विषय में

चाणक्य और चंद्रगुप्त सिकंदर पंजाब गांधार आदि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। वहां यवन सैनिकों अत्याचारों से लोग त्रस्त चारों तरफ आतंक व्याप्त था बहू-बेटियों अस्मिता असुरक्षित थी। यवन पूरे भारत जीतना स्थिति बड़ी थी। यवनों राज्य का विस्तार भारतवर्ष में यह चाणक्य जैसे आत्मसम्मानी देशभक्त लिए असहनीय था। ऐसे में चाणक्य एक ऐसे बालक को शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा देकर यवनों के सामने खड़ा किया जो विद्वान तो था ही साथ राजनीति युद्धनीति में भी निपुण था। यही बालक चाणक्य के सहयोग नदवंश का नाश करके चंद्रगुप्त मौर्य के नाम मगध का शासक बना। उसने यवनों को भारत की सरहद के पार कर भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की तथा देश में एकता व अखंडता की स्थापना की।

प्राक्कथन

तक्षशिला में आचार्य विष्णु शर्मा का आश्रम था। यहां शिष्य जीवन की हर कला में पारंगत होने के लिए आया करते थे। आचार्य विष्णु शर्मा नीतिशास्त्र,

धनुविद्या, अर्थशास्त्र आदि विद्याओं के ज्ञाता ही नहीं, प्रकांड पंडित भी थे। यवनों के शासन में रहकर वह आश्रम नहीं चला सकते और इस देश का उद्धार भी नहीं कर सकते, यह सोचकर विष्णु शर्मा ने निश्चय किया कि क्या न वह वहां जाकर अपना आश्रम बनाएं, जहां यवनों का शासन नहीं है। यहां तो कोई विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए भी अब नहीं आ रहा। चाते तरफ यवनों का ही बोलबाला है। इस ऊहापोह में उलझे हुए विष्णु शर्मा अचानक उठे और मगध देश की ओर बढ़ चले। मगध का रज्य उन दिनों काफी दूर तक फैला हुआ था और वहां संपन्नता भी थी। सिंकदर चाहकर भी उसे पराजित नहीं कर पाया था । हारकर उसे वापस लौट जाना पड़ा था। मगध देश के वीर सैनिकों के सामने यवन सेना अधिक समय तक नहीं टिक सकी थी। ऐसे वीर योद्धाओं से भरा पड़ा था मगध देश।

आचार्य विष्णु शर्मा का पदार्पण जब पाटलिपुत्र में हुआ, तब वहां धनानंद राज्य करता था और यवनों के अत्याचार से डरकर सारे विद्वजन यहां ही आ गए थे। विष्णु शर्मा के आगमन से वहां के पंडितों और स्वयं राजा को भी अजीब-सा अनुभव हुआ। धनानंद का राज-दरबार पंडितों का अखाड़ा तो था, पर पंडितों में परस्पर मतभेद. द्वेष और ईर्ष्या थी। चापलूसी का बोलबाला था।

आचार्य विष्णु शर्मा ने बेहिचक दरबार में 'पहुंचकर राजा को आशीर्वाद दिया और अपनी धीर-गंभीर वाणी में कुछ नीति वचन सुनाए तो उनके असाधारण व्यक्तित्व का भान सभी हो गया। उनकी तेजस्विता किसी से छिपी न रह सकी। राजा भी विष्णु शर्मा के अनमोल वचन सुनकर काफी प्रभावित हुआ। उसने उठकर ब्राह्मण का सम्मान किया और अपनी बगल में स्थान दिया। राजा का विष्णु शर्मा कै प्रति यह अनुराग दरबार में उपस्थित पंडितों को कुछ रास नहीं आया। वे डर गए कि कहीं यह पंडित उनकी महत्ता को कम न कर दे। सबने मिलकर यही निर्णय लिया कि जितना सम्मान इस ब्राह्म? को राजा की ओर से मिला है. उतना ही अपमान हो जाए तो अच्छा होगा ।

इसी बीच राजा ने आदरपूर्वक पूछा-'ब्राह्मण! आप कहां से आए हैं?'

विष्णु शर्मा ने जवाब में कहा-' महाराज मैं तक्षशिला से आया हूं। '

तभी एक पंडित खड़ा होकर बोलने लगा-' महाराज क्षमा करें। जिसको इतना आदर-सम्मान आप दे रहे हैं, क्या यह जानना उचित नहीं है कि यह इसके योग्य है भी या नहीं । हम सभी राजपंडितों की यह इच्छा है कि इस बारे में विचार किया जाए कि यह पंडित राजसम्मान के योग्य है या नहीं?' पृ ही... '

इतने में एक दूसरा पंडित उठकर बोलने लगा-'यवनों की आखें आज कल हमारे राज्य पर ही टिकी हैं । कौन जाने यह ब्राह्मण उनका भेजा कोई गुप्तचर हो । ऐसे लोगों के विश्वासघात का ही यह परिणाम है कि आज आर्यावर्त के एक भाग पर यवनों का शासन है। तक्षशिला यवनों के अधीन है और ये ब्राह्मण देव वहीं से आए हैं। झूठ तो मैं बोलता नहीं महाराज! इस ब्राह्मण को, हममें से कोई नहीं पहचानता, ऐसे में क्या इस पर विश्वास करना या यहां शरण देना खतरनाक नहीं होगा । यह गुप्तचर ही है। आपका शुभचिंतक होने के नाते मैंने यह सब कहा । ' राजा और बंदर की प्रकृति चंचल होती है। धनानंद दानी जरूर था पर चंचल और संशयी भी था। यवनों ने कई राजाओं को इसी तरह से छला था। राजा चिंतामग्न हो गया-'यह ब्राह्मण बिना इजाजत के ही अचानक दरबार में दाखिल हुआ है। यह विद्वान तो है, पर इसमें विद्वानों जैसी सहजता नहीं है। ' यह सोचते हुए राजा तल्ख आवाज में बोला- 'ब्राह्मण, आप कौन हैं, हम नहीं जानते, लेकिन राजपंडितों ने जो अभी- अभी कहा है वह सच है। आपका दरबार में बिना आज्ञा के आना और यहां पर आपका किसी सें कोई परिचय न होना हमें संशय में डाल चुका है । हम नहीं चाहते आप यहां क्षण- भर भी ठहरें।'

विष्णु शर्मा का शरीर क्रोध और अपमान से धधक उठा। वह अचानक ही बोल पड़े- हे राजा तू बोलता क्या है। मैं तुझे गुप्तचर दिख रहा हूं! मैं तो अपने नीति-ज्ञान धनुर्विद्या से यहां के युवकों को शिक्षित कर यवनों को खदेड़ना चाहता हूँ। यवनों के राज्य से भागकर आने वाला मैं तुझे उनका गुप्तचर लग रहा हूँ । दृ कितना मदांध और चंचल चित्त वाला राजा है।'

उस ब्राह्मण ने राजपंडितों सहित राजा को भी आश्चर्य में डाल दिया। उसके इस दु:साहस को देखकर सब दंग रह गए।

एक राजपंडित खड़ा होकर कहने लगा-'महाराज बीच में बोलने के लिए क्षमा चाहता हूं । जो गुप्तचर होगा क्या वह कहेगा कि वह यवनों का गुप्तचर है? महाराज, यह ब्राह्मण तो पूरी तरह से धूर्त और शातिर लग रहा है । इसकी बातों में आप न आइए महाराज । वैसे भी आप एक साहसी और कुशल योद्धा हैं। आप अपनी प्रजा की रक्षा करने में सक्षम हैं, फिर इसकी सहायता की क्या आवश्यकता?'

राजा का संदेह और अधिक पुख्ता हो गया ।

वह ब्राह्मण को घूरते हुए बोला- 'ब्राह्मण आप कृपया आसन छोड़कर दरबार से बाहर निकल जाइए। 'आचार्य विष्णु शर्मा की भृकुटी क्रोध से तन गई, मानो पूरा शरीर आग में जल रहा हो । वह दरबार से बाहर निकलते समय मन-ही-मन यह प्रतिज्ञा भी करते जा रहे थे- ' मुझमें ब्राह्मणत्व का थोड़ा-सा भी अंश होगा तो इस नंदवंश का जड़ से ही विनाश कर दूंगा और जो इस काबिल होगा मैं उसी को यहां की गद्दी पर बैठाऊंगा और वही शख्स यवनो के विनाश का भी माध्यम होगा ... यह कहते हुए विष्णु शर्मा ने अपनी शिखा खोल दी और उसी क्षण यह संकल्प लिया-' अब यह शिखा तभी बंधेगी, जब अपनी प्रतिज्ञा को मैं पूरी करने में सफल होऊंगा।' मन-ही-मन यह कहते हुए विष्णु शर्मा दरबार से बाहर आ गए । विष्णु शर्मा का मन अब काफी उद्विगन था । उन्होंने पाटलिपुत्र में अन्न-जल भी ग्रहण नहीं किया । वे नगर के बाहर आ गए और चलते-चलते अचानक ही उनके पैर रुक गए और बरबस ही ध्यान उधर चला गया, जहां कुछ बच्चे खेल रहे थे।

विष्णु शर्मा थोड़ा और नजदीक आ गए । उनका क्रोध अब शांत होता नजर आ रहा था । वे बुदबुदाए- ' ये बच्चे अद्भुत खेल खेल रहे हैं! मुझे चलकर देखना चाहिए... '

बच्चे खेल क्या रहे थे... यह खेल एक ऐसा नाटक था जिसे देख विष्णु शर्मा की आखें भर आयीं।

सिंकदर ने पंजाब जीत लिया है और अब उसकी आखें दूसरे रज्यों पर टिकी हैं, नाटक का कथानक कुछ ऐसा ही था । कुछ बच्चे यवनों की भूमिका में थे और कुछ आर्यों की भूमिका में। तभी विष्णु शर्मा की नजर 15 वर्षीय बालक पर जा ठहरी । वह बालक आर्यो के सम्राट की भूमिका में था और अपने 9 सरदारों को बड़े-बड़े आदेश दे रहा था । उसके चेहरे पर गजब का तेज था...विश्वास था ।

विष्णु शर्मा अचंभित रह गए कि यह इस बस्ती का लड़का है. मन मान नहीं रहा । इस लड़के में तो जरूर कोई बात है । मुझे इस लड़के के बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए । नाटक समाप्त होने के बाद विष्णु शर्मा उस बालक के करीब आकर बोले-' क्या मैं तुम्हारा हाथ देख सकता हूं?'

बालक नमस्कार करते हुए बड़ी ही नम्रता से बोला-'क्यों नहीं... 'यह कहते हुए उसने अपना हाथ आगे कर दिया ।

'अति सुन्दर... बहुत खूब...तुम विलक्षण हो । बालक क्या तुम मेरे शिष्य बनोगे? मैं चाहता हूं, तुम्हें दुनिया की सारी कलाएं और विद्याएं सिखा दूं...मैं तुम्हें शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही पारंगत बना दूंगा...'

बालक को उनकी बातें बहुत ही पसंद आयीं ।

वह सिर झुकाकर बोला-' देव, आप मुझे शस्त्र-शास्त्र का ज्ञान करा देंगे तो मैं आजीवन आपका आभारी रहूंगा ।'

विष्णु शर्मा बालक की इस विनम्रता से बहुत प्रभावित हुए और उस बालक के साथ उसके इत्र आ गए।

बालक के पिता ने विष्णु शर्मा का स्वागत किया । वह एक भला आदमी था। वह बोला-'आप मेरे बच्चे के बारे में कुछ जानना चाहते हैं । यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है । मेरा बच्चा मेरा अभिमान है। '

विष्णु शर्मा मना नहीं कर सके फिर उन्होंने कहा-आप गुस्सा न हों, तो एक सवाल करूं?'

'आप ब्राह्मण भी हैं और अतिथि भी । विद्वान भी हैं तथा हमारे बच्चे का हित भी चाहते हैं । पूछिए, मुझे बुरा नहीं लगेगा।'

'यह बालक मुझे तो किसी उच्च कुल का जान पड़ता है...मैं जो कह रहा हूं, क्या यह सच है? यह एक दिन जरूर चक्रवर्ती सम्राट बनेगा... 'विष्णु शर्मा की बातें सुनकर बालक का पिता सहमते हुए बोला- ' महाराज आपसे मैं झूठ नहीं बोलूंगा । आपका अनुमान सच है कि यह मेरा खून नहीं । यह बालक एक नवजात शिशु के रूप में मुझे वीराने में पड़ा हुआ मिला था । इसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था । हां एक रत्नजडित रक्षाबंधन था जो अभी भी मेरे पास है।'' क्या कहा...! वह रक्षाबधन मुझे दिखाओगे? ' विष्णु शर्मा की आखें मचल उठीं। ' हा महाराज। 'यह कहकर वह उठा और रक्षाबंधन विष्णु शर्मा के हाथ में दे दिया । उसे विष्णु शर्मा ने ध्यान से देखा फिर बोले-' आप यह बालक मुझे दे दीजिए... मैं इसे शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दूंगा । इसका भविष्य उज्ज्वल है । इसे अच्छे गुरु की जरूरत है । मैं सारी विद्याएं जानता हूं और इस बालक की ओर अनायास ही आकर्षित हो गया हू... इस ब्राह्मण को दानस्वरूप यह बालक दे दीजिए... मैं इसे चक्रवर्ती सम्राट के रूप में देखना चाह्ता हूं ।

ब्राह्मण की बातें सुनकर बालक का पिता दुविधा में पड़ गया । वह बालक से अत्यंत प्रेम करता था ।

'ज्यादा मत सोचें आप... यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है । आप यह सोच रहे हैं कि बच्चे को ऐसे कैसे दे दूं.''

बालक का पिता फिर भी कुछ नहीं बोला ।

तभी बालक आगे बढ़कर बोल पड़ा-'पिताजी आप गुरुदेव कै हवाले मुझे कर दीजिए । आप भी तो यही चाहते हैं कि इन यवनों का कोई विनाश करे। अगर आपका बेटा इस कार्य को करे तो क्या बुरा... । अगर मैं ब्राह्मण देव की कृपा से एक योग्य शासक बन जाऊं तो क्या इसमें आपका मान नहीं बढ़ेगा? पिताजी आप चिन्ता न करें । मैं यवनों को यहां से खदेड़कर एक ऐसा राज्य सबको दूगा कि वह मगध राज्य जैसा होगा... '

बालक के मुंह से मगध का नाम सुनते ही विष्णु शर्मा के तन-मन में आग लग गई । वह बालक को देखते हुए बोले- ' मेरा बच्चा मगध देश के सिंहासन पर बैठेगा और राज्याभिषेक मैं अपने हाथों से करूंगा... याद रख तुझे मगध देश का सम्राट बनना है... '

बालक यह सुनकर स्तब्ध रह गया।

 

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