रामायण के पात्र: Characters of The Ramayana

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Item Code: NZD269
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan
Author: नानाभाई भट्ट (Nanabhai Bhatta)
Language: Hindi
Edition: 2010
ISBN: 8173090416
Pages: 444
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 410 gm
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Book Description

प्रकाशकीय

रामायण के संबंध में 'मण्डल' से बहुत-सा साहित्य प्रकाशित हुआ है । राजाजी रचित 'दशरथ-नंदन श्रीराम', विश्वम्भर सहाय प्रेमी द्वारा लिखित 'तुलसी राम कथा माला', डा. शांतिलाल नानूराम व्यास की 'रामायणकालीन संस्कृति' और 'रामायणकालीन समाज' तथा सुदक्षिणा द्वारा प्रणीत 'बाल-राम कथा' इतनी लोकप्रिय हुई है कि उनकी मांग बराबर बनी रहती है। 'दशरथ-नंदन श्रीराम' के तो अबतक अनेक संस्करण हो चुके हैं।

हमें हर्ष है कि गुजरात के महान शिक्षा-शास्त्री तथा लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक नानाभाई भट्ट द्वारा लिखित इस पुस्तक का दूसरा संस्करण पाठकों को उपलब्ध हो रहा है। नानाभाई भट्ट से हिंदी के पाठक भलीभांति परिचित हैं। उनकी 'महाभारत-पात्र-माला' 'मण्डल' से प्रकाशित हुई है और वे पुस्तकें पाठकों ने बेहद पसंद की है। इस नवीन कृति में विद्वान लेखक ने राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, कैकेयी, हनुमान, विभीषण, मंदोदरी तथा रावण का चरित्र-चित्रण किया है । इस चरित्र-चित्रण में न केवल पात्रों के जीवन के प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया गया है, अपितु आधुनिक संदर्भ में उनकी प्रेरणाओं पर भी प्रकाश डाला गया है । प्राय: सभी पात्र मानव के रूप में पाठकों के सामने आते हैं और उनका सुख-दुःख पाठकों का अपना सुरव-दुःख बन जाता है। इस तथा अन्य अनेक दृष्टियों से यह शाक बेजोड़ है। सारे पात्रों के चित्रण इतने सजीव हैं कि पढ़ते-पढ़ते पात्र स्वयं आखों के आगे आ खड़े होते हैं । पाठक उनमें डूब जाता है । कहीं भी उसे ऊब अनुभव नहीं होती ।

पुस्तक का अनुवाद हिंदी के सुविख्यात लेखक श्री काशिनाथ त्रिवेदी ने किया है, जिनका गुजराती और हिंदी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है । हिंदी अनुवाद के पढ़ने में मूल का-सा आनंद आता है ।

बड़े सौभाग्य की बात है कि पुस्तक की भूमिका उच्च कोटि के एक मनीषी द्वारा लिखी गई है । यद्यपि स्वामी आनंद आज हमारे बीच मौजूद

नहीं हैं पर उन्होंने भूमिका के रूप में जो कुछ लिखा है, वह उनके शुद्ध अंतःकरण, सूक्ष्म दृष्टि तथा युग-चेतना की झांकी प्रस्तुत करता है । पूरी पुस्तक का हृदयग्राही सार उन्होंने थोड़े-से पृष्ठों में दे दिया है।

हमारी इच्छा थी कि महाभारत की पात्र-माला की भांति इन पात्रों को भी अलग-अलग पुस्तकों के रूप में निकालते, लेकिन कुछ पात्रों के चित्रण बहुत लंबे थे और कुछ के बहुत छोटे । अत: हमने सोचा कि उन्हें एक ही जिल्द में प्रकाशित कर देना ठीक रहेगा । प्रत्येक पात्र का चित्रण स्वतंत्र है, तथापि उनमें एकसूत्रता है।

निस्संदेह पुस्तक अत्यंत बोधप्रद है। हमारे समाज में भले और बुरे, दोनों प्रकार के व्यक्ति दिखाई देते हैं । हम जानते हैं कि मनुष्य का जन्म पाकर हमें अच्छाई के रास्ते पर चलना चाहिए लेकिन हममें से अधिकांश में इतना साहस और दृढ़ता नहीं कि हम उस रास्ते पर निष्ठापूर्वक चल सकें । यह पुस्तक वह साहस और दृढ़ता प्रदान करती है ।

हमें पूर्ण विश्वास है कि सभी वर्गों और क्षेत्रों के पाक इस पुस्तक को चाव से पढेंगे और इससे पूरा-पूरा लाभ लेंगे ।

दो शब्द

व्यास और वाल्मीकि हमारे आदि-कवि हैं । आर्य सस्कृति के प्रभात में उन्होंने जो दर्शन किया, वह आज भी हमारे लाखों नर-नारियों को हिला सकता है ।

जिन दिनों वेदों की पांडित्यपूर्ण भाषा साधारण जनता के लिए सुलभ न शी, उन दिनों इन कवियों ने ज्ञान-भंडार को लोक-भाषा दी; जब वेदकाल के देव लोक-हृदय को स्पर्श करने में विफल होने लगे, तो इन दृष्टाओं ने समाज के मानव-देवों को अपना लिया और लोक-हृदय में उनको विधिवत् प्रतिष्ठित किया । आर्यों की जो विचार-सम्पत्ति कुछ शिष्ट लोगों के एकाधिकार-सी बन गई थी, व्यास और वाल्मीकि ने उस विचार-सम्पत्ति को लोकभोग्य बना दिया । आर्यों के अतिरिक्त जो अनेक अनार्य जातियां इस देश में रहती थी, वे सब आर्यावर्त को अपना ही देश मानें, आर्य संस्कृति को अपनी ही संस्कृति समझें, आर्य-अनार्य के समस्त भेद विस्मृत हो जायं, और दोनों की यह धारणा बन जाय कि वे सब एक ही संस्कृति के उत्तराधिकारी छोटे और बड़े भाई-मात्र हैं-यदि लोक-शिक्षा के इस महान् काम को किसी ने अधिक-से-अधिक सफलता के साथ किया हो, तो हमारे इन दो आदि-कवियों ने किया है ।

किंतु व्यास और वाल्मीकि केवल आदि-कवि ही नहीं, हमारे सनातन कवि भी हैं । इन दोनों कवियों ने आर्य-मन की गहराई में पैठकर उस मन के ज्ञात-अज्ञात भावों की कुछ ऐसी गहरी थाह ली है कि आज पांच हजार वर्षों के बाद भी हम अनेक अवसरों पर जीवन-प्रेरणा प्राप्त करने के लिए इनकी ओर मुड़ते हैं । हमारे स्त्री-समाज के पास से सीता और सावित्री के आदर्शो को हटा लेने का प्रयास आज भी सफल होता नहीं दिखाई देता । भगवान् श्रीकृष्ण और भगवान् रामचंद्र आज भी हमारे राष्ट्र के अधिकांश लोगों के हृदयों में ईश्वर के अवतार की तरह बिराजे हुए हैं । नवयुग के हमारे अखाड़े आज भी हनुमान के वज्रकछोटे को ताजा करने के मनोरथ पोषित करते हैं । वर्तमान सभ्य संसार के सामने भगवद्गीता को अपना जीवन ग्रंथ कहने में हम आज भी गौरव का अनुभव करते हैं । आज के युगपुरुष गांधीजी नये युग की स्वराज्य भावना को 'रामराज्य' शब्द द्वारा व्यक्त करके मानो हमारे आदि-कवि की कल्पना को ही जनता के सामने रखते हैं ।

कवि मात्र का, और विशेषकर ऐसे सनातन कवियों का, रक विशेष लक्षण यह होता है कि वे अपना हृदय जल्दी ही प्रकट नहीं करते । ऊपरी दिल से मांगनेवालों को तो मानो ये महाकवि चलताऊ जवाब ही देते हैं, किंतु जो मनुष्य अधिक आग्रही बनकर इनके पीछे पड़ जाता है, और किसी तरह इनका पीछा नहीं छोड़ता, उस मनुष्य पर प्रसन्न होकर ये उसे अपना हार्द दिखाते हैं, और उसके सिर पर अपना हाथ रखते हैं । इसी कारण ऐसे महाकवियों का अध्ययन रक प्रकार की उपासना है ।

लेकिन आज के इस संघर्षमय युग में, आज की इस धांधली में, ऐसी उपासना का समय किसके पास है? चलने की जगह दौड़नेवाला और दौड़ने की जगह उड़नेवाला आज का मानव ऐसी उपासना की वृत्ति ही धारण नहीं कर सकता । वह तो पका-पकाया माल चाहता है । हमारे पढे-लिखे भाई-बहनों में से भी कितनों ने मूल रामायण और मूल महाभारत पढा होगा, यह कहना कठिन है । ये मूल ग्रंथ कितने ही मनोहर क्यों न हों, तथापि आज इन्हें रक बार भी आदि से अन्त तक पढ जाने का काम अच्छे-से-अच्छों को भी कसौटी पर चढ़ानेवाला है ।

जबतक भविष्य के व्यास-वाल्मीकि भावी युग के अधिक व्यापक समूह को किसी नये दर्शन के संस्कारवान् न बनावें, तबतक व्यास-वाल्मीकि के चरणों में बैठने की आवश्यकता कम नहीं होती, तबतक उनके दर्शन की सनातनता अविच्छिन्न है ।

इन और ऐसे ही अन्य विचारों से प्रेरणा पाकर मैंने 'महाभारत के पात्र' लिखे और फिर 'रामायण के पात्र' । मेरे इस प्रयास के पीछे उपासना का दावा नहीं । मौलिकता का दावा तो है ही नहीं । बहुत गहराई का दावा भी नहीं । किंतु यहां एक बात मुझे बता देनी चाहिए । महापुरुषों की भांति महाकवि भी प्राय: बालकों जैसे होते हैं । अक्सर पांडित्य का दिखावा करने वाले को वे उसकी पंडिताई में ही भटकने देते हैं, और कोई पता तक लगने नहीं देते, जबकि भोले भाव से, नम्रतापूर्वक अपने निकट आनेवाले को वे निहाल कर देते हैं । मैं यह नहीं कह सकता कि मैं इस तरह निहाल हुआ हूं या नहीं, किंतु मुझमें जितनी नम्रता है? उतनी नम्रता के साथ मैं इन दोनों ऋषियों के समीप खडा रहा हूं और इनसे जो कुछ पा सका हूं उसे युवकवर्ग के सामने प्रस्तुत किया है ।

मेरे इस प्रयत्न में किसीको पुरानी बोलत में नई शराब' दिखाई देगी । मेरे इस प्रयास की तह में किसी को नये हिंदुस्तान को पुराने आदर्शों की ओर ले जाने का द्रोह दिखाई देगा । कुछ सज्जन मेरे इस प्रयास को पुरानी पवित्रता के लिए आघात रूप भी मानेंगे । इन सबेको उत्तर देने का यह स्थान नहीं । यहां तो मैं यही कहूंगा कि मैं भगवान् व्यास और भगवान् वाल्मीकि के पास गया हूं और उन्होंने मुझे जो दिया और मैं जो ले सका, उसे लेकर मैंने आपके सामने रखा है ।

अंत में एक बात और कह दूं । रामायण और महाभारत के पात्रों के प्रति हमारे लोक-हृदय में असीम आदर है । इन पात्रों के प्रति अर्थात् इनके जैसे जीवन के प्रति ऐसे आदर को मैं अपनी संस्कृति का एक अनमोल उत्तराधिकार मानता हूं। मैं जानता हूं कि इस आदर के पीछे-पीछे लोगों के दिलों में वहम और मिथ्या धारणाओं ने भी प्राय: प्रवेश किया है; किन्तु रेप्ली भ्रांत धारणाओं को दूर करके भी इस शुद्ध आदर को सुरक्षित रखना आवश्यक हैं-इसे मैंने व्यास-वाल्मीकि के प्रति अपना धर्म माना है। संस्कृति के भव्य भवनों का निर्माण करने में दिन नहीं, वर्ष नहीं, बल्कि युग के युग लग जाते हैं। ऐसे भवनों पर केवल अपने स्वच्छन्द से प्रहार करना मेरी दृष्टि में निरा मानव-द्रोह है । यदि अपने इस प्रयत्न में कहीं भूले-चुके भी मैंने हमारे इस जीते-जागते आदर्श को शिथिल किया हो, तो उसके लिए मैं अंत:करणपूर्वक अपना खेद व्यक्त करता हूं।

जिस तरह महाभारत में कर्ण सबसे चमत्कारी पात्र है, उसी तरह रामायण में सीता सबसे अधिक करुण पात्र है। हमारे युवकों में यह रख? भ्रांति घर किये हुए है कि सीता का पात्र व्यक्तित्वहीन और निस्तेज है। यदि बाहर की सरगरमी और धूमधाम ही व्यक्तित्व की निशानी हो, तो अवश्य सीता व्यक्तित्वहीन और निस्तेज लगेगी, किंतु मैं यह मानता हूं कि यदि मारने में जो शौर्य है, उससे अधिक उच्चकोटि का शौर्य स्वेच्छा से मरने में हो, दूसरों से बिलकुल अलग रहकर अपने मस्तक को तना रखने में जो व्यक्तित्व है, उससे अधिक ऊंचे दर्जे का व्यक्तित्व स्वेच्छापूर्वक दूसरे में समा जाने मे हो, तो सीता के जीवन मे अधिक ऊचा व्यक्तित्व और अधिक तेजस्विता है ।

 

अनुक्रम

राम

23-191

1

श्रवण-वध

23

2

पुत्रेष्टि यश

33

3

विश्वामित्र के साथ

42

4

यज्ञ-आर्य संस्कृति के प्रतीक

49

5

राक्षस-संस्कृति अर्थात्

54

6

पतित-पावन रामचंद्र

60

7

पावित्र्य की मूर्ति सीता

65

8

नया अवतार

70

9

युवराज-पद की दीक्षा

77

10

मातृ-स्नेह या धर्म-पालन

86

11

निषादराज की मैत्री

95

12

अगस्त्य का आदेश

103

13

पंचवटी में

113

14

सीता की खोज

124

15

शबरी का तप

128

16

सुग्रीव-मिलन

133

17

बाली का आरोप

137

18

सीता के समाचार

140

19

सेतु-बंधन

146

20

सुग्रीव की छावनी में

150

21

विभीषण की दृष्टि

153

22

रावण का मंतव्य

160

23

सुग्रीव का मानस

165

24

''सुमंत्र । यही मेरा राजधर्म है ।

171

25

''सीता सोने की या कुश की?

180

26

''मां वसुन्धरा । मुझे स्थान दे ।''

183

27

महाप्रस्थान

189

सीता

192-240

1

वाल्मीकि के आश्रम में

192

2

अंतर्व्यथा

193

3

विवाह की स्मृति

197

4

विवाह के बाद

203

5

रावण और उसकी लंका

210

6

दुष्टता के बीच साधुता

215

7

हनुमान का पराक्रम

218

8

रावण की मृत्यु

223

9

काल की क्रूरता

224

10

फिर कसौटी पर

227

11

राम का अश्वमेध-यज्ञ

235

12

धरती-माता की गोद में

239

लक्ष्मण

241-247

1

सच्चा सिपाही

241

2

स्मरणांजलि

242

भरत

248-271

1

मामा के घर

248

2

माता की भर्त्सना

250

3

रामचंद्र की खोज में

258

4

चरण-पादुका

263

5

बंधु-मिलन

267

6

महाप्रस्थान

270

कैकेयी

272-295

1

विष के बीज

272

2

वर्गों बेचारे दशरथ!

278

3

वर्गों अयोध्या की राजरानी

284

4

बाजी बिगड़ी

289

5

पश्चात्ताप

294

हनुमान

296-330

1

अंजना-सुत

296

2

वर्गों रामचंद्र-दर्शन?

300

3

वर्गों सागरोल्लंघन

305

4

सीता की खोज

310

5

मूक सेवक

317

6

भक्त हनुमान

324

विभीषण

331-350

1

लंका-वास का निर्णय

331

2

वर्गों अंतर का उद्वेग

335

3

वर्गों रावण का त्याग

340

4

लंका में राज्याभिषेक

346

मंदोदरी

351-372

1

मनोव्यथा

351

2

अरण्यरुदन

356

3

सौभाग्य की लालसा

362

4

मंदोदरी-विलाप

369

रावण

373-444

1

वरदान

373

2

राक्षसकुल-भूषण

382

3

मंगलाचरण

393

4

छोटी-सी बदली

397

5

मामा-भानजा

400

6

तपस्वी के वेश में

405

7

लंका में सीता

410

8

अशोक वन में

415

9

विभीषण का त्याग

421

10

घिरते बादल

428

11

अंतिम संग्राम

440

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