FOREWORD
It gives me immense pleasure to introduce this interesting and scholarly work entitled Satapatha Brharmana Men Acara (Morals I Satapatha Brahmana) by Mrs. Meera Rani Rawat. This work was originally prepared as a doctoral thesis on the basis of which M.J.P Rohilkhand University; Bareilly awarded the degree of Doctor of Philosophy (Ph.D.) to Mrs. Rawat.
Mrs. Meera Rani Rawat is well-versed in both the systems, traditional and modern. And it is indeed a matter of immense value that she has taken pains to unfold and explain the intricate points of ethics and religion in the interest of researches, who will definitely appreciate them.
The object of this work is to present to the student of ethics and religion, in objective form and with constant reference to the original sources and to modern discussions, a comprehensive but concise account of the whole of the ethics and religion of Satapatha Bharamana.
It is quite an original and unbiased study. A genuine student of ethics and religion will find in this work an invaluable and exhaustive store of fact. It is also an important addition to the literature available on Indian moral philosophy. This work is more comprehensive because along with Hindu ethics it given a detailed account of Buddhist and Jain ethics as well and more modern because it exhibits greater awareness of the author about some modern themes in ethics. Because of its comprehensiveness, clarity of expression and well arranged treatment the work obtains the value of a textbook.
The account of customary observances as given in the present treatise after the Satapatha Brahmana is authentic and a welcome one. I should like to congratulate Mrs. Rawat for this scholarly contribution which I hope, will be warmly received and appreciated both by specialists and general readers alike who are interested in Vedic studies.
प्राक्कथन
शतपथ ब्राह्मण शुक्लयजुर्वेद का महत्वशाली ब्राह्मण मथ है । सभी ब्राह्मण गन्धों में यह सर्वाधिक विपुलकाय ब्राह्मण है । इसमें यज्ञों का सांगोपांग वर्णन किया गया है । ब्राह्मण मथो के सम्बन्ध में अधिकांश पश्चिमी विद्वानों का यह विचार है कि ये यज्ञ सम्बन्धी प्रलाप मात्र हैं परन्तु मेरी दृष्टि में पश्चिमी विद्वानों की इस प्रकार की धारणा सर्वथा निर्मूल है । ब्राह्मण ग्रन्थाों को 'यज्ञसम्बन्धी प्रलाप मात्र' कहना उनके साथ अन्याय करना है । मैं इस सम्बन्ध में पं ० बलदेव उपाध्याय के विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ । उन्होंने 'वैदिक साहित्य और संस्कृति ' में लिखा है कि ''ब्राह्मणों के यागानुष्ठानों के विशाल सूक्ष्मतम वर्णन को आज का आलोचक नगण्य दृष्टि से देखने का दुःसाहस भले ही करे, परन्तु वे एक अतीत युग के संरक्षित निधि हैं; जिन्होंने वैदिक युग के क्रिया-कलापों का एक भव्य चित्र धर्ममीमासंकों के लिये प्रस्तुत कर रखा है, यह परिस्थिति के परिवर्तन होने से अवश्य ही धूमिल-सा हो गया है परन्तु फिर भी वह है धार्मिक दृष्टि से उपादेय, संग्रहणीय और मननीय ।
सत्य तो यह है कि प्रत्येक कृति का महत्त्व इस तथ्य पर निर्भर करता है कि वह जन-जीवन के लिये कितनी उपयोगी है । दूसरे शब्दों में युग सापेक्ष्य मूल्यों की कसौटी पर कसकर ही किसी भी कृति का मूल्यांकन किया जा सकता है । ब्राह्मण क्र-थों के सम्बन्ध में भी यही बात है; क्योंकि ब्राह्मणकालीन युग में यज्ञों का अत्यधिक महत्व था, यज्ञों के सफल सम्पादन में ही मनुष्य अपना अहोभाग्य समझता था । फलस्वरूप याज्ञिक अनुष्ठानों की विस्तृत व्याख्या करने वाले गन्धों का भी तत्कालीन समाज में महत्व होना स्वाभाविक ही है, फिर श०ब्रा० तो उनमें से प्रमुख है । आज परिस्थिति में परिवर्तन होने से श०ब्रा० का महत्व भी अपेक्षया कम अवश्य हो गया है, फिर भी यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि यदि इस महनीय ग्रन्थ का श्रद्धापूर्वक प्रगाढ़ अनुशीलन किया जाय, तो यह सहज ही स्पष्ट हो जायेगा कि इस मथ में यज्ञ सम्बन्धी विवेचन कै अतिरिक्त अन्य प्रकार की सामग्री भी है जो तत्कालीन लोगों के सामाजिक, नैतिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालती है ।
कतिपय विद्वानों ने श०ब्रा० के यलो पर स्पृहणीय कार्य किया है जोकि उचित भी प्रतीत होता है; क्योंकि श०ब्रा० यज्ञों की ही पूर्ण एवम् विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त श०ब्रा० के आख्यानों व निरुक्तियों पर भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है । डॉ ० उमेशचन्द्र पाण्डेय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से' शतपथ ब्राह्मण में आख्यान' विषय पर शोध कार्य किया है । एटिमोलाजीज़ आँफ शतपथ ब्राहाण 'विषय पर डॉ० सत्यकाम वर्मा के निर्देशन में डॉ ० नरगिस वर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रशंसनीय कार्य किया है । डॉ ० वाकर नागेल, डॉ ० ओल्डन वर्ग और डॉ० कीथ आदि विद्वानों ने श०ब्रा० पर भाषाशास्त्र की दृष्टि से विचार किया है, लेकिन श० ब्रा० में उक्त विषयों के अतिरिक्त ऐसी भी सामग्री की प्रचुरता है जिससे तत्कालीन लोगों के नैतिक जीवन पर विपुल प्रकाश पड़ता है । कतिपय विद्वानों ने ' शतपथ ब्राहाण याज्ञिक कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है ' यह कहकर इसमें निहित नैतिक तत्वों की सर्वथा उपेक्षा की है । ए०बी०कीथ ने ' दि रिलीजन एण्ड फिलाँसफी आँफ दि वेद एण्ड उपनिषद्स् ' में ब्राह्मण क्र-थों में नीति का विवेचन करने से पूर्व स्पष्टरूप से लिखा है कि- In the strict sense of the world, there is no theory of ethics in the Brahmana Literature. परन्तु मैं इस कथन से पूर्णतया सहमत न होकर आशिक रूप ' सहमत हूँ । यद्यपि यह सत्य है कि श०ब्रा० विशेष रूप से यज्ञ सम्बन्धी ग्रन्थ होने से इसमें नैतिक तत्वों का वह रूप नहीं उभर पाया है जैसा कि परवर्ती साहित्य में मिलता है, तथापि यह कहना कथमपि उचित नहीं है कि श०ब्रा० में नीति का सिद्धान्त नहीं है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जायेगा कि श०ब्रा० में ऐसे स्थलों का प्रभाव नहीं है जिनमें स्पष्ट शब्दों में नैतिक गुणों के महत्त्व का कथन हुआ है और ऐसे स्थलों पर तत्कालीन लोगों के आचारों का परिज्ञान स्वत ही हो जाता है ।
डॉ० काणे महोदय ने 'हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र' में धर्म सम्बन्धी विवेचन में श ब्रा० के भी उद्धरण लिये हैं जिससे शतपथ ब्राह्मण में धर्मविषयक सामग्री का ज्ञान होता है । वैदिक साहित्य के इतिहास से सम्बद्ध पुस्तकों में भी इस विषय पर कुछ सामग्री मिलती है । इसके अतिरिक्त विभिन्न पुस्तकों एवम् पत्रिकाओं में कुछ लेख भी मिलते है जिनमें 'शतपथब्राह्मण में आचार विषय पर संक्षेप में विचार किया गया है ।
अभी तक इस क्षेत्र में जो भी कार्य हुआ है वह नगण्यमात्र है । मैं उनको तब तक अपूर्ण समझती हूँ जब तक शतपथब्राह्मणकालीन समाज के नैतिक आचरण के विषय में कोई तथ्यात्मक उल्लेख पूर्णरूप से प्रस्तुत न किया गया हो । 'शतपथ ब्राह्मण में आचार' यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है । श०ब्रा० कर्मकाण्ड प्रधान होते हुए भी नैतिक गुणों के महत्त्व पर विशेष रूप से प्रकाश डालता है । आश्चर्य की बात है कि श०ब्रा० इतना महत्त्वपूर्ण मथ होने पर भी और इसमें आचार विषयक सामग्री की प्रचुरता होने पर भी, अभी तक ऐसा कोई शोध-प्रबन्ध नहीं लिखा गया है, जिसमें श०ब्रा० में उपलब्ध आचार तत्वों की विस्तृत मीमांसा की गयी हो । इस कमी की पूर्ति की सम्भावना प्रस्तुत शोध-कार्य से की जा सकती है । इस मथ में वर्णित आचारों की मीमांसा आधुनिक समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में करने के उद्देश्य से मेरी इस कार्य में प्रवृत्ति हुई है । जो अनुसन्धित्सु उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य में आचार विषयक सामग्री का पर्यवेक्षण करना चाहेंगे, यह शोध-कार्य उनका पथ प्रशस्त कर सकता है । अपने अध्येता को यह ग्रन्थ सच्ची नैतिक अन्तर्दृष्टि दे सकता है जो नैतिक जीवन की प्रथम तथा अनिवार्य अवस्था है । इस तरह के शोधों से लोगों को यह पता चलेगा कि शिव तत्त्व का उच्च स्तर क्या हो सकता है? व्यक्ति का कल्याण करना और उसके जीवन को सुन्दर तथा शिव तत्व से युक्त करना भी इसका आनुषंगिक लक्ष्य हो सकता है । कभी-कभी विभिन्न कर्तव्यों के बीच संघर्ष होता है, अनेक विचारों के कारण मानसिक द्वन्द्व पैदा होता है, व्यक्ति का अपने प्रति और समाज के प्रति क्या कर्तव्य है? इन कर्तव्यों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित किया जाय? ऐसी द्वन्द्वात्मक स्थिति में व्यक्ति को नैतिक अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, नैतिक ज्ञान उसके लिये एक दृढ़ अवलम्बन के समान है, यह उसे आत्मबल देता है । वह मनुष्य को दयनीय और हीन स्थिति से उबारने का प्रयास करता है । इस कार्य द्वारा उस नैतिक ज्ञान से लोगों को अवगत कराना भी अनुसन्धात्री की हार्दिक इच्छा है । इस शोध-गन्ध के अध्ययन से प्रत्येक पाठक को यह अनुभव होने लगेगा कि वह एक स्वतन्त्र बौद्धिक प्राणी है, अत वह शिव तत्व को प्राप्त कर सकता है । मनुष्य के अन्दर सोयी हुई मानवता को जगाना, उसके बारे में उसे संकेत करना भी प्रस्तुत प्रयास का अवान्तर प्रयोजन है । इस ग्रन्थ का अनुशीलन व्यक्ति के आचरण को विवेक-सम्मत बना सकता है, जिसका दूरगामी परिणाम होता है । विवेक जाग्रत होने पर मनुष्य विवेक-सम्मत कर्म करता है, बौद्धिक मार्ग एवम् सत्य मार्ग को अपनाता है । बौद्धिक प्रकाश को प्राप्त कर लेने पर वह अन्धकारपूर्ण अन्धविश्वासों, जर्जर मरणोन्मुख रूढ़ि-रीतियों और संकीर्ण स्वार्थमयी भावनाओं का त्याग कर देता है । आज संसार के हर कोने में विकास की दुन्दुभि बज रही है । बुद्धि बल से औद्योगिक तथा वैज्ञानिक जगत् में महान् कार्यों का सम्पादन करके भी वह अपने परिवेश को शान्ति न दे सका । प्राय होने वाले आत्मघात, बलात्कारादि भीषण कृत्य इसके निदर्शन हैं । यदि हम चाहते हैं कि मानवता-विरोधी ये कीटाणु न पनपे और हम स्थूल शरीर से होने वाले दुराचारों से सर्वथा मुक्त हो सकें, तो इस प्रकार के ग्रन्थों का प्रणयन व अनुशीलन उपयोगी होगा । यहाँ मैं प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध की लेखन व्यवस्था के सम्बन्ध में लिखना आवश्यक समझती हूँ । इस शोध-प्रबन्ध की लेखन शैली के सम्बन्ध में जब मैने वाराणसी के प्रतिष्ठित विद्वान् स्व० श्री पट्टाभिराम शास्त्रीजी से अपने विचार व्यक्त करने की प्रार्थना की तब उन्होंने - इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत् अर्थात् इतिहास पुराणों के द्वारा वेदों का उपबृंहण होना चाहिये । इस वचन की व्याख्या करते हुए श०ब्रा० के अतिरिक्त इतिहास पुराणादि गन्धों से भी नीति सम्बन्धी सामग्री का संचयन करने को कहा, साथ ही नैतिक तत्त्वों का स्वरूप व महत्व वर्णित करते हुए श०ब्रा० में उपलब्ध आचारों का वर्णन करने का निर्देश दिया । उन्हीं के कथन को गुरुमन्त्र मानकर मैने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में सर्वप्रथम प्रत्येक नैतिक तत्व का स्वरूप व महत्व वर्णित किया है जिसमें वैदिक साहित्य के अतिरिक्त इतिहास पुराणादि ग्रन्थों की भी सहायता ली है, तत्पश्चात् श०ब्रा० के अनुसार उस नैतिक तत्व के महत्त्व पर प्रकाश डाला है । 'शतपथ ब्राह्मण में आचार ' इस सम्बन्ध में यह तथ्य ध्यातव्य है कि यहाँ याज्ञिक कर्मकाण्ड को आचार नहीं माना गया है । साधारणतमानवीय प्रत्येक कर्म आचार कहलाता है, इस रूप में यज्ञ सम्बन्धी कर्म भी आचार कहलाते हैं । परन्तु प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आचार का तात्पर्य नैतिक गुणों एवम् यज्ञ के प्रसंग में विहित और यजमान तथा यजमान-पत्नी से सीधे सम्बन्धित नैतिकता प्रधान कर्मों से है । निषिद्ध आचारों का विवेचन ' शतपथ ब्राह्मण में निषिद्ध आचार ' नामक परिच्छेद में किया गया है फिर भी किसी विशेष प्रसंग में तत्सम्बन्धी निषिद्ध आचार का उल्लेख वहीं कर दिया गया है, यथा ब्रह्मचर्य-जीवन सम्बन्धी आचारों के प्रसंग में ही अध्येता को तत्सम्बन्धी निषिद्ध आचारों का उल्लेख मिलेगा ।प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में श०ब्रा० के काल, कलेवर आदि के सम्बन्ध में विचार नहीं किया गया है, केवल इसकी आचार विषयक सामग्री की विवेचना में ही पूरा ध्यान केन्द्रित किया गया है । इसमें बारह परिच्छेद हैं । शोध-प्रबन्ध की योजना को इस रूप में समझा जा सकता है ।
प्रथम परिच्छेद में आचार का स्वरूप, वर्गीकरण एवम् महत्व पर विचार किया गया है । विषय की व्यापकता और सामग्री की बहुलता के कारण यह परिच्छेद बड़ा हो गया है ।
द्वितीय परिच्छेद में आचार का उद्धव एवम् विकास पर विचार किया गया है । आचार का विकास संहिताओं के काल से प्रारम्भ कर श०ब्रा० तक ही दिखाया गया है ।
तृतीय परिच्छेद में श०ब्रा० में सत्य एवम् श्रद्धा के महत्व पर प्रकाश डाला गया है । चतुर्थ परिच्छेद में अहिंसा, दमन-दान-दया, दक्षिणा, तप, ब्रह्मचर्य, आत्मसंयम और सहिष्णुता के भाव का उल्लेख है ।
पंचम परिच्छेद में श०ब्रा० में सुचरित, आतिथ्य-सेवा, अभिवादन या नमस्कार, उदारता और सदाशयता के भाव का निरूपण किया गया है ।
षष्ठ परिच्छेद में श्रम, स्वाध्याय, ज्ञान, मैत्री, स्पर्धा, समानता और स्वामिभक्ति का भाव है । सप्तम परिच्छेद में वैवाहिक जीवन एवम् काम-सम्बन्धी आचार का वर्णन किया गया है ।
अष्टम परिच्छेद याज्ञिक आचार से सम्बन्धित है, जिसमें यज्ञ सम्बन्धी आचारों का वर्णन करने का यथासाध्य प्रयत्न किया गया है ।
नवम परिच्छेद प्रकीर्ण आचारों का है, जिसमें पंचमहायज्ञों के महत्व पर प्रकाश डाला गया है, यहीं श०ब्रा० में उपलब्ध संस्कारों का भी वर्णन है ।
दशम परिच्छेद में, श०ब्रा० में उपलब्ध निषिद्ध आचारों का वर्णन है । इस परिच्छेद में काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, हिंसा, अनृत, ऋण, स्तेय, द्वेष, द्रोह, सूत, सुरापान, अश्रद्धा और भय को मानव मात्र के लिये त्याज्य बताया गया है ।
एकादश परिच्छेद में श०ब्रा० में उपलब्ध आचार तत्वों की जैन एवम् बौद्ध आचार तत्वों से तुलना की गयी है ।
द्वादश परिच्छेद उपसंहार रूप में है, इसमें श०ब्रा० के आचारों को सिद्धान्त और व्यवहार में दिखाने का प्रयास किया गया है ।
इस प्रकार इस शोध प्रबन्ध में श०ब्रा० में यज्ञीय कर्मकाण्ड के मध्य उपलब्ध सभी आचार तत्त्वों की विवेचना करने का पूर्ण प्रयास किया गया है तथा इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है कि श०ब्रा० केवल कर्मकाण्ड का शुष्क वर्णन करने वाला ग्रन्थही नहीं है वरन् इस ग्रन्थ में याज्ञिक विधिनिरूपण के साथ-साथ नैतिक गुणों के महत्त्व का उल्लेख भी यथास्थान किया गया है ।
यह शोध प्रबन्ध शतपथ ब्राह्मण सायण भाष्य को आधार बनाकर लिखा गया है । कहीं-कहीं विज्ञानभाष्य का भी उपयोग किया गया है । समस्त उद्धरण शतपथ ब्राह्मण ' अच्युत ग्रन्थमाला कार्यालय ' काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के अनुसार है ।
यह दैव का दुर्विपाक ही है कि यह शोध-प्रबन्ध अतिविलम्ब से प्रकाशित हो रहा है । प्रकाशन के सुअवसर पर सर्वप्रथम परम दयालु प्रभु के प्रति प्रणताञ्जलि समर्पित करती हुई, विमल दृष्टि प्रदाता सद्गुरु के चरणों की सादर वन्दना करती हूँ ।
यह शोध प्रबन्ध डॉ० रामजित् मिश्र रीडर, संस्कृत विभाग, बरेली कॉलेज, बरेली के निर्देशन में लिखा गया है । सत्य तो यह है कि उनके अनुग्रह पर प्रोत्साहन के बिना मेरे लिये शोध कार्य करना दुष्कर ही नहीं, सर्वथा असम्भव था । मैं अतिशय श्रद्धा भाव मे परम श्रद्धेय मिश्र जी के प्रति सदैव नतमस्तक रहूँगी । डॉ ० श्रीमती प्रमोद बाला मिश्रा रीडर, संस्कृत विभाग बरेली कॉलेज बरेली के प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ जिन्होंने हर समय मेरी सहायता की है वेद के क्षेत्र में विशेष ज्ञान होने के कारण आपका परामर्श मेरे लिये अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है ।
गण्यमान विद्वानों में स्व० पं० पट्टाभिराम शास्त्री, पूर्व प्रोफेसर मीमांसाशास्त्र, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी; श्री सुब्रह्मण्यम् शास्त्री सम्मानित प्राध्यापक, साधुवेला संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी; पं० रामनाथ दीक्षित, पूर्व प्रोफेसर वेद विभाग, धर्मोत्तर महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी; पं० गोपालचन्द्र मिश्र, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी; डॉ० सत्यपाल नारंग, रीडर, संस्कृत विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय, डॉ० श्याम बहादुर वर्मा, प्राध्यापक, पी०जी०डी०ए०वी० कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय; श्री एस०पी० सिंह प्रवक्ता, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, एवम् श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी पुस्तकालयाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की मैं अतिशय आभारी हूँ जिन्होंने अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर मेरी अनेक समस्याओं का समाधान किया है ।
इसके अतिरिक्त पुस्तकीय सहायता के लिये मैं बनारस हिन्दू यूनीवर्सिटी, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, गोयनका संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी, आगरा विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी, मेरठ विश्वविद्यालय, पंतनगर विश्वविद्यालय एवम् बरेली कॉलेज बरेली के पुस्तकालयों की चिरऋणी हूँ । मैं उन महानुभावों के प्रति भी आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्त्तव्य समझती हूँ जिनकी पुस्तकों रसम लेखों से मुझे प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को लिखने में सहायता मिली है ।
आज मैं आर्य कन्या महाविद्यालय, हरदोई के संस्कृत विभाग में कार्यरत हूँ । महाविद्यालय परिवार में प्राचार्या डॉ० श्रीमती निर्मला यादव, प्रबन्धक डॉ० श्री गिरीश्वर मिश्र तथा सभी प्रवक्ताओं के माङ्गलिक भाव ने मुझे अभिलषित पथ पर चलने की प्रेरणा दी है ।
परिवार की आधार शिला के रूप में संस्कृत प्रेमी अपने बाबा एवं श्री प्रिया शंकर व दादी श्रीमती स्व० सावित्री देवी का स्मरण करती हूँ जिनके आशीषों की चमत्कारी शक्ति से ही इस कार्य को पूर्ण कर सकी हूँ ।
आज मैं आदरणीय पिताजी स्व श्री राजेन्द्र रावत के स्वप्न को साकार करने जा रही हूँ जिनका आकस्मिक महाप्रयाण हृदय को अत्यन्त पीडित करता है, उनको भी मैं ऋणशोधक भावाञज्लि अर्पित करती हूँ । आदरणीया माँ श्रीमती कमला देवी सक्सेना द्वारा प्रदत्त संस्कारों की ऊर्जा सदैव मेरे साथ है । आदरणीय चाचा श्री जितेन्द्र रावत व श्री योगेन्द्र रावत तथा चाची श्रीमती गंगा सक्सेना व श्रीमती सरोज सक्सेना को पाकर मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करती हूँ ।
अपने पितातुल्य श्वसुर श्री भगवत सहाय सक्सेना, एडवोकेट तथा माँ तुल्य सास स्व० श्रीमती सविता सहाय के अमोघ आशीर्वचन मेरे जीवन की पूंजी है । उनका पुत्रीवत् दुलार सदैव स्मरणीय है ।
अपने जीवन साथी श्री अनिल कुमार सक्सेना, एडवोकेट के सहयोग को व्यक्त करने के लिये आज शब्दों का संग्रह भी कम है । उनके सहयोग के विना विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करते हुए यह कार्य कर पाना सर्वथा असम्भव है । प्यारे बच्चे सौम्या, शाश्वत व मनस्वी मेरी प्रेरणा हैं; प्रभु से उनके भावी सफल जीवन की कामना है ।
शोध प्रबन्ध को प्रकाशित कर विद्वज्जनों के सम्मुख प्रस्तुत करने में परिमल पब्लिकेशन्स दिल्ली के अधिकारी साधुवाद के पात्र हैं ।
टंकण विषयक त्रुटि-मार्जन का यथा सम्भव प्रयास किया गया है फिर भी इसमें रही त्रुटियों के लिये मैं बुधजनों से क्षमाप्रार्थी हूँ ।
अन्त में राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के प्रति भी आभार प्रदर्शित करती हूँ जिसने शोध छात्रवृत्ति प्रदान कर मुझे शोध कार्य में भी आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त रखा तथा आज भी शोध-प्रकाशन में अनुदान प्रदान कर पूर्ण सहयोग दिया है ।
आज वैदिक साहित्य विकासवाद के आवर्त्त में फँसा है आधुनिक विकासवादी विद्वान् इन ग्रन्थों को उपेक्षित दृष्टि से देखते हैं परन्तु वैदिक ऋषियों का दिव्य सन्देश प्रत्येक क्षेत्र में अनुसरणीय है । इस शोध प्रबन्ध के प्रकाशन से यदि शोध छात्रों को किञिच्त् मात्र भी दृष्टि मिल सकेगी तो मैं स्वयं को धन्य समझूँगी ।
विषय सूची |
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|
आचार का स्वरूप, वर्गीकरण एवम् महत्त्व |
|
(अ) |
आचार का स्वरूप |
1 |
|
धर्म का स्वरूप |
4 |
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नैतिकता और धर्म |
9 |
|
नैतिकता का आधार धर्म है |
10 |
|
नैतिकता धर्म से पूर्णत स्वतन्त्र है |
11 |
|
नैतिकता और धर्म में भेद |
12 |
|
नैतिकता और धर्म का अन्योन्याश्रयत्व |
14 |
(ब) |
आचार का वर्गीकरण |
15 |
1. |
सामान्य धर्म या आचार |
17 |
2. |
विशेष धर्म एवम् आचार |
19 |
क. |
वर्ण धर्म |
20 |
|
ब्राह्मणधर्म महत्व एवम् आचार |
22 |
|
क्षत्रिय धर्म महत्त्व एवं आचार |
24 |
|
वैश्य धर्म महत्त्वएवम् आचार |
25 |
|
शूद्र धर्म महत्त्व एवम् आचार |
26 |
ख. |
आश्रम- धर्म |
28 |
|
ब्रह्मचर्याश्रम |
31 |
|
गृहस्थाश्रम |
32 |
|
वानप्रस्थाश्रम |
35 |
|
संन्यासाश्रम |
38 |
ग. |
वर्णाश्रम धर्म एवम् आचार |
43 |
घ. |
गुण धर्म |
44 |
ङ. |
नैमित्तिक धर्म |
44 |
च. |
आपद् धर्म |
45 |
3. |
युग धर्म एवम् आचार |
48 |
|
सत्ययुग |
51 |
|
त्रेता युग |
52 |
|
द्वापर युग |
53 |
|
कलियुग |
54 |
(स) |
आचार का महत्व |
57 |
|
दुराचार की निन्दा |
59 |
|
द्वितीय परिच्छेद |
61-88 |
(क) |
आचार का उद्धव |
61 |
अ. |
आचार के प्रेरक तत्व |
62 |
|
विचार |
62 |
|
मन |
63 |
|
कर्मफल की मान्यता |
64 |
|
पुनर्जन्म का सिद्धान्त |
66 |
|
परलोक एवम् स्वर्ग-नरक की धारणा |
67 |
|
ईश्वर की सत्ता में विश्वास |
68 |
|
भौगोलिक स्थिति |
69 |
|
सामाजिक नैतिक मान्यताएँ |
69 |
ब. |
आचार प्रतिपादक ग्रन्थ |
70 |
स. |
सदाचार परायण पुरुषों का अनुकरणीय चरित्र |
70 |
|
मर्यादा पुरुषोत्तम राम |
71 |
|
श्रीकृष्ण |
73 |
|
धर्मराज युधिष्ठिर |
75 |
|
महात्मा विदुर |
77 |
|
महर्षि दधीचि |
78 |
द. |
आत्मनस्तुष्टि |
79 |
(ख) |
आचार का विकास |
80 |
|
ऋग्वेद में आचार |
80 |
|
यजुर्वेद में आचार |
82 |
|
अथर्ववेद में आचार |
84 |
|
ऐतरेय ब्राह्मण में आचार |
86 |
|
तैत्तिरीय ब्राह्मण में आचार |
87 |
|
तृतीय परिच्छेद |
89-112 |
(क) |
शतपथ ब्राह्मण में |
89 |
|
सत्य सत्य का स्वरूप |
89 |
|
सत्य का महत्व |
93 |
|
ऋत का स्वरूप और उसका सत्य अर्थ में प्रयोग |
95 |
|
शतपथ ब्राह्मण में सत्य |
99 |
(ख) |
शतपथ ब्राह्मण में श्रद्धा |
105 |
|
श्रद्धा का स्वरूप |
106 |
|
श्रद्धा का महत्त्व |
108 |
|
शतपथ ब्राह्मण में श्रद्धा |
110 |
|
चतुर्थ परिच्छेद |
113-142 |
(क) |
अहिंसा का स्वरूप |
113 |
|
अहिंसा का महत्व |
115 |
|
शतपथ ब्राह्मण में अहिंसा |
115 |
|
मानसिक अहिंसा |
115 |
|
वाचिक अहिंसा |
118 |
|
कायिक अहिंसा |
118 |
(ख) |
दमन-दान-दया |
119 |
(ग) |
दक्षिणा |
123 |
|
शतथ ब्राह्मण में दक्षिणा |
124 |
(घ) |
तप |
130 |
|
शतपथ ब्राह्मण में तप |
132 |
(ङ) |
ब्रह्मचर्य |
135 |
|
शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मचर्य |
136 |
(च) |
आत्मसंयम और सहिष्णुता |
140 |
|
पंचम परिच्छेद |
143-154 |
(क) |
सुचरित |
143 |
(ख) |
आतिथ्य |
144 |
|
शतपथ ब्राह्मण में आतिथ्य |
146 |
(ग) |
सेवा |
148 |
|
शतपथ ब्राह्मण में सेवा |
149 |
(घ) |
अभिवादन या नमस्कार |
150 |
(ङ) |
उदारता |
151 |
(च) |
सदाशयता |
152 |
|
षष्ठ परिच्छेद |
155-171 |
(क) |
श्रम |
155 |
(ख) |
स्वाध्याय |
157 |
|
शतपथ ब्राह्मण में स्वाध्याय |
158 |
(ग) |
ज्ञान |
163 |
|
शतपथ ब्राह्मण में ज्ञान |
163 |
(घ) |
मैत्री |
165 |
|
शतपथ ब्राह्मण में मैत्री - भाव |
166 |
(ङ) |
स्पर्धा |
169 |
(च) |
समानता |
170 |
(छ) |
स्वामिभक्ति |
171 |
|
सप्तम परिच्छेद |
172-183 |
(क) |
वैवाहिक जीवन सम्बन्धी आचार |
172 |
|
विवाह, स्वरूप एवम् महत्व |
172 |
|
शतपथ ब्राह्मण में विवाह |
173 |
|
पत्नी की प्रतिष्ठा |
174 |
|
सस्त्रीक यज्ञ |
175 |
|
सन्तति |
176 |
(ख) |
काम सम्बन्धी आचार |
179 |
|
काम का स्वरूप एवम् महत्त्व |
179 |
|
अष्टम परिच्छेद |
184-195 |
|
याज्ञिक आचार |
|
|
यज्ञ स्वरूप एवम् महत्त्व |
184 |
1. |
व्रतग्रहण |
186 |
2. |
दीक्षा |
188 |
3. |
दीक्षा - सम्बन्धी आचार |
189 |
(क) |
दीक्षा - काल |
189 |
(ख) |
भोजन |
189 |
(ग) |
केशश्मश्रुवपन एवम् नखकर्तन |
190 |
(घ) |
खान |
190 |
(ङ) |
वस्त्र-धारण |
190 |
(च) |
मांस-भक्षण-निषेध |
191 |
(छ) |
अभ्यंजन |
191 |
(ज) |
आंजन |
191 |
(झ) |
पवित्रीकरण |
191 |
(व) |
कृष्णाजिन-दीक्षा |
192 |
(ट) |
मेखला-धारण |
192 |
(ठ) |
कृष्ण-विषाण-बन्धन |
192 |
(ङ) |
वाक्संयमन |
192 |
(ढ) |
व्रत-भोजन |
193 |
(ण) |
शयन सम्बन्धी आचार |
193 |
4. |
अवभृथ |
193 |
5. |
भोजन सम्बन्धी आचार |
194 |
6. |
यजमान-पत्नी सम्बन्धी निषिद्ध आचार |
194 |
7. |
यजमान सम्बन्धी निषिद्ध आचार |
195 |
|
नवम परिच्छेद |
196-203 |
|
प्रकीर्ण आचार |
196 |
(क) |
पंचमहायज्ञ |
197 |
|
भूतयज्ञ |
198 |
|
मनुष्य यज्ञ |
198 |
|
पितृयज्ञ |
198 |
|
देवयज्ञ |
198 |
|
ब्रह्मयज्ञ |
199 |
(ख) |
संस्कार |
199 |
|
नामकरण संस्कार |
200 |
|
उपनयन संस्कार |
201 |
|
विवाह संस्कार |
203 |
|
दशम परिच्छेद |
204-219 |
|
शतपथ ब्राह्मण में निषिद्ध आचार |
|
(क) |
काम |
205 |
(ख) |
क्रोध |
206 |
(ग) |
लोभ |
208 |
(घ) |
अभिमान |
209 |
(ङ) |
हिंसा |
210 |
(च) |
अनृत |
211 |
(छ) |
ऋण |
211 |
(ज) |
स्तेय |
213 |
(झ) |
द्वेष |
213 |
(ज) |
द्रोह |
215 |
(ट) |
सूत |
215 |
(ठ) |
सुरापान |
217 |
(ड) |
अश्रद्धा |
217 |
(ढ) |
भय |
218 |
|
एकादश परिच्छेद |
220-230 |
|
शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध आचार तत्वों की जैन और बौद्ध आचार तत्वों के साथ तुलना |
|
|
द्वादश परिच्छेद |
231-235 |
|
उपसंहार |
|
|
सन्दर्भ-वन्द-सूची |
237-248 |
FOREWORD
It gives me immense pleasure to introduce this interesting and scholarly work entitled Satapatha Brharmana Men Acara (Morals I Satapatha Brahmana) by Mrs. Meera Rani Rawat. This work was originally prepared as a doctoral thesis on the basis of which M.J.P Rohilkhand University; Bareilly awarded the degree of Doctor of Philosophy (Ph.D.) to Mrs. Rawat.
Mrs. Meera Rani Rawat is well-versed in both the systems, traditional and modern. And it is indeed a matter of immense value that she has taken pains to unfold and explain the intricate points of ethics and religion in the interest of researches, who will definitely appreciate them.
The object of this work is to present to the student of ethics and religion, in objective form and with constant reference to the original sources and to modern discussions, a comprehensive but concise account of the whole of the ethics and religion of Satapatha Bharamana.
It is quite an original and unbiased study. A genuine student of ethics and religion will find in this work an invaluable and exhaustive store of fact. It is also an important addition to the literature available on Indian moral philosophy. This work is more comprehensive because along with Hindu ethics it given a detailed account of Buddhist and Jain ethics as well and more modern because it exhibits greater awareness of the author about some modern themes in ethics. Because of its comprehensiveness, clarity of expression and well arranged treatment the work obtains the value of a textbook.
The account of customary observances as given in the present treatise after the Satapatha Brahmana is authentic and a welcome one. I should like to congratulate Mrs. Rawat for this scholarly contribution which I hope, will be warmly received and appreciated both by specialists and general readers alike who are interested in Vedic studies.
प्राक्कथन
शतपथ ब्राह्मण शुक्लयजुर्वेद का महत्वशाली ब्राह्मण मथ है । सभी ब्राह्मण गन्धों में यह सर्वाधिक विपुलकाय ब्राह्मण है । इसमें यज्ञों का सांगोपांग वर्णन किया गया है । ब्राह्मण मथो के सम्बन्ध में अधिकांश पश्चिमी विद्वानों का यह विचार है कि ये यज्ञ सम्बन्धी प्रलाप मात्र हैं परन्तु मेरी दृष्टि में पश्चिमी विद्वानों की इस प्रकार की धारणा सर्वथा निर्मूल है । ब्राह्मण ग्रन्थाों को 'यज्ञसम्बन्धी प्रलाप मात्र' कहना उनके साथ अन्याय करना है । मैं इस सम्बन्ध में पं ० बलदेव उपाध्याय के विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ । उन्होंने 'वैदिक साहित्य और संस्कृति ' में लिखा है कि ''ब्राह्मणों के यागानुष्ठानों के विशाल सूक्ष्मतम वर्णन को आज का आलोचक नगण्य दृष्टि से देखने का दुःसाहस भले ही करे, परन्तु वे एक अतीत युग के संरक्षित निधि हैं; जिन्होंने वैदिक युग के क्रिया-कलापों का एक भव्य चित्र धर्ममीमासंकों के लिये प्रस्तुत कर रखा है, यह परिस्थिति के परिवर्तन होने से अवश्य ही धूमिल-सा हो गया है परन्तु फिर भी वह है धार्मिक दृष्टि से उपादेय, संग्रहणीय और मननीय ।
सत्य तो यह है कि प्रत्येक कृति का महत्त्व इस तथ्य पर निर्भर करता है कि वह जन-जीवन के लिये कितनी उपयोगी है । दूसरे शब्दों में युग सापेक्ष्य मूल्यों की कसौटी पर कसकर ही किसी भी कृति का मूल्यांकन किया जा सकता है । ब्राह्मण क्र-थों के सम्बन्ध में भी यही बात है; क्योंकि ब्राह्मणकालीन युग में यज्ञों का अत्यधिक महत्व था, यज्ञों के सफल सम्पादन में ही मनुष्य अपना अहोभाग्य समझता था । फलस्वरूप याज्ञिक अनुष्ठानों की विस्तृत व्याख्या करने वाले गन्धों का भी तत्कालीन समाज में महत्व होना स्वाभाविक ही है, फिर श०ब्रा० तो उनमें से प्रमुख है । आज परिस्थिति में परिवर्तन होने से श०ब्रा० का महत्व भी अपेक्षया कम अवश्य हो गया है, फिर भी यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि यदि इस महनीय ग्रन्थ का श्रद्धापूर्वक प्रगाढ़ अनुशीलन किया जाय, तो यह सहज ही स्पष्ट हो जायेगा कि इस मथ में यज्ञ सम्बन्धी विवेचन कै अतिरिक्त अन्य प्रकार की सामग्री भी है जो तत्कालीन लोगों के सामाजिक, नैतिक व धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालती है ।
कतिपय विद्वानों ने श०ब्रा० के यलो पर स्पृहणीय कार्य किया है जोकि उचित भी प्रतीत होता है; क्योंकि श०ब्रा० यज्ञों की ही पूर्ण एवम् विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है । इसके अतिरिक्त श०ब्रा० के आख्यानों व निरुक्तियों पर भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है । डॉ ० उमेशचन्द्र पाण्डेय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से' शतपथ ब्राह्मण में आख्यान' विषय पर शोध कार्य किया है । एटिमोलाजीज़ आँफ शतपथ ब्राहाण 'विषय पर डॉ० सत्यकाम वर्मा के निर्देशन में डॉ ० नरगिस वर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रशंसनीय कार्य किया है । डॉ ० वाकर नागेल, डॉ ० ओल्डन वर्ग और डॉ० कीथ आदि विद्वानों ने श०ब्रा० पर भाषाशास्त्र की दृष्टि से विचार किया है, लेकिन श० ब्रा० में उक्त विषयों के अतिरिक्त ऐसी भी सामग्री की प्रचुरता है जिससे तत्कालीन लोगों के नैतिक जीवन पर विपुल प्रकाश पड़ता है । कतिपय विद्वानों ने ' शतपथ ब्राहाण याज्ञिक कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है ' यह कहकर इसमें निहित नैतिक तत्वों की सर्वथा उपेक्षा की है । ए०बी०कीथ ने ' दि रिलीजन एण्ड फिलाँसफी आँफ दि वेद एण्ड उपनिषद्स् ' में ब्राह्मण क्र-थों में नीति का विवेचन करने से पूर्व स्पष्टरूप से लिखा है कि- In the strict sense of the world, there is no theory of ethics in the Brahmana Literature. परन्तु मैं इस कथन से पूर्णतया सहमत न होकर आशिक रूप ' सहमत हूँ । यद्यपि यह सत्य है कि श०ब्रा० विशेष रूप से यज्ञ सम्बन्धी ग्रन्थ होने से इसमें नैतिक तत्वों का वह रूप नहीं उभर पाया है जैसा कि परवर्ती साहित्य में मिलता है, तथापि यह कहना कथमपि उचित नहीं है कि श०ब्रा० में नीति का सिद्धान्त नहीं है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जायेगा कि श०ब्रा० में ऐसे स्थलों का प्रभाव नहीं है जिनमें स्पष्ट शब्दों में नैतिक गुणों के महत्त्व का कथन हुआ है और ऐसे स्थलों पर तत्कालीन लोगों के आचारों का परिज्ञान स्वत ही हो जाता है ।
डॉ० काणे महोदय ने 'हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र' में धर्म सम्बन्धी विवेचन में श ब्रा० के भी उद्धरण लिये हैं जिससे शतपथ ब्राह्मण में धर्मविषयक सामग्री का ज्ञान होता है । वैदिक साहित्य के इतिहास से सम्बद्ध पुस्तकों में भी इस विषय पर कुछ सामग्री मिलती है । इसके अतिरिक्त विभिन्न पुस्तकों एवम् पत्रिकाओं में कुछ लेख भी मिलते है जिनमें 'शतपथब्राह्मण में आचार विषय पर संक्षेप में विचार किया गया है ।
अभी तक इस क्षेत्र में जो भी कार्य हुआ है वह नगण्यमात्र है । मैं उनको तब तक अपूर्ण समझती हूँ जब तक शतपथब्राह्मणकालीन समाज के नैतिक आचरण के विषय में कोई तथ्यात्मक उल्लेख पूर्णरूप से प्रस्तुत न किया गया हो । 'शतपथ ब्राह्मण में आचार' यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है । श०ब्रा० कर्मकाण्ड प्रधान होते हुए भी नैतिक गुणों के महत्त्व पर विशेष रूप से प्रकाश डालता है । आश्चर्य की बात है कि श०ब्रा० इतना महत्त्वपूर्ण मथ होने पर भी और इसमें आचार विषयक सामग्री की प्रचुरता होने पर भी, अभी तक ऐसा कोई शोध-प्रबन्ध नहीं लिखा गया है, जिसमें श०ब्रा० में उपलब्ध आचार तत्वों की विस्तृत मीमांसा की गयी हो । इस कमी की पूर्ति की सम्भावना प्रस्तुत शोध-कार्य से की जा सकती है । इस मथ में वर्णित आचारों की मीमांसा आधुनिक समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में करने के उद्देश्य से मेरी इस कार्य में प्रवृत्ति हुई है । जो अनुसन्धित्सु उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य में आचार विषयक सामग्री का पर्यवेक्षण करना चाहेंगे, यह शोध-कार्य उनका पथ प्रशस्त कर सकता है । अपने अध्येता को यह ग्रन्थ सच्ची नैतिक अन्तर्दृष्टि दे सकता है जो नैतिक जीवन की प्रथम तथा अनिवार्य अवस्था है । इस तरह के शोधों से लोगों को यह पता चलेगा कि शिव तत्त्व का उच्च स्तर क्या हो सकता है? व्यक्ति का कल्याण करना और उसके जीवन को सुन्दर तथा शिव तत्व से युक्त करना भी इसका आनुषंगिक लक्ष्य हो सकता है । कभी-कभी विभिन्न कर्तव्यों के बीच संघर्ष होता है, अनेक विचारों के कारण मानसिक द्वन्द्व पैदा होता है, व्यक्ति का अपने प्रति और समाज के प्रति क्या कर्तव्य है? इन कर्तव्यों के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित किया जाय? ऐसी द्वन्द्वात्मक स्थिति में व्यक्ति को नैतिक अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, नैतिक ज्ञान उसके लिये एक दृढ़ अवलम्बन के समान है, यह उसे आत्मबल देता है । वह मनुष्य को दयनीय और हीन स्थिति से उबारने का प्रयास करता है । इस कार्य द्वारा उस नैतिक ज्ञान से लोगों को अवगत कराना भी अनुसन्धात्री की हार्दिक इच्छा है । इस शोध-गन्ध के अध्ययन से प्रत्येक पाठक को यह अनुभव होने लगेगा कि वह एक स्वतन्त्र बौद्धिक प्राणी है, अत वह शिव तत्व को प्राप्त कर सकता है । मनुष्य के अन्दर सोयी हुई मानवता को जगाना, उसके बारे में उसे संकेत करना भी प्रस्तुत प्रयास का अवान्तर प्रयोजन है । इस ग्रन्थ का अनुशीलन व्यक्ति के आचरण को विवेक-सम्मत बना सकता है, जिसका दूरगामी परिणाम होता है । विवेक जाग्रत होने पर मनुष्य विवेक-सम्मत कर्म करता है, बौद्धिक मार्ग एवम् सत्य मार्ग को अपनाता है । बौद्धिक प्रकाश को प्राप्त कर लेने पर वह अन्धकारपूर्ण अन्धविश्वासों, जर्जर मरणोन्मुख रूढ़ि-रीतियों और संकीर्ण स्वार्थमयी भावनाओं का त्याग कर देता है । आज संसार के हर कोने में विकास की दुन्दुभि बज रही है । बुद्धि बल से औद्योगिक तथा वैज्ञानिक जगत् में महान् कार्यों का सम्पादन करके भी वह अपने परिवेश को शान्ति न दे सका । प्राय होने वाले आत्मघात, बलात्कारादि भीषण कृत्य इसके निदर्शन हैं । यदि हम चाहते हैं कि मानवता-विरोधी ये कीटाणु न पनपे और हम स्थूल शरीर से होने वाले दुराचारों से सर्वथा मुक्त हो सकें, तो इस प्रकार के ग्रन्थों का प्रणयन व अनुशीलन उपयोगी होगा । यहाँ मैं प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध की लेखन व्यवस्था के सम्बन्ध में लिखना आवश्यक समझती हूँ । इस शोध-प्रबन्ध की लेखन शैली के सम्बन्ध में जब मैने वाराणसी के प्रतिष्ठित विद्वान् स्व० श्री पट्टाभिराम शास्त्रीजी से अपने विचार व्यक्त करने की प्रार्थना की तब उन्होंने - इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत् अर्थात् इतिहास पुराणों के द्वारा वेदों का उपबृंहण होना चाहिये । इस वचन की व्याख्या करते हुए श०ब्रा० के अतिरिक्त इतिहास पुराणादि गन्धों से भी नीति सम्बन्धी सामग्री का संचयन करने को कहा, साथ ही नैतिक तत्त्वों का स्वरूप व महत्व वर्णित करते हुए श०ब्रा० में उपलब्ध आचारों का वर्णन करने का निर्देश दिया । उन्हीं के कथन को गुरुमन्त्र मानकर मैने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में सर्वप्रथम प्रत्येक नैतिक तत्व का स्वरूप व महत्व वर्णित किया है जिसमें वैदिक साहित्य के अतिरिक्त इतिहास पुराणादि ग्रन्थों की भी सहायता ली है, तत्पश्चात् श०ब्रा० के अनुसार उस नैतिक तत्व के महत्त्व पर प्रकाश डाला है । 'शतपथ ब्राह्मण में आचार ' इस सम्बन्ध में यह तथ्य ध्यातव्य है कि यहाँ याज्ञिक कर्मकाण्ड को आचार नहीं माना गया है । साधारणतमानवीय प्रत्येक कर्म आचार कहलाता है, इस रूप में यज्ञ सम्बन्धी कर्म भी आचार कहलाते हैं । परन्तु प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आचार का तात्पर्य नैतिक गुणों एवम् यज्ञ के प्रसंग में विहित और यजमान तथा यजमान-पत्नी से सीधे सम्बन्धित नैतिकता प्रधान कर्मों से है । निषिद्ध आचारों का विवेचन ' शतपथ ब्राह्मण में निषिद्ध आचार ' नामक परिच्छेद में किया गया है फिर भी किसी विशेष प्रसंग में तत्सम्बन्धी निषिद्ध आचार का उल्लेख वहीं कर दिया गया है, यथा ब्रह्मचर्य-जीवन सम्बन्धी आचारों के प्रसंग में ही अध्येता को तत्सम्बन्धी निषिद्ध आचारों का उल्लेख मिलेगा ।प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में श०ब्रा० के काल, कलेवर आदि के सम्बन्ध में विचार नहीं किया गया है, केवल इसकी आचार विषयक सामग्री की विवेचना में ही पूरा ध्यान केन्द्रित किया गया है । इसमें बारह परिच्छेद हैं । शोध-प्रबन्ध की योजना को इस रूप में समझा जा सकता है ।
प्रथम परिच्छेद में आचार का स्वरूप, वर्गीकरण एवम् महत्व पर विचार किया गया है । विषय की व्यापकता और सामग्री की बहुलता के कारण यह परिच्छेद बड़ा हो गया है ।
द्वितीय परिच्छेद में आचार का उद्धव एवम् विकास पर विचार किया गया है । आचार का विकास संहिताओं के काल से प्रारम्भ कर श०ब्रा० तक ही दिखाया गया है ।
तृतीय परिच्छेद में श०ब्रा० में सत्य एवम् श्रद्धा के महत्व पर प्रकाश डाला गया है । चतुर्थ परिच्छेद में अहिंसा, दमन-दान-दया, दक्षिणा, तप, ब्रह्मचर्य, आत्मसंयम और सहिष्णुता के भाव का उल्लेख है ।
पंचम परिच्छेद में श०ब्रा० में सुचरित, आतिथ्य-सेवा, अभिवादन या नमस्कार, उदारता और सदाशयता के भाव का निरूपण किया गया है ।
षष्ठ परिच्छेद में श्रम, स्वाध्याय, ज्ञान, मैत्री, स्पर्धा, समानता और स्वामिभक्ति का भाव है । सप्तम परिच्छेद में वैवाहिक जीवन एवम् काम-सम्बन्धी आचार का वर्णन किया गया है ।
अष्टम परिच्छेद याज्ञिक आचार से सम्बन्धित है, जिसमें यज्ञ सम्बन्धी आचारों का वर्णन करने का यथासाध्य प्रयत्न किया गया है ।
नवम परिच्छेद प्रकीर्ण आचारों का है, जिसमें पंचमहायज्ञों के महत्व पर प्रकाश डाला गया है, यहीं श०ब्रा० में उपलब्ध संस्कारों का भी वर्णन है ।
दशम परिच्छेद में, श०ब्रा० में उपलब्ध निषिद्ध आचारों का वर्णन है । इस परिच्छेद में काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, हिंसा, अनृत, ऋण, स्तेय, द्वेष, द्रोह, सूत, सुरापान, अश्रद्धा और भय को मानव मात्र के लिये त्याज्य बताया गया है ।
एकादश परिच्छेद में श०ब्रा० में उपलब्ध आचार तत्वों की जैन एवम् बौद्ध आचार तत्वों से तुलना की गयी है ।
द्वादश परिच्छेद उपसंहार रूप में है, इसमें श०ब्रा० के आचारों को सिद्धान्त और व्यवहार में दिखाने का प्रयास किया गया है ।
इस प्रकार इस शोध प्रबन्ध में श०ब्रा० में यज्ञीय कर्मकाण्ड के मध्य उपलब्ध सभी आचार तत्त्वों की विवेचना करने का पूर्ण प्रयास किया गया है तथा इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है कि श०ब्रा० केवल कर्मकाण्ड का शुष्क वर्णन करने वाला ग्रन्थही नहीं है वरन् इस ग्रन्थ में याज्ञिक विधिनिरूपण के साथ-साथ नैतिक गुणों के महत्त्व का उल्लेख भी यथास्थान किया गया है ।
यह शोध प्रबन्ध शतपथ ब्राह्मण सायण भाष्य को आधार बनाकर लिखा गया है । कहीं-कहीं विज्ञानभाष्य का भी उपयोग किया गया है । समस्त उद्धरण शतपथ ब्राह्मण ' अच्युत ग्रन्थमाला कार्यालय ' काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के अनुसार है ।
यह दैव का दुर्विपाक ही है कि यह शोध-प्रबन्ध अतिविलम्ब से प्रकाशित हो रहा है । प्रकाशन के सुअवसर पर सर्वप्रथम परम दयालु प्रभु के प्रति प्रणताञ्जलि समर्पित करती हुई, विमल दृष्टि प्रदाता सद्गुरु के चरणों की सादर वन्दना करती हूँ ।
यह शोध प्रबन्ध डॉ० रामजित् मिश्र रीडर, संस्कृत विभाग, बरेली कॉलेज, बरेली के निर्देशन में लिखा गया है । सत्य तो यह है कि उनके अनुग्रह पर प्रोत्साहन के बिना मेरे लिये शोध कार्य करना दुष्कर ही नहीं, सर्वथा असम्भव था । मैं अतिशय श्रद्धा भाव मे परम श्रद्धेय मिश्र जी के प्रति सदैव नतमस्तक रहूँगी । डॉ ० श्रीमती प्रमोद बाला मिश्रा रीडर, संस्कृत विभाग बरेली कॉलेज बरेली के प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ जिन्होंने हर समय मेरी सहायता की है वेद के क्षेत्र में विशेष ज्ञान होने के कारण आपका परामर्श मेरे लिये अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है ।
गण्यमान विद्वानों में स्व० पं० पट्टाभिराम शास्त्री, पूर्व प्रोफेसर मीमांसाशास्त्र, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी; श्री सुब्रह्मण्यम् शास्त्री सम्मानित प्राध्यापक, साधुवेला संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी; पं० रामनाथ दीक्षित, पूर्व प्रोफेसर वेद विभाग, धर्मोत्तर महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी; पं० गोपालचन्द्र मिश्र, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी; डॉ० सत्यपाल नारंग, रीडर, संस्कृत विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय, डॉ० श्याम बहादुर वर्मा, प्राध्यापक, पी०जी०डी०ए०वी० कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय; श्री एस०पी० सिंह प्रवक्ता, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, एवम् श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी पुस्तकालयाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी की मैं अतिशय आभारी हूँ जिन्होंने अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर मेरी अनेक समस्याओं का समाधान किया है ।
इसके अतिरिक्त पुस्तकीय सहायता के लिये मैं बनारस हिन्दू यूनीवर्सिटी, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, गोयनका संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी, आगरा विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी, मेरठ विश्वविद्यालय, पंतनगर विश्वविद्यालय एवम् बरेली कॉलेज बरेली के पुस्तकालयों की चिरऋणी हूँ । मैं उन महानुभावों के प्रति भी आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्त्तव्य समझती हूँ जिनकी पुस्तकों रसम लेखों से मुझे प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को लिखने में सहायता मिली है ।
आज मैं आर्य कन्या महाविद्यालय, हरदोई के संस्कृत विभाग में कार्यरत हूँ । महाविद्यालय परिवार में प्राचार्या डॉ० श्रीमती निर्मला यादव, प्रबन्धक डॉ० श्री गिरीश्वर मिश्र तथा सभी प्रवक्ताओं के माङ्गलिक भाव ने मुझे अभिलषित पथ पर चलने की प्रेरणा दी है ।
परिवार की आधार शिला के रूप में संस्कृत प्रेमी अपने बाबा एवं श्री प्रिया शंकर व दादी श्रीमती स्व० सावित्री देवी का स्मरण करती हूँ जिनके आशीषों की चमत्कारी शक्ति से ही इस कार्य को पूर्ण कर सकी हूँ ।
आज मैं आदरणीय पिताजी स्व श्री राजेन्द्र रावत के स्वप्न को साकार करने जा रही हूँ जिनका आकस्मिक महाप्रयाण हृदय को अत्यन्त पीडित करता है, उनको भी मैं ऋणशोधक भावाञज्लि अर्पित करती हूँ । आदरणीया माँ श्रीमती कमला देवी सक्सेना द्वारा प्रदत्त संस्कारों की ऊर्जा सदैव मेरे साथ है । आदरणीय चाचा श्री जितेन्द्र रावत व श्री योगेन्द्र रावत तथा चाची श्रीमती गंगा सक्सेना व श्रीमती सरोज सक्सेना को पाकर मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करती हूँ ।
अपने पितातुल्य श्वसुर श्री भगवत सहाय सक्सेना, एडवोकेट तथा माँ तुल्य सास स्व० श्रीमती सविता सहाय के अमोघ आशीर्वचन मेरे जीवन की पूंजी है । उनका पुत्रीवत् दुलार सदैव स्मरणीय है ।
अपने जीवन साथी श्री अनिल कुमार सक्सेना, एडवोकेट के सहयोग को व्यक्त करने के लिये आज शब्दों का संग्रह भी कम है । उनके सहयोग के विना विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करते हुए यह कार्य कर पाना सर्वथा असम्भव है । प्यारे बच्चे सौम्या, शाश्वत व मनस्वी मेरी प्रेरणा हैं; प्रभु से उनके भावी सफल जीवन की कामना है ।
शोध प्रबन्ध को प्रकाशित कर विद्वज्जनों के सम्मुख प्रस्तुत करने में परिमल पब्लिकेशन्स दिल्ली के अधिकारी साधुवाद के पात्र हैं ।
टंकण विषयक त्रुटि-मार्जन का यथा सम्भव प्रयास किया गया है फिर भी इसमें रही त्रुटियों के लिये मैं बुधजनों से क्षमाप्रार्थी हूँ ।
अन्त में राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के प्रति भी आभार प्रदर्शित करती हूँ जिसने शोध छात्रवृत्ति प्रदान कर मुझे शोध कार्य में भी आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त रखा तथा आज भी शोध-प्रकाशन में अनुदान प्रदान कर पूर्ण सहयोग दिया है ।
आज वैदिक साहित्य विकासवाद के आवर्त्त में फँसा है आधुनिक विकासवादी विद्वान् इन ग्रन्थों को उपेक्षित दृष्टि से देखते हैं परन्तु वैदिक ऋषियों का दिव्य सन्देश प्रत्येक क्षेत्र में अनुसरणीय है । इस शोध प्रबन्ध के प्रकाशन से यदि शोध छात्रों को किञिच्त् मात्र भी दृष्टि मिल सकेगी तो मैं स्वयं को धन्य समझूँगी ।
विषय सूची |
||
|
आचार का स्वरूप, वर्गीकरण एवम् महत्त्व |
|
(अ) |
आचार का स्वरूप |
1 |
|
धर्म का स्वरूप |
4 |
|
नैतिकता और धर्म |
9 |
|
नैतिकता का आधार धर्म है |
10 |
|
नैतिकता धर्म से पूर्णत स्वतन्त्र है |
11 |
|
नैतिकता और धर्म में भेद |
12 |
|
नैतिकता और धर्म का अन्योन्याश्रयत्व |
14 |
(ब) |
आचार का वर्गीकरण |
15 |
1. |
सामान्य धर्म या आचार |
17 |
2. |
विशेष धर्म एवम् आचार |
19 |
क. |
वर्ण धर्म |
20 |
|
ब्राह्मणधर्म महत्व एवम् आचार |
22 |
|
क्षत्रिय धर्म महत्त्व एवं आचार |
24 |
|
वैश्य धर्म महत्त्वएवम् आचार |
25 |
|
शूद्र धर्म महत्त्व एवम् आचार |
26 |
ख. |
आश्रम- धर्म |
28 |
|
ब्रह्मचर्याश्रम |
31 |
|
गृहस्थाश्रम |
32 |
|
वानप्रस्थाश्रम |
35 |
|
संन्यासाश्रम |
38 |
ग. |
वर्णाश्रम धर्म एवम् आचार |
43 |
घ. |
गुण धर्म |
44 |
ङ. |
नैमित्तिक धर्म |
44 |
च. |
आपद् धर्म |
45 |
3. |
युग धर्म एवम् आचार |
48 |
|
सत्ययुग |
51 |
|
त्रेता युग |
52 |
|
द्वापर युग |
53 |
|
कलियुग |
54 |
(स) |
आचार का महत्व |
57 |
|
दुराचार की निन्दा |
59 |
|
द्वितीय परिच्छेद |
61-88 |
(क) |
आचार का उद्धव |
61 |
अ. |
आचार के प्रेरक तत्व |
62 |
|
विचार |
62 |
|
मन |
63 |
|
कर्मफल की मान्यता |
64 |
|
पुनर्जन्म का सिद्धान्त |
66 |
|
परलोक एवम् स्वर्ग-नरक की धारणा |
67 |
|
ईश्वर की सत्ता में विश्वास |
68 |
|
भौगोलिक स्थिति |
69 |
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सामाजिक नैतिक मान्यताएँ |
69 |
ब. |
आचार प्रतिपादक ग्रन्थ |
70 |
स. |
सदाचार परायण पुरुषों का अनुकरणीय चरित्र |
70 |
|
मर्यादा पुरुषोत्तम राम |
71 |
|
श्रीकृष्ण |
73 |
|
धर्मराज युधिष्ठिर |
75 |
|
महात्मा विदुर |
77 |
|
महर्षि दधीचि |
78 |
द. |
आत्मनस्तुष्टि |
79 |
(ख) |
आचार का विकास |
80 |
|
ऋग्वेद में आचार |
80 |
|
यजुर्वेद में आचार |
82 |
|
अथर्ववेद में आचार |
84 |
|
ऐतरेय ब्राह्मण में आचार |
86 |
|
तैत्तिरीय ब्राह्मण में आचार |
87 |
|
तृतीय परिच्छेद |
89-112 |
(क) |
शतपथ ब्राह्मण में |
89 |
|
सत्य सत्य का स्वरूप |
89 |
|
सत्य का महत्व |
93 |
|
ऋत का स्वरूप और उसका सत्य अर्थ में प्रयोग |
95 |
|
शतपथ ब्राह्मण में सत्य |
99 |
(ख) |
शतपथ ब्राह्मण में श्रद्धा |
105 |
|
श्रद्धा का स्वरूप |
106 |
|
श्रद्धा का महत्त्व |
108 |
|
शतपथ ब्राह्मण में श्रद्धा |
110 |
|
चतुर्थ परिच्छेद |
113-142 |
(क) |
अहिंसा का स्वरूप |
113 |
|
अहिंसा का महत्व |
115 |
|
शतपथ ब्राह्मण में अहिंसा |
115 |
|
मानसिक अहिंसा |
115 |
|
वाचिक अहिंसा |
118 |
|
कायिक अहिंसा |
118 |
(ख) |
दमन-दान-दया |
119 |
(ग) |
दक्षिणा |
123 |
|
शतथ ब्राह्मण में दक्षिणा |
124 |
(घ) |
तप |
130 |
|
शतपथ ब्राह्मण में तप |
132 |
(ङ) |
ब्रह्मचर्य |
135 |
|
शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मचर्य |
136 |
(च) |
आत्मसंयम और सहिष्णुता |
140 |
|
पंचम परिच्छेद |
143-154 |
(क) |
सुचरित |
143 |
(ख) |
आतिथ्य |
144 |
|
शतपथ ब्राह्मण में आतिथ्य |
146 |
(ग) |
सेवा |
148 |
|
शतपथ ब्राह्मण में सेवा |
149 |
(घ) |
अभिवादन या नमस्कार |
150 |
(ङ) |
उदारता |
151 |
(च) |
सदाशयता |
152 |
|
षष्ठ परिच्छेद |
155-171 |
(क) |
श्रम |
155 |
(ख) |
स्वाध्याय |
157 |
|
शतपथ ब्राह्मण में स्वाध्याय |
158 |
(ग) |
ज्ञान |
163 |
|
शतपथ ब्राह्मण में ज्ञान |
163 |
(घ) |
मैत्री |
165 |
|
शतपथ ब्राह्मण में मैत्री - भाव |
166 |
(ङ) |
स्पर्धा |
169 |
(च) |
समानता |
170 |
(छ) |
स्वामिभक्ति |
171 |
|
सप्तम परिच्छेद |
172-183 |
(क) |
वैवाहिक जीवन सम्बन्धी आचार |
172 |
|
विवाह, स्वरूप एवम् महत्व |
172 |
|
शतपथ ब्राह्मण में विवाह |
173 |
|
पत्नी की प्रतिष्ठा |
174 |
|
सस्त्रीक यज्ञ |
175 |
|
सन्तति |
176 |
(ख) |
काम सम्बन्धी आचार |
179 |
|
काम का स्वरूप एवम् महत्त्व |
179 |
|
अष्टम परिच्छेद |
184-195 |
|
याज्ञिक आचार |
|
|
यज्ञ स्वरूप एवम् महत्त्व |
184 |
1. |
व्रतग्रहण |
186 |
2. |
दीक्षा |
188 |
3. |
दीक्षा - सम्बन्धी आचार |
189 |
(क) |
दीक्षा - काल |
189 |
(ख) |
भोजन |
189 |
(ग) |
केशश्मश्रुवपन एवम् नखकर्तन |
190 |
(घ) |
खान |
190 |
(ङ) |
वस्त्र-धारण |
190 |
(च) |
मांस-भक्षण-निषेध |
191 |
(छ) |
अभ्यंजन |
191 |
(ज) |
आंजन |
191 |
(झ) |
पवित्रीकरण |
191 |
(व) |
कृष्णाजिन-दीक्षा |
192 |
(ट) |
मेखला-धारण |
192 |
(ठ) |
कृष्ण-विषाण-बन्धन |
192 |
(ङ) |
वाक्संयमन |
192 |
(ढ) |
व्रत-भोजन |
193 |
(ण) |
शयन सम्बन्धी आचार |
193 |
4. |
अवभृथ |
193 |
5. |
भोजन सम्बन्धी आचार |
194 |
6. |
यजमान-पत्नी सम्बन्धी निषिद्ध आचार |
194 |
7. |
यजमान सम्बन्धी निषिद्ध आचार |
195 |
|
नवम परिच्छेद |
196-203 |
|
प्रकीर्ण आचार |
196 |
(क) |
पंचमहायज्ञ |
197 |
|
भूतयज्ञ |
198 |
|
मनुष्य यज्ञ |
198 |
|
पितृयज्ञ |
198 |
|
देवयज्ञ |
198 |
|
ब्रह्मयज्ञ |
199 |
(ख) |
संस्कार |
199 |
|
नामकरण संस्कार |
200 |
|
उपनयन संस्कार |
201 |
|
विवाह संस्कार |
203 |
|
दशम परिच्छेद |
204-219 |
|
शतपथ ब्राह्मण में निषिद्ध आचार |
|
(क) |
काम |
205 |
(ख) |
क्रोध |
206 |
(ग) |
लोभ |
208 |
(घ) |
अभिमान |
209 |
(ङ) |
हिंसा |
210 |
(च) |
अनृत |
211 |
(छ) |
ऋण |
211 |
(ज) |
स्तेय |
213 |
(झ) |
द्वेष |
213 |
(ज) |
द्रोह |
215 |
(ट) |
सूत |
215 |
(ठ) |
सुरापान |
217 |
(ड) |
अश्रद्धा |
217 |
(ढ) |
भय |
218 |
|
एकादश परिच्छेद |
220-230 |
|
शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध आचार तत्वों की जैन और बौद्ध आचार तत्वों के साथ तुलना |
|
|
द्वादश परिच्छेद |
231-235 |
|
उपसंहार |
|
|
सन्दर्भ-वन्द-सूची |
237-248 |