प्रकाशकीय
भले ही आज ज्योतिष को भविष्य जानने की मनुष्य की स्वाभाविक उत्सुकता के साथ जोड कर अधिक देखा जाता हो आदि काल से यह क्षेत्र समूचे ब्रह्माण्ड की स्थितियों पृथ्वी से उनके सम्बन्ध और पडने वालों प्रभावों तथा कालगणना आदि के सन्दर्भ में अत्यत गंभीर चिंतन-मनन व शोध से जुडा रहा है । प्रारम्भ में काल गणना में सूर्य को निकलने-डूबने के कारण दिन को मान्यता मिली। इसकी परिधि बढी. तो चन्द्रमा की गतिशीलता के आधार पर माह की अवधारणा सामने आयी और फिर वर्ष' के रूप में विभिन्न मौसमों को हमारे पुरखों ने अपनाया। वर्षा और शरद इत्यादि ऋतुए (जीवेत शरद. शतम्) उसकी प्रेरक बनीं। यो इनका भी मूल आधार एक साल में पूरी होने वाली सूर्य की पृथ्वी-परिक्रमा ही है। भारत में समय-समय पर ऐसे विभिन्न क्षेत्रों में आर्यभट्ट वाराहमिहिर, भास्कर व जयसिह जैसे मनीषियों ने अत्यत महत्वपूर्ण कार्य किये. जिनके चलते अनेक पुस्तकों और उनकी टीकाओं के माध्यम से इस अत्यत प्राचीन विज्ञान में न केवल जानकारियॉ जुड़ती गयी, अपितु उसने विशेष रूप से अरबी चीनी ओर यूनानी संस्कृतियों का भी मार्गदर्शन किया।
यह पुस्तक 'भारतीय ज्योतिष का इतिहास इसी सुदीर्ध, सुविचारित और सर्वांगीण ज्ञान-परम्परा को सक्षिप्त रूप से ही सही, सुव्यवस्थित ढंग से समेटने और उसे शब्द देने का सफल प्रयास है। इसके लेखक डॉ० गोरखप्रसाद इस क्षेत्र के जाने-माने विद्वान थे। उन्होंने इस पुस्तक को 18 अध्यायों में बाटा है और इनके अन्तर्गत प्राचीनतम ज्योतिष से लेकर अब तक की उसकी विकास परम्परा महान भारतीय खगोलविदों के व्यक्तित्व और कृतित्व तथा विशेषताओं को इस ढग से प्रस्तुत किया है कि यह पुस्तक शोधार्थियों से लेकर जिज्ञासु पाठकों तक. सभी के लिए. अत्यत उपयोगी रूप हमारे सामने आती है। इसी के चलते इसकी लोकाप्रियता लगभग छ दशक बाद आज भी अक्षुण्ण है। हमारे हिन्दी समिति प्रभाग का यह पहला प्रकाशन हैष अत:इसके प्रति विशेष अनुराग और चतुर्थ संस्करण के प्रकाशन की असाधारण प्रसन्नता स्वाभाविक है प्रख्यात खगोलविद और ज्योतिषाचार्य डॉ० गोरखप्रसाद को नमन के साथ हम इस पुस्तक का यह पुनर्प्रकाशन हिन्दी समिति प्रभाग की प्रकाशन योजना के अन्तर्गत कर रहे है।
आशा है, भारतीय सस्कृति के अत्यत विकसित क्षेत्र ज्योतिष के सम्बन्ध में अधिकतम एवं महत्वपूर्ण जानकारी के लिए ज्योतिष प्रेमियों एवं अध्येताओं के बीच इसकी उपादेयता आगे बनी रहेगी।
हिन्दी समिति प्रभाग का यह पहला प्रकाशन है, अत: इसके प्रति विशेष अनुराग और चतुर्थ संस्करण के प्रकाशन की असाधारण प्रसन्नता स्वाभाविक है। प्रख्यात खगोलविद और ज्योतिषाचार्य डॉ० गोरखप्रसाद को नमन के साथ हम इस पुस्तक का यह पुनर्प्रकाशन हिन्दी समिति प्रभाग की प्रकाशन योजना के अन्तर्गत कर रहे हैं।
आशा है, भारतीय संस्कृति के अत्यंत विकसित क्षेत्र ज्योतिष के सम्बन्ध में अधिकतम एवं महत्वपूर्ण जानकारी के लिए ज्योतिष प्रेमियों एवं अध्येताओं के बीच इसकी उपादेयता आगे बनी रहेगी।
विषय-सूची
1
प्रारंभिक बातें
2
प्राचीनतम ज्योतिष
10
3
मासों के नये नाम
19
4
वैदिक काल में दिन, नक्षत्र, आदि
29
5
वेदांग-ज्योतिष
37
6
वेद और बेदाग का काल
49
7
महाभारत में ज्योतिष
70
8
आर्यभट
79
9
वराहमिहिर
93
पाश्चात्य ज्योतिष का इतिहास
117
11
सूर्य-सिद्धात
128
12
भारतीय और यवन ज्योतिष
165
13
लाटदेव से भास्कराचार्य तक
173
14
सिद्धात-शिरोमणि और करण-कुतूहल
193
15
भास्कराचार्य के बाद
204
16
जयसिंह और उनकी वेधशालाएँ
217
17
जयसिंह के बाद
235
18
भारतीय पचांग
262
भारतीय ज्योति संबंधी संस्कृत ग्रंथ
273
अनुक्रमणिका
277
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