प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी उपन्यासकार के नाते न केवल गुजराती, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य में समादृत हैं! कई खंडों में प्रकाशित विशाल औपन्यासिक रचना 'कृष्णावतार', 'भगवान परशुराम' ,'लोपामुद्रा' जैसे वैदिक पौराणिक काल का दिग्दर्शन करानेवाले उपन्यासों के कर्म में 'लोमहर्षिणी' उनकी एक और महत्वपूर्ण कथाकृति है!
लोमहर्षिणी राजा दिवोदास के पुत्री और परशुराम की बाल-सखी थीं, जो युवा होने पर उनकी पत्नी बनीं! भृगुकुलश्रेष्ठ परशुराम ने अत्याचारी सहस्त्रार्जुन के विरुद्ध व्यूह-रचना कर जो लम्बा संघर्ष किया, लोमहर्षिणी की भूमिका भारतीय नारी के गौरवपूर्ण इतिहास का एक उज्ज्वलतर पृष्ठ है! साथ ही इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में ऋषि विश्वामित्र और मुनि वसिष्ठ के मतभेदों के कथा भी है! उनके यह मतभेद तृत्सुओं के राजा सुदास के पुरोहित-पद को लेकर तो थे ही, इनके मूल में विश्वामित्र द्वारा आर्य और दस्युओं के भेद का विवेचन तथा वसिष्ठ द्वारा आर्यों के शुद्ध सनातन परम्परा का प्रतिनिधित्व करना भी था! वस्तुत: लोमहर्षिणी में मुंशीजी ने नारी की तेजस्विता तथा तत्कालीन समाज, धर्म, संस्कृति और राजनीति के जटिल अंतसर्बंधों का प्राणवान उद्घाटन किया है!
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