पुस्तक परिचय
भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख समाजशास्त्रियों उनके उपागमों एव प्रवृत्तियों पर हिन्दी भाषा में एक मौलिक रचना है । यह भारतीय समाजशास्त्र के प्रारंभ से लेकर समकालीन समय तक के करीब १०२ वर्षो के इतिहास को नौ अध्यायों में विभाजित करके अपने पाठकों को परंपरा एवं समकालीनता से परिचित कराता है । भारतीय समाजशास्त्र के उदृगम एवं विकास पर यह एक अनोखी रचना है । खासकर हिन्दी भाषा में इस तरह की पुस्तक की लंबे समय से कमी अनुभव की जा रही थी । यह पुस्तक हिन्दी में समाजशास्त्र के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध में लगे महानुभावों एवं संस्थाओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियो के लिए भी इस पुस्तक को एक संदर्भ ग्रंथ की तरह प्रयोग किया जा सकता है । हिन्दी सिनेमा में रूचि रखने वाले पाठकों के लिए भी यह पुस्तक बहुत ज्ञानवर्द्धक रहेगी । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा में भी भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय पर हर वर्ष सवाल पूछे जाने रहें है । ऐसी परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी रहेगी ।
डॉ अमित कुमार शर्मा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेन्टर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल सिस्टम में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर है । इन्होंने भारतीय समाजशास्त्र के अध्ययन एवं अध्यापन में अपनी दक्षता को हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनो भाषाओं में लगातार अभिव्यक्त किया है । समाजशास्त्रीय सिद्धांत, धर्म का समाजशास्त्र, संस्कृति एवं सिनेमा का भारत में विकास, हिन्दी साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन एवं सभ्यतामूलक विमर्श इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र है ।
प्रस्तावना
संप्रदाय से समाज उस खास वर्ग समुदाय एव समूह का बोध होता है जन किसी खास धर्म या आस्था परम्परा मे विश्वास रखता और हैं जिसके अपने खास एवं मान्यताएँ होती हैं।
भारतीय समाज में धर्म संबंध वस्तुत समुदाय से है, व्याक्ति से संविधान ओर भारतीय परम्पराएँ वैयक्तिक विश्वासों तथा व्यक्ति द्वारा ईश्वर खोज को मान्यता प्रदान करते हैं इस के व्यक्तिगत प्रयत्नों को आध्यात्मिकता कहा जाता सामान्यत में धर्म परिकल्पना नैतिक को सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक के रूप में की जाती भारत का समाज भी काफ़ी हद तक धर्म एव परम्परा-केन्द्रित वाचिक समाज हुआ है परंतु भारत का राष्ट्र-राज्य विरासत के कारण इसके नागरिकों को धर्म-निरपेक्ष बनाने हैं धर्म निरपेक्षता का व्यवहार एक अर्थ सभी धार्मिक परम्पराओं से दूरी का भाव रहा तो दूसरी अनेक अर्थ राज्य कार्य-व्यापार मे अधार्मिक बुद्धिवाद या यूरोपीय ज्ञानोदय द्वारा प्रचारित आधुनिक नास्तिकता का प्रसार रहा है। दोनो अवधारणाओं के प्रवक्ता राज्य द्वारा दी वाली शिक्षा को धर्मनिरपेक्ष बनाने पर जोर देते रहे फलस्वरूप भारतीय समाज एव भारतीय राज्य में धर्म के संबंध अग्रेजी राज के समय से ही रहा है।
गुलेरीजी अपने लेख धर्म और समाज लिखते हैं पूर्वी सभ्यता से धर्म की पक्षपाती है रही है और उसने धर्म को समाज में सबसे ऊँचा स्थान दिया है पश्चिमी सभ्यता इस समय चाहे उसकी विरोधी न हो पर उससे उदासीन अवश्य है उगेर कम समाज की उन्नति के लिए उसे अवश्य नहीं समझती उसकी सम्मति में बिना धर्म आश्रय भी नैतिक बल के मनुष्य अपनीसकता है यद्यपि पहले पश्चिम भी भारतवर्ष की तरह धर्म का ऐसा ही अनन्य भक्त था पर मध्यकाल मे कई शताब्दियों तक वही थमे के कारण बडी अशाति मची रही धर्म मद में उन्मत्त होकर समाज ने बडे-बडे विद्धानों और संशोधकों के साथ वह सलूक किया जो लुटेरे मालदार लोगों के साथ करते हैं इसलिए अब इस सभ्यता और उन्नति के युग में पश्चिम निवासियों को यदि धर्म पर वह श्रद्धा नलों है जो उनके पूर्वजों की थी तो वह सकारण है यद्यपि पूर्वापेक्षा अब उनके धर्म का भी बहुत कुछ संस्कार हो गया है और शिक्षा की उन्नति के साथरनाथ उनके धर्म में भी सहिष्णुता, स्वतत्रता और उदारता की मात्रा बढ गइ हे, तथापि धर्मवाद के परिणामस्वरूप जो कडवे फल उनको चखने पडे हैं, अब उनके धर्म की सीमा नियत कर देने के लिए बाध्य कर दिया तदनुसार उन्होने धर्म की अबाध सत्ता से अपने समाज को मुक्त कर दिया अब वहाँ समाज की शासन सत्ता में धर्म कुछ विक्षेप नही डाल सकता व्यक्ति स्वातंत्र्य और सामाजिक प्रबध में भी कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सकता और जिस तरह बहुत सी बातें व्यक्तिगत होती हैं उसी तरह धर्म भी व्यक्तिगत होता है, जिसका जी चाहे किसी भी धर्म को माने, न चाहे न माने मानने से कोई विशेष स्वत्व पैदा नहीं होते, न मानने से कोई हानि नहीं होती इसके विपरीत आज भी भारत में हम जन्म से लेकर मृन्युपर्यन्त धार्मिक बंधन से मुक्त नहीं हो सकते हमको केवल अपने पूजापाठ या संस्कारों में ही धर्म की आवश्यकता नहीं पडती बल्कि हमारा हर काम, चाहे वो सामाजिक हो या व्यक्तिगत, धर्म के बंधंन से जकड़ा हुआ है यहाँ तक कि हमारा खाना-पीना, जाना-आना, सोना-जागना ओर देना-लेना इत्यादि सभी बातों पर श्रम की छाप लगी। हुई हे हमारे प्राचीन ग्रंथो में कहीं पर भी धर्म शब्द मन, विश्वास या संप्रदाय के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, वरन् सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो ही अर्थों में इसका प्रयोग पाया जाता है प्रत्येक पदार्थ मे उसकी जो सत्ता है, जिसको स्वभाव भी कहते हैं, वही उसका धर्म हे धर्म का संबंध मनुष्य की उत्कृष्ट आकांक्षाओ से हे इसे नेतिकता का प्रसाद माना जाता है इसमें व्यक्तिगत आंतरिक शांति एवं सामाजिक व्यवस्था के स्रोत निहित होते हें मानव जाति प्राय अनिश्चितता की स्थिति मे रहती है जीवन की परिस्थितयों पर नियत्रण करने की मानवीय क्षमता सीमित हे अतएव मोहक अनुभवो से इतर मानवीय वास्तविकता से संबंध बनाने की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति धर्म के द्वारा होती है
यद्यपि धर्म और अंग्रेज़ी शब्द रिलीजन का एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग होता है लेकिन इन दोनों के अर्थ ठीक एक जैसे नहीं हैं। धर्म ब्रह्माण्डके व्यवस्थागत नियमों की व्याख्या करता है जबकि रिलीजन विश्वासों एव अनुष्ठानों को निरूपित करता है धर्म मनुष्य के कर्मों से भी जुड़ा है और यह सामाजिक जीवन को नियमित एव नियंत्रित करता हे इस प्रकार धर्म का अर्थ रिलीजन के क्षेत्र से ज्यादा व्यापक है।
ईमाइल दुर्खीम के अनुसार धर्म पवित्रता से जुडे एकत्रित मत व आचरण का समुच्चय हे, जिसके अनुरूप निषोधित व्यवहारों की व्याख्या होती है एवं उससे जुड़े सभी लोगों का एक नैतिक समुदाय गठित होता है, जिसे चर्च कहा जाता डे धर्म की प्रस्तावना में पवित्र व अपवित्र तत्त्वों के बीच विभेद होता है।
अनेक समाजशास्त्रियों ने धर्म के अन्य पक्षों पर बल दिया है उनके अनुसार यह ऐसी व्यवस्था है जिससे इसे मानने वाले जीवन, मृत्यु, बीमारी सफलता-असफलता, सुखदुख आदि के अर्थों से संबंधित समस्या का निदान ढूँढते हैं इस प्रकार यह कुल मिलाकर मानव जीवन को दिशा व अर्थ देता है। सामान्यत श्रम के तीन पक्ष होते हैं-धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकाड, विश्वास एव संगठन अनुष्ठान धार्मिक व्यवहारों से सबद्ध है, जबकि विश्वास का संबंध आस्था के स्रोतों और प्रतिमानों से है वह क्रियाविधि जिसके द्वारा धर्म सदस्यों के व्यवहार, अपेक्षाओं, प्रस्थिति एव भूमिका का प्रबंधन करता है, वह धर्म का संगठनात्मक पक्ष है।
भारत एक बहुधर्मी देश हे भारत में सभी प्रमुख धार्मिक समूह पाए जाने हैं परम्परागत रूप से सभी समूह एक दूसरे के विश्वासों एव व्यवहारों का सम्मान करते हुए साथ-साथ रहते आए हैं ।
धर्म, संप्रदाय एवं सत्संग
धर्म का जिस व्यापक अर्थ में हमारी पूरी परम्परा मे प्रयोग हुआ है, उसको ध्यान मे न रखते हुए प्राय लोग इसे अत्यत सीमित अर्थ मे संकुचित कर देते हें इसलिए इस अवधारणा की गहरी भूमिका में उतरना हमारे लिए इस समय बहुत जरूरी हे एक विशद दृष्टि ही समकालीन विखण्डन और अविश्वास के अन्धकार को भेद सकती है।
धर्म के साथ पति अर्थ मुख। रूप से जुड़े हैं, एक तो यह कि जो जीवन को धारण करे, वह धर्म हे जो सम्पूर्ण जीवन को सम्भाल कर रखे वह धर्म है इसलिए महाभारत मे इसका कई बार उल्लेख हुआ है कि जीवन को पूरी तरह मन से स्वीकारते हुए, उसकी सार्थकता पहचानते हुए ही धर्म को पाया जाता है।
धर्म की अवधारणा का दूसरा पहलू है, उसका सहज होना धर्म आरोपित नहीं होता, वह अपने भीतर रहता हे, अपने मे डूबकर वह देखा जाता है इसलिए विवेक का मनुष्य जीवन मे भूभिका रहती है मनुष्य अपने मैं डूबता हे पो सोचता है मेरे भीतर के आदमी को क्या अच्छा लगता है, मेरे भीतर का -आदमी दूसरे को केसे अच्छा लगे, केरने वह प्रीतिदायक हो, तब वह सही निर्णय ले सकता है जब निजी आत्मा के प्रिय होने की बात की जाती है तो इसका अभिप्राय है, आत्मा में कुछ ऐसा भी है जो निज नहीं है वह निज जितना ही सब दायरों, सीमाओं से मुक्त होता हे, उतना ही विस्तृत होता व्यापक होता है, उसमें सब आते है, वह किसी एक में नहीं समाता इसीलिए इस धर्म की पहचान समरसता से होती है।
धर्म की अवधारणा का तीसरा पक्ष उसकी गतिशीलता से जुड़ा हुआ है । धर्म ऋतु और सत्य का एकीकरण है। वेदों में ऋत और सत्य की अवधारणाएँ एक दूसरे की पूरक और समन्वित रूप मे वर्णित मिलती हैं। ऋत का अर्थ है गीते, सत्य का अर्थ है, सत्ता बने रहना। गति गति ऐसी न हो जो स्वरूप की पहचान नष्ट कर दे, बने रहने का अर्थ यह न हो कि टिक जाए, ठहर जाए, अपने लिए ही रह जाए। दोनों को साधे रहना और ऐसे साधे रहना कि कोई आयास न मालूम हो सत्य और ऋत का यही समन्वय धर्म है। मध्ययुगीन पश्चिमी चिन्तन में वही प्रथम सिद्धान्त, है, तसव्वुक में वही बेखुदी की खुदी है । भक्त कवियों की भाषा में वही महाभाव के लिए चिरन्तन उदेूलन है। विराट् से एकाकार होकर लघु के लिए विफलताओं में अवतरण है।राधा का कृष्ण के साथ तन्मय होना एक-दूसरे के लिए बेचेनी है। हर बेचैनी तन्मयता लाती है, हर तन्मयता बेचैनी ।यही जीवन का न चुकने वाला अव्यय रस है। इन तीनों पक्षों का समन्वित रूप ही धर्म है यह धर्म मानव मात्र का है, ऐसे धर्म से निरपेक्ष होने की बात सोची भी नहीं जा सकती इस धर्म की प्रतीति अलग-अलग रूपों में अलग-अलग परिस्थितियों में होती है ये सभी धर्म एक हे क्योंकि सभी सामजस्य स्थापित करने के अलग-अलग रिश्तों के संदर्भ में प्रयत्न हें जननी ओर जन्मभूमि, पिता ओर आकाश, पुत्र ओर वृक्ष, पुत्री और अमान की चिडिया, इन सबके प्रति जो कर्तव्य भाव जागते हे, वे एक-दूसरे के पोषक होते हें धर्म की माँग है कि लोग इनकी अलग पहचान में खो न जाएँ, सब उस एक को पहचानें
संप्रदाय धर्माचरण का चौखटा है जो समाष्टि रूप में दिया गया मिले, जो अपनी परिस्थितियों के साध्य सामजस्य बैठाने वाली जीवन पद्धति के रूप में मिले, उसे संप्रदाय कहा जाता हे मनु ने कहा हे कि जिस प्रकार, जिस पद्धति से पिता-पितामह कुशलतापूर्वक जिए हैं, उसी में मगल निहित है यहॉ महत्त्व पद्धति से अधिक प्रकार का है । हमें दिया हुआ मिलता है, इसका अर्थ यह नहीं कि यह रूढ हे जैसे कृषि के लिए खेत मिलता हे, खेत में बोने के लिए बीज मिलते हैं, हल-बैल मिलते हैं, किस ऋतु में कैसे बोना हे, कब क्या करना हे, यह पद्धति भिलती है और साथ ही साथ यह भाव मिलता हे कि फसल में सबका हिस्सा है, उसके बढने में, पकने मे, उसके उपभोग में सबका हिस्सा है, चिरई-चुरूग, पेड-पालो सबका हिस्सा हे, बढई-लुहार सबका हिस्सा है, वैसे ही सनातन हिन्दू धर्म में संप्रदाय मिलते हैं । हम संप्रदाय के उत्तराधिकारी हैं, पर संप्रदाय का उत्तराधिकार सौंपने वाले भी हैं जेसे शेव, वैष्णव ओर शाका संप्रदाय हे, वेसे ही बोद्ध, लेन, एव सिक्स संप्रदाय हैं वैसे ही ईसाई, यहूदी, मुस्लिम (वहाँ भी शिया, सुन्नी) जैसे संप्रदाय हैं हम जैसे दूसरों की खेती में दखल देना उचित नहीं समझते, वैसे ही दूसरे संप्रदाय में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझते हम यह भी नहीं सोचते कि अपने संप्रदाय में इनको मिला ले, क्योंकि धर्म या अध्यात्म में मिलाना होता नहीं, एकदूसरे के साथ मिलना होता हे, एकदूसरे से आदान-प्रदान होता है, अलग रहते हुए भी एकदूसरे को समझना होता हे जिस किसी को जो दिया गया है, वह उसे केसे ले रहा हे और केसे निबाह रहा है? साधना की पद्धति एक हो, यह जरूरी नहीं हे यह समझदारी साथ रहने से और संवाद स्थापित करने से आती हे हिन्दुस्तान मे यह प्रयत्न निरन्तर चलता रहा है, इसी को सत्संग कहा जाता हे । इसी को उत्सव ओर मेला कहा जाता है यही छोटे दायरों से बाहर निकलने का उपाय रहा है फकीर महात्मा के पास जाए तो कोइ बडा या छोटा बनकर नहीं जाता, बल्कि नि शेष होकर जाता है लोग तीर्थ के लिए, जियारत के लिए जाते हैं तो निस्वार्थ होकर जाते हैं वहॉ लोग केवल स्थावर या जगम तीर्थ से नहीं मिलते, ऐसे असख्य हृदयों से भी मिलते हे, जो उसी की तरह निशेष होकर विपुल के प्रवाह में नहा रहे हें यही मेला है जाने कब के बिछुडे एकदूसरे से मिलते हैं ओर एक-दूसरे की अपेक्षा से भीग कर अविलग होकर जुदा होते हे संवाद से अधिक संवाद के हृदय में उतरने का मजा होता है ऐसे संवादों की स्मृति राह से भटकने नहीं देती ऐसी स्मृति को संजोकर रखने में संप्रदायों एव सांप्रदायिक सत्संगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
संप्रदाय दीवार नहीं हे, संप्रदाय दीपस्तम्भ है, वह किसी दूसरे दीपस्तम्भ का प्रकाश छेकता नहीं, न उस प्रकाश का विरोध करता है, वह आकांक्षा करता है कि वह अपने आस-पास को ठीक तरह से प्रकाशित करे, इस तरह कि वहॉ का आदमी महसूस करे कि दूसरे का दीपस्तम्भ उसके लिए कितना महत्वपूर्ण है । संप्रदाय धर्म का आवश्यक अभिलक्षण है, और यह अभिलक्षण माँग करता है कि धर्म कभी दृष्टि से ओझल न हो । बराबर सामने रहे । हमें अपना संप्रदाय प्रिय लगता है, अपना घर अच्छा लगता है, बार- बार यहीं लौटने की इच्छा होती है तो दूसरे को भी उसका घर अच्छा लगता है, हम दूसरे से जुड़े हैं इसलिए कि हम दोनों को घरों से लगाव है । घर से दोनों का सरोकार है । बेघर, जड़हीन लोग जैसा भी सोचें पर घर वाला किसी घर की बर्वादी की बात नहीं सोचेगा । इसीलिए भारत में विभिन्न संप्रदाय धर्म की व्यापकता के लिए धर्म के परिचालन के लिए, धर्म की प्रतीति के लिए रहे और मनुष्य के भाव की आस्तिकता को प्रमाणित करने के लिए कायम रहे हैं ।
भारतीय मूल के पंथ एवं धार्मिक समूह
हिन्दू धर्म में अनेक संप्रदाय उल्लेखनीय हैं जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त, लिंगायत, कबीरपंथी, रैदासपंथी । इन धार्मिक समूहों और विस्तृत हिन्दू समाज के बीच परस्पर संबंध होता है । पंजाब में हिन्दुओं एवं सिक्खों के बीच विवाह के उदाहरण मिलते रहे हैं । बौद्ध व हिन्दुओं में भी वैवाहिक संबंध होते हैं । हिन्दू बनियों व जैनों के बीच गहरे सामाजिक व सांस्कृतिक संबंध हैं ।
बौद्ध व जैन जैसे प्रारंभिक संप्रदायों के प्रभाव में पुरोहितों के प्रभुत्व और जातीय प्रस्थिति के महत्त्व पर अंकुश लगा । बौद्ध धर्म ने सभी जीवों के प्रति करुणा कीं भावना को धार्मिक महत्त्व प्रदान किया । जैन धर्म ने अहिंसा के सिद्धांत को स्थापित किया । भगवान बुद्ध ने शास्त्रों एवं पुरोहितों की सीमा स्पष्ट करके अपना दीपक खुद बनने की शिक्षा दी, जिससे समाज में विवेक एवं प्रज्ञा का महत्त्व स्थापित हुआ ।
तत्पश्चात दक्षिण भारत में भक्ति संप्रदाय का छठी और ग्यारहवीं शताब्दी के बीच उदय हुआ । उत्तर भारत में चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच इस भक्ति संप्रदाय का प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन हुआ । इसके प्रभाव से उदारवाद प्रकाश में आया, जिससे लोगों को आनुष्ठानिक व सामाजिक प्रतिबंधों से छूट मिली । साथ ही ईश्वर के समक्ष समानता का सिद्धांत प्रचलित हुआ । भारतीय मूल के अन्य पंथों में कबीर पंथ, रैदास पंथ, नानक पंथ, लिंगायत पंथ आदि भक्ति संप्रदाय से जुड़े हैं ।
अनुक्रमणिका |
||
प्रस्तावना |
v |
|
धर्म, संप्रदाय एवं सत्संग |
vii |
|
भारतीय मूल के पंथ एवं धार्मिक समूह |
x |
|
1 |
इंडोलॉजिकल संप्रदाय अथवा भारतीय विद्या उपागम संप्रदाय |
1 |
भारतीय विद्या उपागम का अर्थ |
1 |
|
किताबी पाठ (टेक्सू्ट) की अवधारणा एवं भारत में इसका विकास |
3 |
|
समकालीन भारत में किताबी पाठ का महत्त्व |
10 |
|
भारतीय समाजशास्त्र में किताबी पाठों पर आधारित (संस्कृतिशास्त्रीय) उपागम |
16 |
|
जी .एस मुये (गोपाल सदाशिव घुर्ये) का उपागम |
18 |
|
राधाकमल मुखर्जी (आर .के. मुखर्जी) का उपागम |
22 |
|
सामाजिक मूल्यों की प्रकृति |
24 |
|
इरावती कर्वे |
26 |
|
किताबी पाठ एवं जमीनी तथ्यों के संश्लेषण के युग का आरंभ |
26 |
|
इरावती कर्के का उपागम |
28 |
|
जी. एस. घुर्ये एवं इरावती कर्वे |
30 |
|
इरावती कर्वे एवं आई पी. देसाई |
31 |
|
इरावती कर्वे(हिन्दू नातेदारी व्यवस्था) |
32 |
|
भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय नातेदारी व्यवस्थाएँ |
32 |
|
समकालीन भारत में नातेदारी |
33 |
|
2 |
भारतीय समाजशास्त्र में संरचनात्मक प्रकार्यवादी संप्रदाय |
|
भारतीय समाजशास्त्र में संरचनात्मक उपागम |
34 |
|
एम .एन श्रीनिवास के उपागम का महत्त्व |
35 |
|
श्रीनिवास के उपागम की प्रमुख विशेषता |
38 |
|
संरचनात्मक प्रकार्यवादी उपागम में संशोधन के प्रयास |
40 |
|
भारतीय समाजशास्त्र में जाति एवं ग्रमीण समुदाय के अध्ययन का महत्त्व |
42 |
|
भारत में सामाजिक परिवर्तन क्त विश्लेषण |
48 |
|
भारत में समाजशास्त्र एवं सामाजिक मानवशास्त्र |
49 |
|
एस. सी. दूबे (श्यामाचरण दूबे) |
54 |
|
ए .एम शाह |
58 |
|
संयुक्त घराना की संरचनात्मक विशेषताएँ |
58 |
|
भारत में संयुक्त घराना की प्रकार्यात्मक विशेषताएँ |
59 |
|
संयुक्त घराना के प्रकार्य |
60 |
|
संयुक्त घराना के प्रकार्य |
61 |
|
संयुक्त परिवार में परिवर्तन |
62 |
|
संरचनात्मक परिवर्तन |
62 |
|
प्रकार्यात्मक परिवर्तन |
63 |
|
3 |
मार्क्सवाद से प्रेरित एवं प्रभावित उपागम संप्रदाय |
68 |
भारतीय समाजशास्त्र में ऐतिहासिक एवं मार्क्सवादी उपागम |
68 |
|
डी .डी कोसाम्बी द्वंद्वात्मक भौतिकवादी उपागम |
70 |
|
एं आर. देसाई |
74 |
|
वर्ग व्यवस्था |
79 |
|
ग्रामीण भारत में वर्ग |
80 |
|
नगरीय भारत में वर्ग |
82 |
|
जाति एवं वर्ग |
84 |
|
डी .पी. मुखर्जी का उपागम |
84 |
|
4 |
लुई डुमों का संरचनावादी संप्रदाय |
87 |
लुई डुमों के समाजशास्त्रीय अध्ययनों का स्वरूप |
87 |
|
लेवी स्ट्रॉस एवं लुई डुमों |
89 |
|
लेवी स्ट्रॉस के संरचनात्मक उपागम का तुलनात्मक महत्त्व |
90 |
|
लेवी स्ट्रॉस के संरचनावाद की मूल विशेषता |
93 |
|
संरचनात्मक उपागम के विकास में लुई डुमों का योगदान |
98 |
|
5 |
सभ्यतामूलक सम्प्रदाय |
104 |
सभ्यतामूलक उपागम का अर्थ |
104 |
|
सभ्यता की आधुनिक अवधारणा |
104 |
|
सभ्यता की भारतीय अवधारणा |
105 |
|
महात्मा गाँधी का सभ्यता विमर्श |
108 |
|
सभ्यता का दर्शन |
108 |
|
राष्ट्र की अवधारणा |
115 |
|
हिन्दू-मुस्लिम संबंक |
116 |
|
अंग्रेज़ी राज में भरतीय वकील जज एवं आधुनिक न्यायालय |
117 |
|
अत्रकी तज और ऐलोपैथिक डॉक्टर |
119 |
|
सनातन सभ्यता क्व नया शास्त्र |
121 |
|
सनातनी सभ्यता की अवधारणा |
121 |
|
सत्याग्रह - आत्मबल |
123 |
|
बुनियादी शिक्षा |
126 |
|
यूरोपीय आधुनिकता एवं समकालीन भारतीय समाज |
128 |
|
एन. के. बोस का सभ्यतामूलक उपागम |
137 |
|
सुरजीत सिन्हा के विचार |
140 |
|
6 |
वंचित समूहों के दृष्टिकोण पर आधारित संप्रदाय |
142 |
वंचित समूहों के दृष्टिकोण का भारतीय समाज-विज्ञान में विकास |
142 |
|
वंचित समूहों के दृष्टिकोण के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया |
143 |
|
वंचित समूहों के प्रमुख सिद्धांतकार के रूप में डॉ. अम्बेडकर की स्वीकार्यता के समाजशास्त्रीय कारण |
145 |
|
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर और महात्मा गाँधी |
152 |
|
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, बौद्ध धर्म एव विश्व ग्राम |
156 |
|
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का बौद्ध धर्म सबंधी ट्टष्टिकोण |
157 |
|
भारतीय मूल के पथ एवं |
157 |
|
धार्मिक समूहों में बौद्ध धर्म का महत्त्व वैदिक धारा और श्रमण धारा |
158 |
|
बौद्ध धर्म |
159 |
|
बौद्ध धर्म तथा हिन्दू धर्म का परस्पर सम्बन्ध |
161 |
|
बोद्ध धर्म के विकास में डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का सैद्धांतिक योगदान |
165 |
|
7 |
भारतीय समाजशास्त्र की समकालीन प्रवृत्तियाँ |
169 |
भारतीय समाजशास्त्र की समकात्नीन प्रवृत्ति |
169 |
|
भारतीय समाजशास्त्र की प्रमुख धाराओं का समकालीन मूल्यांकन |
170 |
|
भारतीय समाज और यूरोपीय आधुनिकता का समकालीन मूल्यांकन |
175 |
|
भारतीय परम्परा एवं यूरोपीय आधुनिकता के बारे में कुमारस्वामी संप्रदाय की समकालीन दृष्टि |
177 |
|
भारतीय परम्परा एव पश्चिमी आधुनिकता |
180 |
|
भारतीय परम्परा, सांसारिक युक्ति एवं सनातन दृष्टि |
180 |
|
सांसारिक युक्ति एवं अमेरिकी व्यवहारिकता |
187 |
|
8 |
साहित्य एवं कला का समकालीन भारतीय समाजशास्त्र |
190 |
रामचन्द्र शुक्ल का समाजशास्त्रीय विमर्श |
190 |
|
भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के अन्य समकालीन समाजशारत्रीय विमर्श |
210 |
|
9 |
भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र |
222 |
भारतीय फिल्मों की पारिभाषिक विशेषता एवं आधारभूत श्रेणियाँ |
224 |
|
भारतीय सिनेमा एवं मीडिया समीक्षा |
228 |
|
संदर्भ ग्रंथों की सूची |
247 |
|
अनुक्रमणिका |
263 |
पुस्तक परिचय
भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख समाजशास्त्रियों उनके उपागमों एव प्रवृत्तियों पर हिन्दी भाषा में एक मौलिक रचना है । यह भारतीय समाजशास्त्र के प्रारंभ से लेकर समकालीन समय तक के करीब १०२ वर्षो के इतिहास को नौ अध्यायों में विभाजित करके अपने पाठकों को परंपरा एवं समकालीनता से परिचित कराता है । भारतीय समाजशास्त्र के उदृगम एवं विकास पर यह एक अनोखी रचना है । खासकर हिन्दी भाषा में इस तरह की पुस्तक की लंबे समय से कमी अनुभव की जा रही थी । यह पुस्तक हिन्दी में समाजशास्त्र के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध में लगे महानुभावों एवं संस्थाओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियो के लिए भी इस पुस्तक को एक संदर्भ ग्रंथ की तरह प्रयोग किया जा सकता है । हिन्दी सिनेमा में रूचि रखने वाले पाठकों के लिए भी यह पुस्तक बहुत ज्ञानवर्द्धक रहेगी । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा में भी भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय पर हर वर्ष सवाल पूछे जाने रहें है । ऐसी परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी रहेगी ।
डॉ अमित कुमार शर्मा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेन्टर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल सिस्टम में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर है । इन्होंने भारतीय समाजशास्त्र के अध्ययन एवं अध्यापन में अपनी दक्षता को हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनो भाषाओं में लगातार अभिव्यक्त किया है । समाजशास्त्रीय सिद्धांत, धर्म का समाजशास्त्र, संस्कृति एवं सिनेमा का भारत में विकास, हिन्दी साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन एवं सभ्यतामूलक विमर्श इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र है ।
प्रस्तावना
संप्रदाय से समाज उस खास वर्ग समुदाय एव समूह का बोध होता है जन किसी खास धर्म या आस्था परम्परा मे विश्वास रखता और हैं जिसके अपने खास एवं मान्यताएँ होती हैं।
भारतीय समाज में धर्म संबंध वस्तुत समुदाय से है, व्याक्ति से संविधान ओर भारतीय परम्पराएँ वैयक्तिक विश्वासों तथा व्यक्ति द्वारा ईश्वर खोज को मान्यता प्रदान करते हैं इस के व्यक्तिगत प्रयत्नों को आध्यात्मिकता कहा जाता सामान्यत में धर्म परिकल्पना नैतिक को सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक के रूप में की जाती भारत का समाज भी काफ़ी हद तक धर्म एव परम्परा-केन्द्रित वाचिक समाज हुआ है परंतु भारत का राष्ट्र-राज्य विरासत के कारण इसके नागरिकों को धर्म-निरपेक्ष बनाने हैं धर्म निरपेक्षता का व्यवहार एक अर्थ सभी धार्मिक परम्पराओं से दूरी का भाव रहा तो दूसरी अनेक अर्थ राज्य कार्य-व्यापार मे अधार्मिक बुद्धिवाद या यूरोपीय ज्ञानोदय द्वारा प्रचारित आधुनिक नास्तिकता का प्रसार रहा है। दोनो अवधारणाओं के प्रवक्ता राज्य द्वारा दी वाली शिक्षा को धर्मनिरपेक्ष बनाने पर जोर देते रहे फलस्वरूप भारतीय समाज एव भारतीय राज्य में धर्म के संबंध अग्रेजी राज के समय से ही रहा है।
गुलेरीजी अपने लेख धर्म और समाज लिखते हैं पूर्वी सभ्यता से धर्म की पक्षपाती है रही है और उसने धर्म को समाज में सबसे ऊँचा स्थान दिया है पश्चिमी सभ्यता इस समय चाहे उसकी विरोधी न हो पर उससे उदासीन अवश्य है उगेर कम समाज की उन्नति के लिए उसे अवश्य नहीं समझती उसकी सम्मति में बिना धर्म आश्रय भी नैतिक बल के मनुष्य अपनीसकता है यद्यपि पहले पश्चिम भी भारतवर्ष की तरह धर्म का ऐसा ही अनन्य भक्त था पर मध्यकाल मे कई शताब्दियों तक वही थमे के कारण बडी अशाति मची रही धर्म मद में उन्मत्त होकर समाज ने बडे-बडे विद्धानों और संशोधकों के साथ वह सलूक किया जो लुटेरे मालदार लोगों के साथ करते हैं इसलिए अब इस सभ्यता और उन्नति के युग में पश्चिम निवासियों को यदि धर्म पर वह श्रद्धा नलों है जो उनके पूर्वजों की थी तो वह सकारण है यद्यपि पूर्वापेक्षा अब उनके धर्म का भी बहुत कुछ संस्कार हो गया है और शिक्षा की उन्नति के साथरनाथ उनके धर्म में भी सहिष्णुता, स्वतत्रता और उदारता की मात्रा बढ गइ हे, तथापि धर्मवाद के परिणामस्वरूप जो कडवे फल उनको चखने पडे हैं, अब उनके धर्म की सीमा नियत कर देने के लिए बाध्य कर दिया तदनुसार उन्होने धर्म की अबाध सत्ता से अपने समाज को मुक्त कर दिया अब वहाँ समाज की शासन सत्ता में धर्म कुछ विक्षेप नही डाल सकता व्यक्ति स्वातंत्र्य और सामाजिक प्रबध में भी कुछ हस्तक्षेप नहीं कर सकता और जिस तरह बहुत सी बातें व्यक्तिगत होती हैं उसी तरह धर्म भी व्यक्तिगत होता है, जिसका जी चाहे किसी भी धर्म को माने, न चाहे न माने मानने से कोई विशेष स्वत्व पैदा नहीं होते, न मानने से कोई हानि नहीं होती इसके विपरीत आज भी भारत में हम जन्म से लेकर मृन्युपर्यन्त धार्मिक बंधन से मुक्त नहीं हो सकते हमको केवल अपने पूजापाठ या संस्कारों में ही धर्म की आवश्यकता नहीं पडती बल्कि हमारा हर काम, चाहे वो सामाजिक हो या व्यक्तिगत, धर्म के बंधंन से जकड़ा हुआ है यहाँ तक कि हमारा खाना-पीना, जाना-आना, सोना-जागना ओर देना-लेना इत्यादि सभी बातों पर श्रम की छाप लगी। हुई हे हमारे प्राचीन ग्रंथो में कहीं पर भी धर्म शब्द मन, विश्वास या संप्रदाय के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, वरन् सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो ही अर्थों में इसका प्रयोग पाया जाता है प्रत्येक पदार्थ मे उसकी जो सत्ता है, जिसको स्वभाव भी कहते हैं, वही उसका धर्म हे धर्म का संबंध मनुष्य की उत्कृष्ट आकांक्षाओ से हे इसे नेतिकता का प्रसाद माना जाता है इसमें व्यक्तिगत आंतरिक शांति एवं सामाजिक व्यवस्था के स्रोत निहित होते हें मानव जाति प्राय अनिश्चितता की स्थिति मे रहती है जीवन की परिस्थितयों पर नियत्रण करने की मानवीय क्षमता सीमित हे अतएव मोहक अनुभवो से इतर मानवीय वास्तविकता से संबंध बनाने की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति धर्म के द्वारा होती है
यद्यपि धर्म और अंग्रेज़ी शब्द रिलीजन का एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग होता है लेकिन इन दोनों के अर्थ ठीक एक जैसे नहीं हैं। धर्म ब्रह्माण्डके व्यवस्थागत नियमों की व्याख्या करता है जबकि रिलीजन विश्वासों एव अनुष्ठानों को निरूपित करता है धर्म मनुष्य के कर्मों से भी जुड़ा है और यह सामाजिक जीवन को नियमित एव नियंत्रित करता हे इस प्रकार धर्म का अर्थ रिलीजन के क्षेत्र से ज्यादा व्यापक है।
ईमाइल दुर्खीम के अनुसार धर्म पवित्रता से जुडे एकत्रित मत व आचरण का समुच्चय हे, जिसके अनुरूप निषोधित व्यवहारों की व्याख्या होती है एवं उससे जुड़े सभी लोगों का एक नैतिक समुदाय गठित होता है, जिसे चर्च कहा जाता डे धर्म की प्रस्तावना में पवित्र व अपवित्र तत्त्वों के बीच विभेद होता है।
अनेक समाजशास्त्रियों ने धर्म के अन्य पक्षों पर बल दिया है उनके अनुसार यह ऐसी व्यवस्था है जिससे इसे मानने वाले जीवन, मृत्यु, बीमारी सफलता-असफलता, सुखदुख आदि के अर्थों से संबंधित समस्या का निदान ढूँढते हैं इस प्रकार यह कुल मिलाकर मानव जीवन को दिशा व अर्थ देता है। सामान्यत श्रम के तीन पक्ष होते हैं-धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकाड, विश्वास एव संगठन अनुष्ठान धार्मिक व्यवहारों से सबद्ध है, जबकि विश्वास का संबंध आस्था के स्रोतों और प्रतिमानों से है वह क्रियाविधि जिसके द्वारा धर्म सदस्यों के व्यवहार, अपेक्षाओं, प्रस्थिति एव भूमिका का प्रबंधन करता है, वह धर्म का संगठनात्मक पक्ष है।
भारत एक बहुधर्मी देश हे भारत में सभी प्रमुख धार्मिक समूह पाए जाने हैं परम्परागत रूप से सभी समूह एक दूसरे के विश्वासों एव व्यवहारों का सम्मान करते हुए साथ-साथ रहते आए हैं ।
धर्म, संप्रदाय एवं सत्संग
धर्म का जिस व्यापक अर्थ में हमारी पूरी परम्परा मे प्रयोग हुआ है, उसको ध्यान मे न रखते हुए प्राय लोग इसे अत्यत सीमित अर्थ मे संकुचित कर देते हें इसलिए इस अवधारणा की गहरी भूमिका में उतरना हमारे लिए इस समय बहुत जरूरी हे एक विशद दृष्टि ही समकालीन विखण्डन और अविश्वास के अन्धकार को भेद सकती है।
धर्म के साथ पति अर्थ मुख। रूप से जुड़े हैं, एक तो यह कि जो जीवन को धारण करे, वह धर्म हे जो सम्पूर्ण जीवन को सम्भाल कर रखे वह धर्म है इसलिए महाभारत मे इसका कई बार उल्लेख हुआ है कि जीवन को पूरी तरह मन से स्वीकारते हुए, उसकी सार्थकता पहचानते हुए ही धर्म को पाया जाता है।
धर्म की अवधारणा का दूसरा पहलू है, उसका सहज होना धर्म आरोपित नहीं होता, वह अपने भीतर रहता हे, अपने मे डूबकर वह देखा जाता है इसलिए विवेक का मनुष्य जीवन मे भूभिका रहती है मनुष्य अपने मैं डूबता हे पो सोचता है मेरे भीतर के आदमी को क्या अच्छा लगता है, मेरे भीतर का -आदमी दूसरे को केसे अच्छा लगे, केरने वह प्रीतिदायक हो, तब वह सही निर्णय ले सकता है जब निजी आत्मा के प्रिय होने की बात की जाती है तो इसका अभिप्राय है, आत्मा में कुछ ऐसा भी है जो निज नहीं है वह निज जितना ही सब दायरों, सीमाओं से मुक्त होता हे, उतना ही विस्तृत होता व्यापक होता है, उसमें सब आते है, वह किसी एक में नहीं समाता इसीलिए इस धर्म की पहचान समरसता से होती है।
धर्म की अवधारणा का तीसरा पक्ष उसकी गतिशीलता से जुड़ा हुआ है । धर्म ऋतु और सत्य का एकीकरण है। वेदों में ऋत और सत्य की अवधारणाएँ एक दूसरे की पूरक और समन्वित रूप मे वर्णित मिलती हैं। ऋत का अर्थ है गीते, सत्य का अर्थ है, सत्ता बने रहना। गति गति ऐसी न हो जो स्वरूप की पहचान नष्ट कर दे, बने रहने का अर्थ यह न हो कि टिक जाए, ठहर जाए, अपने लिए ही रह जाए। दोनों को साधे रहना और ऐसे साधे रहना कि कोई आयास न मालूम हो सत्य और ऋत का यही समन्वय धर्म है। मध्ययुगीन पश्चिमी चिन्तन में वही प्रथम सिद्धान्त, है, तसव्वुक में वही बेखुदी की खुदी है । भक्त कवियों की भाषा में वही महाभाव के लिए चिरन्तन उदेूलन है। विराट् से एकाकार होकर लघु के लिए विफलताओं में अवतरण है।राधा का कृष्ण के साथ तन्मय होना एक-दूसरे के लिए बेचेनी है। हर बेचैनी तन्मयता लाती है, हर तन्मयता बेचैनी ।यही जीवन का न चुकने वाला अव्यय रस है। इन तीनों पक्षों का समन्वित रूप ही धर्म है यह धर्म मानव मात्र का है, ऐसे धर्म से निरपेक्ष होने की बात सोची भी नहीं जा सकती इस धर्म की प्रतीति अलग-अलग रूपों में अलग-अलग परिस्थितियों में होती है ये सभी धर्म एक हे क्योंकि सभी सामजस्य स्थापित करने के अलग-अलग रिश्तों के संदर्भ में प्रयत्न हें जननी ओर जन्मभूमि, पिता ओर आकाश, पुत्र ओर वृक्ष, पुत्री और अमान की चिडिया, इन सबके प्रति जो कर्तव्य भाव जागते हे, वे एक-दूसरे के पोषक होते हें धर्म की माँग है कि लोग इनकी अलग पहचान में खो न जाएँ, सब उस एक को पहचानें
संप्रदाय धर्माचरण का चौखटा है जो समाष्टि रूप में दिया गया मिले, जो अपनी परिस्थितियों के साध्य सामजस्य बैठाने वाली जीवन पद्धति के रूप में मिले, उसे संप्रदाय कहा जाता हे मनु ने कहा हे कि जिस प्रकार, जिस पद्धति से पिता-पितामह कुशलतापूर्वक जिए हैं, उसी में मगल निहित है यहॉ महत्त्व पद्धति से अधिक प्रकार का है । हमें दिया हुआ मिलता है, इसका अर्थ यह नहीं कि यह रूढ हे जैसे कृषि के लिए खेत मिलता हे, खेत में बोने के लिए बीज मिलते हैं, हल-बैल मिलते हैं, किस ऋतु में कैसे बोना हे, कब क्या करना हे, यह पद्धति भिलती है और साथ ही साथ यह भाव मिलता हे कि फसल में सबका हिस्सा है, उसके बढने में, पकने मे, उसके उपभोग में सबका हिस्सा है, चिरई-चुरूग, पेड-पालो सबका हिस्सा हे, बढई-लुहार सबका हिस्सा है, वैसे ही सनातन हिन्दू धर्म में संप्रदाय मिलते हैं । हम संप्रदाय के उत्तराधिकारी हैं, पर संप्रदाय का उत्तराधिकार सौंपने वाले भी हैं जेसे शेव, वैष्णव ओर शाका संप्रदाय हे, वेसे ही बोद्ध, लेन, एव सिक्स संप्रदाय हैं वैसे ही ईसाई, यहूदी, मुस्लिम (वहाँ भी शिया, सुन्नी) जैसे संप्रदाय हैं हम जैसे दूसरों की खेती में दखल देना उचित नहीं समझते, वैसे ही दूसरे संप्रदाय में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझते हम यह भी नहीं सोचते कि अपने संप्रदाय में इनको मिला ले, क्योंकि धर्म या अध्यात्म में मिलाना होता नहीं, एकदूसरे के साथ मिलना होता हे, एकदूसरे से आदान-प्रदान होता है, अलग रहते हुए भी एकदूसरे को समझना होता हे जिस किसी को जो दिया गया है, वह उसे केसे ले रहा हे और केसे निबाह रहा है? साधना की पद्धति एक हो, यह जरूरी नहीं हे यह समझदारी साथ रहने से और संवाद स्थापित करने से आती हे हिन्दुस्तान मे यह प्रयत्न निरन्तर चलता रहा है, इसी को सत्संग कहा जाता हे । इसी को उत्सव ओर मेला कहा जाता है यही छोटे दायरों से बाहर निकलने का उपाय रहा है फकीर महात्मा के पास जाए तो कोइ बडा या छोटा बनकर नहीं जाता, बल्कि नि शेष होकर जाता है लोग तीर्थ के लिए, जियारत के लिए जाते हैं तो निस्वार्थ होकर जाते हैं वहॉ लोग केवल स्थावर या जगम तीर्थ से नहीं मिलते, ऐसे असख्य हृदयों से भी मिलते हे, जो उसी की तरह निशेष होकर विपुल के प्रवाह में नहा रहे हें यही मेला है जाने कब के बिछुडे एकदूसरे से मिलते हैं ओर एक-दूसरे की अपेक्षा से भीग कर अविलग होकर जुदा होते हे संवाद से अधिक संवाद के हृदय में उतरने का मजा होता है ऐसे संवादों की स्मृति राह से भटकने नहीं देती ऐसी स्मृति को संजोकर रखने में संप्रदायों एव सांप्रदायिक सत्संगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
संप्रदाय दीवार नहीं हे, संप्रदाय दीपस्तम्भ है, वह किसी दूसरे दीपस्तम्भ का प्रकाश छेकता नहीं, न उस प्रकाश का विरोध करता है, वह आकांक्षा करता है कि वह अपने आस-पास को ठीक तरह से प्रकाशित करे, इस तरह कि वहॉ का आदमी महसूस करे कि दूसरे का दीपस्तम्भ उसके लिए कितना महत्वपूर्ण है । संप्रदाय धर्म का आवश्यक अभिलक्षण है, और यह अभिलक्षण माँग करता है कि धर्म कभी दृष्टि से ओझल न हो । बराबर सामने रहे । हमें अपना संप्रदाय प्रिय लगता है, अपना घर अच्छा लगता है, बार- बार यहीं लौटने की इच्छा होती है तो दूसरे को भी उसका घर अच्छा लगता है, हम दूसरे से जुड़े हैं इसलिए कि हम दोनों को घरों से लगाव है । घर से दोनों का सरोकार है । बेघर, जड़हीन लोग जैसा भी सोचें पर घर वाला किसी घर की बर्वादी की बात नहीं सोचेगा । इसीलिए भारत में विभिन्न संप्रदाय धर्म की व्यापकता के लिए धर्म के परिचालन के लिए, धर्म की प्रतीति के लिए रहे और मनुष्य के भाव की आस्तिकता को प्रमाणित करने के लिए कायम रहे हैं ।
भारतीय मूल के पंथ एवं धार्मिक समूह
हिन्दू धर्म में अनेक संप्रदाय उल्लेखनीय हैं जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त, लिंगायत, कबीरपंथी, रैदासपंथी । इन धार्मिक समूहों और विस्तृत हिन्दू समाज के बीच परस्पर संबंध होता है । पंजाब में हिन्दुओं एवं सिक्खों के बीच विवाह के उदाहरण मिलते रहे हैं । बौद्ध व हिन्दुओं में भी वैवाहिक संबंध होते हैं । हिन्दू बनियों व जैनों के बीच गहरे सामाजिक व सांस्कृतिक संबंध हैं ।
बौद्ध व जैन जैसे प्रारंभिक संप्रदायों के प्रभाव में पुरोहितों के प्रभुत्व और जातीय प्रस्थिति के महत्त्व पर अंकुश लगा । बौद्ध धर्म ने सभी जीवों के प्रति करुणा कीं भावना को धार्मिक महत्त्व प्रदान किया । जैन धर्म ने अहिंसा के सिद्धांत को स्थापित किया । भगवान बुद्ध ने शास्त्रों एवं पुरोहितों की सीमा स्पष्ट करके अपना दीपक खुद बनने की शिक्षा दी, जिससे समाज में विवेक एवं प्रज्ञा का महत्त्व स्थापित हुआ ।
तत्पश्चात दक्षिण भारत में भक्ति संप्रदाय का छठी और ग्यारहवीं शताब्दी के बीच उदय हुआ । उत्तर भारत में चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच इस भक्ति संप्रदाय का प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन हुआ । इसके प्रभाव से उदारवाद प्रकाश में आया, जिससे लोगों को आनुष्ठानिक व सामाजिक प्रतिबंधों से छूट मिली । साथ ही ईश्वर के समक्ष समानता का सिद्धांत प्रचलित हुआ । भारतीय मूल के अन्य पंथों में कबीर पंथ, रैदास पंथ, नानक पंथ, लिंगायत पंथ आदि भक्ति संप्रदाय से जुड़े हैं ।
अनुक्रमणिका |
||
प्रस्तावना |
v |
|
धर्म, संप्रदाय एवं सत्संग |
vii |
|
भारतीय मूल के पंथ एवं धार्मिक समूह |
x |
|
1 |
इंडोलॉजिकल संप्रदाय अथवा भारतीय विद्या उपागम संप्रदाय |
1 |
भारतीय विद्या उपागम का अर्थ |
1 |
|
किताबी पाठ (टेक्सू्ट) की अवधारणा एवं भारत में इसका विकास |
3 |
|
समकालीन भारत में किताबी पाठ का महत्त्व |
10 |
|
भारतीय समाजशास्त्र में किताबी पाठों पर आधारित (संस्कृतिशास्त्रीय) उपागम |
16 |
|
जी .एस मुये (गोपाल सदाशिव घुर्ये) का उपागम |
18 |
|
राधाकमल मुखर्जी (आर .के. मुखर्जी) का उपागम |
22 |
|
सामाजिक मूल्यों की प्रकृति |
24 |
|
इरावती कर्वे |
26 |
|
किताबी पाठ एवं जमीनी तथ्यों के संश्लेषण के युग का आरंभ |
26 |
|
इरावती कर्के का उपागम |
28 |
|
जी. एस. घुर्ये एवं इरावती कर्वे |
30 |
|
इरावती कर्वे एवं आई पी. देसाई |
31 |
|
इरावती कर्वे(हिन्दू नातेदारी व्यवस्था) |
32 |
|
भारतीय समाजशास्त्र के प्रमुख संप्रदाय उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय नातेदारी व्यवस्थाएँ |
32 |
|
समकालीन भारत में नातेदारी |
33 |
|
2 |
भारतीय समाजशास्त्र में संरचनात्मक प्रकार्यवादी संप्रदाय |
|
भारतीय समाजशास्त्र में संरचनात्मक उपागम |
34 |
|
एम .एन श्रीनिवास के उपागम का महत्त्व |
35 |
|
श्रीनिवास के उपागम की प्रमुख विशेषता |
38 |
|
संरचनात्मक प्रकार्यवादी उपागम में संशोधन के प्रयास |
40 |
|
भारतीय समाजशास्त्र में जाति एवं ग्रमीण समुदाय के अध्ययन का महत्त्व |
42 |
|
भारत में सामाजिक परिवर्तन क्त विश्लेषण |
48 |
|
भारत में समाजशास्त्र एवं सामाजिक मानवशास्त्र |
49 |
|
एस. सी. दूबे (श्यामाचरण दूबे) |
54 |
|
ए .एम शाह |
58 |
|
संयुक्त घराना की संरचनात्मक विशेषताएँ |
58 |
|
भारत में संयुक्त घराना की प्रकार्यात्मक विशेषताएँ |
59 |
|
संयुक्त घराना के प्रकार्य |
60 |
|
संयुक्त घराना के प्रकार्य |
61 |
|
संयुक्त परिवार में परिवर्तन |
62 |
|
संरचनात्मक परिवर्तन |
62 |
|
प्रकार्यात्मक परिवर्तन |
63 |
|
3 |
मार्क्सवाद से प्रेरित एवं प्रभावित उपागम संप्रदाय |
68 |
भारतीय समाजशास्त्र में ऐतिहासिक एवं मार्क्सवादी उपागम |
68 |
|
डी .डी कोसाम्बी द्वंद्वात्मक भौतिकवादी उपागम |
70 |
|
एं आर. देसाई |
74 |
|
वर्ग व्यवस्था |
79 |
|
ग्रामीण भारत में वर्ग |
80 |
|
नगरीय भारत में वर्ग |
82 |
|
जाति एवं वर्ग |
84 |
|
डी .पी. मुखर्जी का उपागम |
84 |
|
4 |
लुई डुमों का संरचनावादी संप्रदाय |
87 |
लुई डुमों के समाजशास्त्रीय अध्ययनों का स्वरूप |
87 |
|
लेवी स्ट्रॉस एवं लुई डुमों |
89 |
|
लेवी स्ट्रॉस के संरचनात्मक उपागम का तुलनात्मक महत्त्व |
90 |
|
लेवी स्ट्रॉस के संरचनावाद की मूल विशेषता |
93 |
|
संरचनात्मक उपागम के विकास में लुई डुमों का योगदान |
98 |
|
5 |
सभ्यतामूलक सम्प्रदाय |
104 |
सभ्यतामूलक उपागम का अर्थ |
104 |
|
सभ्यता की आधुनिक अवधारणा |
104 |
|
सभ्यता की भारतीय अवधारणा |
105 |
|
महात्मा गाँधी का सभ्यता विमर्श |
108 |
|
सभ्यता का दर्शन |
108 |
|
राष्ट्र की अवधारणा |
115 |
|
हिन्दू-मुस्लिम संबंक |
116 |
|
अंग्रेज़ी राज में भरतीय वकील जज एवं आधुनिक न्यायालय |
117 |
|
अत्रकी तज और ऐलोपैथिक डॉक्टर |
119 |
|
सनातन सभ्यता क्व नया शास्त्र |
121 |
|
सनातनी सभ्यता की अवधारणा |
121 |
|
सत्याग्रह - आत्मबल |
123 |
|
बुनियादी शिक्षा |
126 |
|
यूरोपीय आधुनिकता एवं समकालीन भारतीय समाज |
128 |
|
एन. के. बोस का सभ्यतामूलक उपागम |
137 |
|
सुरजीत सिन्हा के विचार |
140 |
|
6 |
वंचित समूहों के दृष्टिकोण पर आधारित संप्रदाय |
142 |
वंचित समूहों के दृष्टिकोण का भारतीय समाज-विज्ञान में विकास |
142 |
|
वंचित समूहों के दृष्टिकोण के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया |
143 |
|
वंचित समूहों के प्रमुख सिद्धांतकार के रूप में डॉ. अम्बेडकर की स्वीकार्यता के समाजशास्त्रीय कारण |
145 |
|
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर और महात्मा गाँधी |
152 |
|
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, बौद्ध धर्म एव विश्व ग्राम |
156 |
|
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का बौद्ध धर्म सबंधी ट्टष्टिकोण |
157 |
|
भारतीय मूल के पथ एवं |
157 |
|
धार्मिक समूहों में बौद्ध धर्म का महत्त्व वैदिक धारा और श्रमण धारा |
158 |
|
बौद्ध धर्म |
159 |
|
बौद्ध धर्म तथा हिन्दू धर्म का परस्पर सम्बन्ध |
161 |
|
बोद्ध धर्म के विकास में डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का सैद्धांतिक योगदान |
165 |
|
7 |
भारतीय समाजशास्त्र की समकालीन प्रवृत्तियाँ |
169 |
भारतीय समाजशास्त्र की समकात्नीन प्रवृत्ति |
169 |
|
भारतीय समाजशास्त्र की प्रमुख धाराओं का समकालीन मूल्यांकन |
170 |
|
भारतीय समाज और यूरोपीय आधुनिकता का समकालीन मूल्यांकन |
175 |
|
भारतीय परम्परा एवं यूरोपीय आधुनिकता के बारे में कुमारस्वामी संप्रदाय की समकालीन दृष्टि |
177 |
|
भारतीय परम्परा एव पश्चिमी आधुनिकता |
180 |
|
भारतीय परम्परा, सांसारिक युक्ति एवं सनातन दृष्टि |
180 |
|
सांसारिक युक्ति एवं अमेरिकी व्यवहारिकता |
187 |
|
8 |
साहित्य एवं कला का समकालीन भारतीय समाजशास्त्र |
190 |
रामचन्द्र शुक्ल का समाजशास्त्रीय विमर्श |
190 |
|
भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के अन्य समकालीन समाजशारत्रीय विमर्श |
210 |
|
9 |
भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र |
222 |
भारतीय फिल्मों की पारिभाषिक विशेषता एवं आधारभूत श्रेणियाँ |
224 |
|
भारतीय सिनेमा एवं मीडिया समीक्षा |
228 |
|
संदर्भ ग्रंथों की सूची |
247 |
|
अनुक्रमणिका |
263 |