पुस्तक के बारे में
शुमाशंसन
भारतीय वाङ्मय में दर्शन-ग्रन्थों का बाहुल्य 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्, इस भगवदुक्ति (गीता, अध्याय 10) में स्पष्ट प्रतिफलित प्राचीन भारतीय इष्टि का परिचायक है । दर्शनों में भी योगदर्शन का महत्व सर्वविदित है । पतञ्जलि-प्रोक्त अष्टाङ्ग-योग अशेष दर्शन-सम्प्रदायों के तत्तत् लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये उपदिष्ट साधना का जैसे अनिवार्य पूरक या ठोस आधार हो । इस महत्वपूर्ण सूत्रात्मक पातञ्जलयोगदर्शन की सारवत्तमा एवं मनोहारिणी व्याख्या व्यासदेव-कृत योगसूत्रभाष्य है । गहन योगदर्शन-पारावार के पार जाने के अभिलाषुक पुरुषों के लिये इन दोनों ही कृतियों का अध्ययन अनिवार्य है । इसी को सुकर बनाने के प्रयास प्राचीन-काल से ही होते रहे हैं । महामहिम वाचस्पति मिश्र ने 'तत्त्ववैशारदी, द्वारा यही कार्य ईस्वी नवम शताब्दी में किया था । यही कार्य विज्ञानभिक्षु ने अपने 'योग-वार्त्तिक, हारा ईस्वी सोलहवीं शताब्दी में किया और यही कार्य बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रसिद्ध योगी श्रीहरिहरानन्द आरण्य ने अपनी 'भास्वती, द्वारा सम्पन्न किया ।
आधुनिक काल में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से भी एतदर्थ कुछ प्रयत्न हुए हैं । परन्तु वे अनेक कारणों से सफल नहीं कहे जा सकते । हमारे पूर्व शिष्य एवं अद्यतन सहयोगी डा० सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव ने दशाधिक वर्षो के निरन्तर अध्ययनाध्यापन के अनन्तर योगसूत्र एवं व्यासदेव-कृत उनके भाष्य को सहज सरल रीति से समझाने वाली 'योगसिद्धि, नामक व्याख्या प्रस्तुत की है । साथ ही इनका हिन्दीभाषान्तर भी प्रस्तुत किया है, जिससे व्याख्या के मूला- नुसारिणी होने की बात सहज ही समझी जा सकती है । डा० श्रीवास्तथ्य इस क्षेत्र में नये नहीं हैं । एतत्पूर्व उनका शोध-प्रवन्ध 'आचार्य विज्ञानभिक्षु और भारतीय दर्शन में उनका स्थान, छपकर विद्वानों के समक्ष आ चुका है । उनकी यह अभिनव कृति उसी दिशा में एक नयी उपलब्धि है । हमें विश्वास है कि दर्शनशास्त्रों के क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिये यह कृति दिशा-निर्देश करेगी । इने प्रस्तुत कर डा० श्रीवास्तव्य ने योग-प्रीवविक्षुओं के अपने कार्य में बड़ा योग दिया है । एतदर्थ वे हमारी बधाई के पात्र हैं । भगवान् उन्हें ऐसी अनेक मुन्दर कृतियों के रचयिता बनने का श्रेय प्रदान करें । आशा है कि इस कृति का समुचित सम्मान होगा ।
निवेदन
व्यासभाष्यसहित पातञ्जलयोगसूत्रो की एक विशद हिन्दी-व्याख्या करने की बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी । अत: इस कार्य में मैं पाँच-छह वर्षों से लगा रहा । भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा तथा श्रद्धेय गुरुजनों के आशीर्वाद से यह कार्य अब पूरा हो पाया है । इस ग्रन्थ में सूत्र और भाष्य की हिन्दी-व्याख्या 'योगसिद्धि, के अतिरिक्त मूल का अविकल हिन्दी-रूपान्तर भी दिया गया है । हिन्दी-रूपान्तर में मूल को अन्यून एवम् अनतिरिक्त रूप में उतारने की भरसक चेष्टा की गयी है । कहीं-कही हिन्दी-प्रयोगों के अनुरोध से संस्कृत-व्याकरण के नियमों की भी अवहेलना करनी पड़ी है । हर भाषा की अपनी निजी प्रकृति होती है । वैसे, मूल के प्रत्येक पद एवं उसकी विभक्ति का निर्देश हिन्दी-रूपान्तर में सतर्कतापूर्वक निभाया गया है । सूत्र और भाष्य के पाठान्तरों का भी पादटिप्पणियों में उल्लेख कर दिया गया है । शास्त्रीय-सिद्धान्तों की संगति वाले पाठ ही मूलग्रन्थ में अपनाये गये हैं । योगसिद्धि में सूत्र-भाष्यगत प्रत्येक पद को ठीक से समझाने की चेष्टा की गयी है । मूल पदों की व्याख्या करते समय उनके संस्कृतपर्याय तथा हिन्दीपर्याय दोनों ही दिये गये हैं । जहाँ उन समानार्थक पदों की अर्थबोधकता में सन्देह हुआ, वहाँ उनका भी लक्षणो- दाहरणपूर्वक निरूपण किया गया है । सामासिक पदों का विग्रह मैंने संस्कृत में ही दिया है, जिससे कि जिज्ञासुओं को मूलप्रयोगों की यथार्थता और समी-चीनता की जानकारी से वञ्चित न होना पड़े । अनावश्यक विस्तार से ग्रन्थ को सर्वथा बचाते हुए भी गम्भीर विषयों का विस्तृत विवेचन अवश्य किया गया है । परीक्षाओं में उपयोगिता के उद्देश्य से और शास्त्रीयज्ञानवैविध्य प्रदान करने की दृष्टि से स्थल-स्थल पर योगशास्त्र के प्रमुख आचार्यो के मतमतान्तर संक्षिप्त-समीक्षा सहित उद्धृत किये गये हैं । इस बात से सुधीजनों को शास्त्रसंगति का निर्णय करने में अतीव सुविधा होगी-ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है ।,
ग्रन्थ की तैयारी में जिन पुरातन मनीषियों एवम् अर्वाचीन विद्वानों की कृतियों से मैंने सहायता ली है, उनके प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन करना मेरा पावन कर्त्तव्य है । पूज्यपाद गुरुवर्य श्री डा० बाबूरामजी सक्सेना एवं श्री पं० रघुवर मिट्ठूलालजी के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करना मेरा परमधर्म है, क्योकि उनकी सत्प्रेरणाएँ एवं शुभाशीर्वाद मेरे दुःखी क्षणों में निरन्तर धीरजबँधाते रहे हैं । पूज्य गुरुवर्य विद्वद्वरेण्य श्री डा० आद्याप्रसादजी मिश्र ने इस ग्रन्थ की सर्जना में जो प्रेरणाएँ प्रदान की हैं और आशीर्वाद लिखकर मुझे जिस प्रकार प्रोत्साहित किया है, उसके लिये मैं उनका जीवन-पर्यन्त ऋणी रहूँगा । इस ग्रन्थ के प्रकाशन में बहुविध साहाय्य प्रदान करने वाले अपने अभिन्नहृदय सुहद्वर्य श्री पं० राजकुमारजी शुक्ल के प्रति असीम आभार प्रकट करना भी सर्वथा सुखद अनुभव होगा । अपनी बड़ी बहन श्रीमती विमलादेवी और अपनी पत्नी श्रीमती दयावती को भी इस ग्रन्थ की पूर्ति के लिये अनेकश: धन्यवाद न देना ठीक नहीं है, क्योंकि उन्होंने घर-गृहस्थी के विशाल, अनराल-जाल से मुझे सर्वथा निश्चिन्त रखा और ग्रन्थ-प्रणयन के लिये सर्वविध सौविध्य दिया है । ग्रन्थ की स्पष्ट प्रतिलिपि तैयार करने में सोत्साह सहायता देने वाले अपने सुयोग्य शिष्यों-श्रीकमलाशंकर पाण्डेय, श्री नरेन्द्रबहादुर सिंह, कु० मञ्जु विश्वकर्मा, कु० प्रतिभा सक्सेना और कु० सविता भार्गव को मैं बहुत-बहुत साधुवाद देता हूँ । ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन में अपेक्षित छिटपुट श्रम का भार वहन करने वाले अपने प्रिय भागिनेय श्री अविनाशचन्द्र श्रीवास्तव्य और प्रिय पुत्री कु० प्रभाती श्रीवास्तव्य को भी मैं सस्नेह साधुवाद देता हूं ।
न ख्यातिलाभपूजार्थं ग्रन्थोऽस्माभिरुदीर्य्यते ।
स्वबोधपरिशुद्धचर्थ ब्रह्मवित्रकषाश्मसु ।।-नैषकर्म्यसिद्धि: ।
विषयानुक्रमणी |
||
भूमिका प्रथम समाधिपाद (कुल 51 सूत्र) |
1-43 |
|
1 |
योगशास्त्र का आरम्भ |
1 |
2-3 |
योग का लक्षण एवं फल |
9 |
4-11 |
चित्तवृत्तियाँ |
21 |
12 |
योग के उपाय |
50 |
13-14 |
अभ्यास |
53 |
15-16 |
वैराग्य |
56 |
17 |
सम्प्रज्ञात समाधि |
62 |
18-20 |
असम्प्रज्ञात समाधि |
66 |
21-22 |
समाधिसिद्धि की आसत्रता |
75 |
23 |
ईश्वर-प्रणिधान |
78 |
24-29 |
ईश्वर-निरूपण |
80 |
30-32 |
योग के अन्तराय |
99 |
33-40 |
चित्त के परिकर्म |
110 |
41-46 |
चतुर्विधसमापत्तिवर्णन |
124 |
47 |
निर्विचारासमापपत्ति का उत्कर्ष |
145 |
48-49 |
ऋतम्भराप्रज्ञा |
147 |
50 |
ॠतम्भराप्रज्ञाजन्यसंस्कार |
151 |
51 |
निरोधसमाधि |
153 |
द्वितीय साधनपाद (कुल 55 सूत्र) |
||
1-2 |
क्रियायोग |
156 |
3-4 |
पचफ्लेशवर्णन |
161 |
5 |
अविद्यालक्षण |
168 |
6 |
अस्मितालक्षण |
174 |
7 |
रागलक्षण |
176 |
8 |
द्रेषलक्षण |
177 |
9 |
अभिनिवेशलक्षण |
177 |
10-11 |
क्लेशनिवारणस्वरूप |
180 |
12 |
कर्माशयभेद |
183 |
13-14 |
कर्मफलसिद्धान्त |
186 |
15 |
दुःखवाद का विवेचन |
199 |
16 |
हेयनिरूपण |
211 |
17 |
हेयहेतुनिरूपण |
212 |
18-19 |
दृश्यस्वरूपनिरूपण |
217 |
20-21 |
द्रष्टृस्वरूपनिरूपण |
231 |
22 |
दृश्य की नित्यता का वर्णन |
237 |
23-24 |
प्रकृतिपुरुषसंयोग का वर्णन |
240 |
25 |
हान का स्वरूप |
251 |
26-28 |
हानोपाय |
253 |
29-34 |
योग के आठों अत्रों का वर्णन |
265 |
35-39 |
यमों की सिद्धियां |
284 |
40-53 |
नियमों की सिद्धियां |
289 |
46-48 |
आसन और उसकी सिद्धि |
296 |
49-53 |
प्राणायाम और उसकी सिद्धि |
301 |
54-55 |
प्रत्याहार और उसकी सिद्धि |
314 |
तृतीय विभूतिपाद (कुल 55 सूत्र) |
||
1-4 |
धारणाध्यानसमाधिवर्णन |
320 |
5-8 |
संयम का अन्तरत्रत्व |
325 |
9-12 |
त्रिविध चित्तपरिणाम |
331 |
13 |
धर्मलक्षणावस्थापरिणाम |
339 |
14 |
धर्मी का स्वरूप |
357 |
15 |
परिणामक्रम |
364 |
16-42 |
संयम की सिद्धियां |
370 |
43 |
महाविदेहा वृत्ति |
448 |
44-46 |
भूतजय और उसकी सिद्धियाँ |
450 |
47-48 |
इन्द्रियजय और उसकी सिद्धियां |
461 |
49-50 |
सत्वपुरुषान्यथाख्याति और सिद्धियां |
467 |
51 |
देवताओं का निमन्त्रण |
472 |
52-54 |
विवेकजज्ञाननिरूपण |
477 |
55 |
कैवल्यनिर्वचन |
488 |
चतुर्थ कैवल्यपाद (कुल 34 सूत्र) |
||
1 |
पञ्चविधसिद्धियाँ |
491 |
2-3 |
जात्यन्तरपरिणाम |
493 |
4-6 |
निर्माणचित्त |
499 |
7 |
चतुर्विध कर्म |
505 |
8-12 |
वासना |
501 |
13-17 |
बाह्य पदार्थो की सत्ता |
531 |
18-24 |
पुरुष में चित्तद्रष्टृत्व |
548 |
25-28 |
जीवन्मुक्त की मनोवृत्ति |
575 |
29-31 |
धर्ममेघसमाधि |
582 |
32-33 |
परिणामक्रमसमाप्ति |
588 |
34 |
कैवल्यस्वरूपव्यवस्था |
597 |
पुस्तक के बारे में
शुमाशंसन
भारतीय वाङ्मय में दर्शन-ग्रन्थों का बाहुल्य 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्, इस भगवदुक्ति (गीता, अध्याय 10) में स्पष्ट प्रतिफलित प्राचीन भारतीय इष्टि का परिचायक है । दर्शनों में भी योगदर्शन का महत्व सर्वविदित है । पतञ्जलि-प्रोक्त अष्टाङ्ग-योग अशेष दर्शन-सम्प्रदायों के तत्तत् लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये उपदिष्ट साधना का जैसे अनिवार्य पूरक या ठोस आधार हो । इस महत्वपूर्ण सूत्रात्मक पातञ्जलयोगदर्शन की सारवत्तमा एवं मनोहारिणी व्याख्या व्यासदेव-कृत योगसूत्रभाष्य है । गहन योगदर्शन-पारावार के पार जाने के अभिलाषुक पुरुषों के लिये इन दोनों ही कृतियों का अध्ययन अनिवार्य है । इसी को सुकर बनाने के प्रयास प्राचीन-काल से ही होते रहे हैं । महामहिम वाचस्पति मिश्र ने 'तत्त्ववैशारदी, द्वारा यही कार्य ईस्वी नवम शताब्दी में किया था । यही कार्य विज्ञानभिक्षु ने अपने 'योग-वार्त्तिक, हारा ईस्वी सोलहवीं शताब्दी में किया और यही कार्य बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रसिद्ध योगी श्रीहरिहरानन्द आरण्य ने अपनी 'भास्वती, द्वारा सम्पन्न किया ।
आधुनिक काल में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से भी एतदर्थ कुछ प्रयत्न हुए हैं । परन्तु वे अनेक कारणों से सफल नहीं कहे जा सकते । हमारे पूर्व शिष्य एवं अद्यतन सहयोगी डा० सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव ने दशाधिक वर्षो के निरन्तर अध्ययनाध्यापन के अनन्तर योगसूत्र एवं व्यासदेव-कृत उनके भाष्य को सहज सरल रीति से समझाने वाली 'योगसिद्धि, नामक व्याख्या प्रस्तुत की है । साथ ही इनका हिन्दीभाषान्तर भी प्रस्तुत किया है, जिससे व्याख्या के मूला- नुसारिणी होने की बात सहज ही समझी जा सकती है । डा० श्रीवास्तथ्य इस क्षेत्र में नये नहीं हैं । एतत्पूर्व उनका शोध-प्रवन्ध 'आचार्य विज्ञानभिक्षु और भारतीय दर्शन में उनका स्थान, छपकर विद्वानों के समक्ष आ चुका है । उनकी यह अभिनव कृति उसी दिशा में एक नयी उपलब्धि है । हमें विश्वास है कि दर्शनशास्त्रों के क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिये यह कृति दिशा-निर्देश करेगी । इने प्रस्तुत कर डा० श्रीवास्तव्य ने योग-प्रीवविक्षुओं के अपने कार्य में बड़ा योग दिया है । एतदर्थ वे हमारी बधाई के पात्र हैं । भगवान् उन्हें ऐसी अनेक मुन्दर कृतियों के रचयिता बनने का श्रेय प्रदान करें । आशा है कि इस कृति का समुचित सम्मान होगा ।
निवेदन
व्यासभाष्यसहित पातञ्जलयोगसूत्रो की एक विशद हिन्दी-व्याख्या करने की बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी । अत: इस कार्य में मैं पाँच-छह वर्षों से लगा रहा । भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा तथा श्रद्धेय गुरुजनों के आशीर्वाद से यह कार्य अब पूरा हो पाया है । इस ग्रन्थ में सूत्र और भाष्य की हिन्दी-व्याख्या 'योगसिद्धि, के अतिरिक्त मूल का अविकल हिन्दी-रूपान्तर भी दिया गया है । हिन्दी-रूपान्तर में मूल को अन्यून एवम् अनतिरिक्त रूप में उतारने की भरसक चेष्टा की गयी है । कहीं-कही हिन्दी-प्रयोगों के अनुरोध से संस्कृत-व्याकरण के नियमों की भी अवहेलना करनी पड़ी है । हर भाषा की अपनी निजी प्रकृति होती है । वैसे, मूल के प्रत्येक पद एवं उसकी विभक्ति का निर्देश हिन्दी-रूपान्तर में सतर्कतापूर्वक निभाया गया है । सूत्र और भाष्य के पाठान्तरों का भी पादटिप्पणियों में उल्लेख कर दिया गया है । शास्त्रीय-सिद्धान्तों की संगति वाले पाठ ही मूलग्रन्थ में अपनाये गये हैं । योगसिद्धि में सूत्र-भाष्यगत प्रत्येक पद को ठीक से समझाने की चेष्टा की गयी है । मूल पदों की व्याख्या करते समय उनके संस्कृतपर्याय तथा हिन्दीपर्याय दोनों ही दिये गये हैं । जहाँ उन समानार्थक पदों की अर्थबोधकता में सन्देह हुआ, वहाँ उनका भी लक्षणो- दाहरणपूर्वक निरूपण किया गया है । सामासिक पदों का विग्रह मैंने संस्कृत में ही दिया है, जिससे कि जिज्ञासुओं को मूलप्रयोगों की यथार्थता और समी-चीनता की जानकारी से वञ्चित न होना पड़े । अनावश्यक विस्तार से ग्रन्थ को सर्वथा बचाते हुए भी गम्भीर विषयों का विस्तृत विवेचन अवश्य किया गया है । परीक्षाओं में उपयोगिता के उद्देश्य से और शास्त्रीयज्ञानवैविध्य प्रदान करने की दृष्टि से स्थल-स्थल पर योगशास्त्र के प्रमुख आचार्यो के मतमतान्तर संक्षिप्त-समीक्षा सहित उद्धृत किये गये हैं । इस बात से सुधीजनों को शास्त्रसंगति का निर्णय करने में अतीव सुविधा होगी-ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है ।,
ग्रन्थ की तैयारी में जिन पुरातन मनीषियों एवम् अर्वाचीन विद्वानों की कृतियों से मैंने सहायता ली है, उनके प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन करना मेरा पावन कर्त्तव्य है । पूज्यपाद गुरुवर्य श्री डा० बाबूरामजी सक्सेना एवं श्री पं० रघुवर मिट्ठूलालजी के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करना मेरा परमधर्म है, क्योकि उनकी सत्प्रेरणाएँ एवं शुभाशीर्वाद मेरे दुःखी क्षणों में निरन्तर धीरजबँधाते रहे हैं । पूज्य गुरुवर्य विद्वद्वरेण्य श्री डा० आद्याप्रसादजी मिश्र ने इस ग्रन्थ की सर्जना में जो प्रेरणाएँ प्रदान की हैं और आशीर्वाद लिखकर मुझे जिस प्रकार प्रोत्साहित किया है, उसके लिये मैं उनका जीवन-पर्यन्त ऋणी रहूँगा । इस ग्रन्थ के प्रकाशन में बहुविध साहाय्य प्रदान करने वाले अपने अभिन्नहृदय सुहद्वर्य श्री पं० राजकुमारजी शुक्ल के प्रति असीम आभार प्रकट करना भी सर्वथा सुखद अनुभव होगा । अपनी बड़ी बहन श्रीमती विमलादेवी और अपनी पत्नी श्रीमती दयावती को भी इस ग्रन्थ की पूर्ति के लिये अनेकश: धन्यवाद न देना ठीक नहीं है, क्योंकि उन्होंने घर-गृहस्थी के विशाल, अनराल-जाल से मुझे सर्वथा निश्चिन्त रखा और ग्रन्थ-प्रणयन के लिये सर्वविध सौविध्य दिया है । ग्रन्थ की स्पष्ट प्रतिलिपि तैयार करने में सोत्साह सहायता देने वाले अपने सुयोग्य शिष्यों-श्रीकमलाशंकर पाण्डेय, श्री नरेन्द्रबहादुर सिंह, कु० मञ्जु विश्वकर्मा, कु० प्रतिभा सक्सेना और कु० सविता भार्गव को मैं बहुत-बहुत साधुवाद देता हूँ । ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन में अपेक्षित छिटपुट श्रम का भार वहन करने वाले अपने प्रिय भागिनेय श्री अविनाशचन्द्र श्रीवास्तव्य और प्रिय पुत्री कु० प्रभाती श्रीवास्तव्य को भी मैं सस्नेह साधुवाद देता हूं ।
न ख्यातिलाभपूजार्थं ग्रन्थोऽस्माभिरुदीर्य्यते ।
स्वबोधपरिशुद्धचर्थ ब्रह्मवित्रकषाश्मसु ।।-नैषकर्म्यसिद्धि: ।
विषयानुक्रमणी |
||
भूमिका प्रथम समाधिपाद (कुल 51 सूत्र) |
1-43 |
|
1 |
योगशास्त्र का आरम्भ |
1 |
2-3 |
योग का लक्षण एवं फल |
9 |
4-11 |
चित्तवृत्तियाँ |
21 |
12 |
योग के उपाय |
50 |
13-14 |
अभ्यास |
53 |
15-16 |
वैराग्य |
56 |
17 |
सम्प्रज्ञात समाधि |
62 |
18-20 |
असम्प्रज्ञात समाधि |
66 |
21-22 |
समाधिसिद्धि की आसत्रता |
75 |
23 |
ईश्वर-प्रणिधान |
78 |
24-29 |
ईश्वर-निरूपण |
80 |
30-32 |
योग के अन्तराय |
99 |
33-40 |
चित्त के परिकर्म |
110 |
41-46 |
चतुर्विधसमापत्तिवर्णन |
124 |
47 |
निर्विचारासमापपत्ति का उत्कर्ष |
145 |
48-49 |
ऋतम्भराप्रज्ञा |
147 |
50 |
ॠतम्भराप्रज्ञाजन्यसंस्कार |
151 |
51 |
निरोधसमाधि |
153 |
द्वितीय साधनपाद (कुल 55 सूत्र) |
||
1-2 |
क्रियायोग |
156 |
3-4 |
पचफ्लेशवर्णन |
161 |
5 |
अविद्यालक्षण |
168 |
6 |
अस्मितालक्षण |
174 |
7 |
रागलक्षण |
176 |
8 |
द्रेषलक्षण |
177 |
9 |
अभिनिवेशलक्षण |
177 |
10-11 |
क्लेशनिवारणस्वरूप |
180 |
12 |
कर्माशयभेद |
183 |
13-14 |
कर्मफलसिद्धान्त |
186 |
15 |
दुःखवाद का विवेचन |
199 |
16 |
हेयनिरूपण |
211 |
17 |
हेयहेतुनिरूपण |
212 |
18-19 |
दृश्यस्वरूपनिरूपण |
217 |
20-21 |
द्रष्टृस्वरूपनिरूपण |
231 |
22 |
दृश्य की नित्यता का वर्णन |
237 |
23-24 |
प्रकृतिपुरुषसंयोग का वर्णन |
240 |
25 |
हान का स्वरूप |
251 |
26-28 |
हानोपाय |
253 |
29-34 |
योग के आठों अत्रों का वर्णन |
265 |
35-39 |
यमों की सिद्धियां |
284 |
40-53 |
नियमों की सिद्धियां |
289 |
46-48 |
आसन और उसकी सिद्धि |
296 |
49-53 |
प्राणायाम और उसकी सिद्धि |
301 |
54-55 |
प्रत्याहार और उसकी सिद्धि |
314 |
तृतीय विभूतिपाद (कुल 55 सूत्र) |
||
1-4 |
धारणाध्यानसमाधिवर्णन |
320 |
5-8 |
संयम का अन्तरत्रत्व |
325 |
9-12 |
त्रिविध चित्तपरिणाम |
331 |
13 |
धर्मलक्षणावस्थापरिणाम |
339 |
14 |
धर्मी का स्वरूप |
357 |
15 |
परिणामक्रम |
364 |
16-42 |
संयम की सिद्धियां |
370 |
43 |
महाविदेहा वृत्ति |
448 |
44-46 |
भूतजय और उसकी सिद्धियाँ |
450 |
47-48 |
इन्द्रियजय और उसकी सिद्धियां |
461 |
49-50 |
सत्वपुरुषान्यथाख्याति और सिद्धियां |
467 |
51 |
देवताओं का निमन्त्रण |
472 |
52-54 |
विवेकजज्ञाननिरूपण |
477 |
55 |
कैवल्यनिर्वचन |
488 |
चतुर्थ कैवल्यपाद (कुल 34 सूत्र) |
||
1 |
पञ्चविधसिद्धियाँ |
491 |
2-3 |
जात्यन्तरपरिणाम |
493 |
4-6 |
निर्माणचित्त |
499 |
7 |
चतुर्विध कर्म |
505 |
8-12 |
वासना |
501 |
13-17 |
बाह्य पदार्थो की सत्ता |
531 |
18-24 |
पुरुष में चित्तद्रष्टृत्व |
548 |
25-28 |
जीवन्मुक्त की मनोवृत्ति |
575 |
29-31 |
धर्ममेघसमाधि |
582 |
32-33 |
परिणामक्रमसमाप्ति |
588 |
34 |
कैवल्यस्वरूपव्यवस्था |
597 |