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रंग लोक: भोजपुरी का लोकधर्मी नाट्य- Rang Lok: Bhojpuri Folk Drama

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Specifications
Publisher: Adivasi Lok Kala Evam Boli Vikas Academy And Madhya Pradesh Cultural Institution
Author Adya Prasad Dwivedi
Language: Hindi
Pages: 192
Cover: HARDCOVER
10.5x8 inch
Weight 690 gm
Edition: 2014
ISBN: 9789383899005
HBL777
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Book Description

प्राक्कथन

विगत शताब्दियों में अंग्रेज प्राच्य विद्या विशारदों और ब्रिटिश सरकार के उच्च अधिकारियों के प्रयत्न से भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ हुए। इन विद्वानों में डॉ० ग्रियर्सन, विलियम क्रूक, मिस्टर शेरिफ, मिस्टर शेरिंग,. फेलेन आदि ने लोकवार्ता, लोकसाहित्य, लोक-संस्कृति, लोकभाषां के क्षेत्र में सम्भवतः प्रशासनिक उद्देश्यों से बड़े ही महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इसी क्रम में 'जरनल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बेंगाल', 'इंडियन एंटिक्यूरी', 'मेनकाइन्ड' आदि पत्रों का प्रकाशन हुआ, जिनमें 'इण्डियन एंटिक्यूरी और मेनकाइन्ड' में भोजपुरी लोकसाहित्य एवं लोक-संस्कृति पर ही लेख प्रकाशित होते थे। इन सभी पत्रों में विभिन्न स्थानीय अफसरों तथा भारतीय अधिकारियों के सहयोग से लोकवार्ता सम्बन्धी सामग्री का अभूतपूर्व संकलन भी हुआ। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियों के विषय में नृतत्वशास्त्रीय तथा मानवशास्त्रीय अध्ययन के लिए प्रामाणिक विवरण भी संकलित हुए और लोक-साहित्य एवं संस्कृति के तत्त्वों तथा उपादानों को लेकर अनेक पुस्तकें तथा संग्रह ग्रन्थ भी प्रकाश में आये। इस क्रम में तद्विषयक अध्ययन एवं संकलन का कार्य भारतीय अध्येताओं द्वारा भी किये गये, लेकिन इस प्रकार के अध्ययन की पूर्व पीठिका के निर्माण का श्रेय अंग्रेज अधिकारियों को ही है। इनके कार्यों की देखा-देखी भारतीय विद्वानों का भी ध्यान इस ओर गया, जो पिछली शताब्दी से लेकर स्वतंत्रता के पूर्व तक बड़े ही उत्साह से सम्पन्न होता रहा। 1943 ई० में जब टीकमगढ़ से 'लोकवार्ता' और वाराणसी से 'जनपद' नामक पत्रिकायें प्रकाशित हुई तो संकलित सामग्री के अध्ययन के क्षेत्र में विशेष तेजी आई। फलतः हिन्दी की विभिन्न बोलियों और आधुनिक आर्यभाषा के क्षेत्रों में इस विषय के संकलन, पत्र-प्रकाशन एवं अध्ययन का कार्य बड़ी ही द्रुत गति से होने लगा। इस प्रकार 1920 से लेकर 1950 तक लालबिहारी डे, डॉ० दिनेश चन्द्रसेन, विनयकुमार सरकार, पं० रामनरेश त्रिपाठी, देवेन्द्र सत्यार्थी, डॉ० सत्येन्द्र, डॉ० सहल, रामइकबाल सिंह 'राकेश', झवेरचन्द मेघाड़ी, सूर्यकरण पारीक, वासुदेवशरण अग्रवाल, श्याम परमार आदि ने भारतीय लोक-साहित्य के संकलन-अध्ययन को बड़े ही सराहनीय ढंग से प्रोत्साहित किया। इसी प्रकार भोजपुरी भाषा और लोक-साहित्य तथा संस्कृति के क्षेत्र में राहुल सांस्कृत्यायन, डॉ० कृष्णदेव उपाध्याय, डॉ० उदयनारायण तिवारी, श्री रघुवंश नारायण सिंह, श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह आदि के कार्यों से इस प्रकार के अध्ययन को अभूतपूर्व उत्तेजना एवं उत्कर्ष प्राप्त हुआ। फलतः श्री रामनरेश त्रिपाठी की देखा-देखी भोजपुरी लोकगीत के कुछ संकलन भी प्रकाश में आये। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय में शोधकार्य के निमित्त भोजपुरी भाषा और लोकसाहित्य के सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट कार्य हुए।

इतना होते हुए भी भोजपुरी लोकसाहित्य की अन्य विधाओं के समान नाट्य विधा पर कोई महत्त्वपूर्ण कृति प्रस्तुत नहीं हो पाई। यद्यपि भोजपुरी लोकनाट्य परम्परा को आधार बनाकर कुछ कार्य और पुस्तकें प्रस्तुत हुई, किन्तु इस विधा की समृद्धि को देखते हुए संकलन एवं अनुसंधान के अभाव में ये कार्य वांछित उद्देश्य की पूर्ति में अक्षम रहे। इसका कारण मुख्य रूप से यह था कि भोजपुरी के विभिन्न अंचलों में विभिन्न नाट्य परम्पराओं के प्रत्यक्ष अनुभव और लोक-कलाकारों के प्रत्यक्ष साक्षात्कार के बिना ही कुछ सुनी-सुनाई और लिखी लिखाई बातों के आधार पर जो कृतियाँ प्रस्तुत हुई, उनमें अधकचरे ज्ञान और अपूर्ण विवरण, अनुमान और अप्रमाणिक तथ्यों की मात्रा अधिक दिखाई पड़ी। अतः इस विषय में अनुसंधान कार्य की आवश्यकता का अनुभव बहुत दिनों से किया जा रहा था। प्रस्तुत अध्ययन इस क्षेत्र में वैज्ञानिक और यत्किंचित विस्तृत तथा तथ्यमूलक अनुसंधान का विनम्र प्रयास है।

जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है कि इस कार्य के लिए प्रामाणिक अनुभव एवं विभिन्न अंचलों का प्रतिनिधित्व करने वाली पूर्ण सामग्री के अभाव में सम्भव नहीं था। अतः आवश्यकता के अनुसार लेखक ने सामग्री के चयन और भोजपुरी के विभिन्न क्षेत्रीय नाट्य परम्पराओं से सम्बन्धित अभिनयों, अभिनीत विषयों और कलाकारों से प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा अनुभव एवं विवरण प्राप्त करने का कष्टसाध्य कार्य उठाया। सर्वप्रथम इस दुरूह कार्य के सिलसिले में दिभिन्न अंचलों की यात्रा में बड़े ही कटु अनुभव हुए। लोकनाटक मण्डलियों के संचालक तथा कलाकार अपनी पुस्तैनी चीज को लिखाने के लिए तैयार ही नहीं होते थे। उनकी आशंका होती थी कि मेरी चीज को लिखकर तथा प्रचारित कर कहीं मेरी रोजी-रोटी के साधन को छीन न लिया जाय। अपनी कला को गोपनीय रखने की प्रवृत्ति भी लोकनाट्‌यों को लिपिबद्ध करने में बाधक सिद्ध हुई। लोकनाट्यों के साथ एक बड़ी कठिनाई यह है कि प्रत्येक बार अभिनय करते समय मूल कथावस्तु के अलावा अवान्तर बातें आती रहती हैं। प्रदर्शन की शैली में भी बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है। इसलिए लोक-कलाकार नाटकों को लिपिबद्ध कराने में असमर्थता व्यक्त करते हैं। उनके नाटकीय प्रदर्शन में परिवर्तन की इस प्रवृत्ति के नाते निश्चित आकार में लिपिबद्ध कर पाना मेंढक के तौल के समान दुरुह कार्य है। पुनः एक दूसरी बात यह है कि यदि किसी प्रदर्शन में कलाकार पाँच हैं तो प्रत्येक को केवल अपनी ही बात मालूम है। प्रत्येक कलाकार दूर-दूर गाँवों के रहने वाले हैं, ऐसी स्थिति में प्रत्येक कलाकार से साक्षात्कार कर पाना सरल काम नहीं है। भोजपुरी के अधिकांश लोकनाट्‌यों के बहुत से प्रसंग अश्लील एवं भद्दे हैं। इन फूहड़ और अश्लील बातों को किसी अजनबी व्यक्ति के सामने लिखाने में संकोच करना स्वाभाविक है। प्रदर्शन स्थल पर जाकर कलाकारों से सम्पर्क करके लिख पाना भी अपने में कम कष्टसाध्य कार्य नहीं है, क्योंकि विवरण लेखक बाराती और घराती की ओर से आमंत्रित न होने के कारण उपेक्षित रह जाय तो क्या आश्चर्य। देहातों में प्रदर्शन प्रायः मशाल की रोशनी में होता है, अतः वार्ताओं को लिखने के लिए टार्च की रोशनी या माचिश खुरचने के अलावा कोई अन्य चारा ही नहीं।

लोक-कलाकार प्रदर्शन करते समय मूल कथावस्तु में अपनी बहुत सी सामग्री जोड़ देते हैं। केवल कथावस्तु में ही नहीं, पात्रों-चरित्रों तथा अवान्तर प्रसंगों के कारण अत्यधिक फेर फार हो जाने से न तो कथा का तारतम्य और न चरित्र के संगठन का पता चलता था। एक नाटक को कई बार देखने से यह सहज ही ज्ञात हो जायेगा कि प्रत्येक बार कितना परिवर्तन और मूल कथावस्तु में कितना फेरफार हो गया है। विदूषक की बात बिल्कुल बेसिर-पैर की होती है, उसको सुनने के लिए ही बहुत धैर्य की आवश्यकता है, फिर लिखना असम्भव ही है।

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