पुस्तक के विषय में
प्रात:स्मरणीय महामहोपाध्याय डॉ० पं० गोपीनाथ कविराजजी के उपदेश- वाक्यों तथा लेखों के अनुवाद का यह संग्रह एक प्रकार से भले ही क्रमबद्ध रूप से विषय की आलोचना का रूप न ले सके, तथापि इसकी प्रत्येक पंक्ति में अगम पथ का सन्धान मिलता रहता है। यहाँ पथ का तात्पर्य आन्तरिक पथ है। बाह्य पथ यह संसार है। सम्पूर्ण संसार में से हमारी इस पृथ्वी का चक्रमण मनुष्य द्वारा साध्य है। आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से इस विशाल पृथ्वी का प्रसार हम नाप लेते हैं। उसकी परिक्रमा अनायास कर लेते हैं। वह सब एक पथ का आश्रय लेने से होता है। परन्तु अन्तर्जगत् जो हमारे अस्तित्व में स्थित है, वह भले ही इस साढ़े तीन हाथ की देह का जगत् हो, वह आज भी हमारे लिए अज्ञात है। क्योंकि उसमें प्रवेश करने का कोई पथ खोजे भी नहीं मिलता। हजारों-हजारों किलोमीटर की इस भूमण्डल की परिक्रमा उतनी कठिन नहीं है, जितना कठिन है इस अन्तर्जगत् के पथ पर एक बिन्दु भी अग्रसर हो सकना! हम बाह्य जगत् में गुरुत्वाकर्षण तथा वायुमण्डल के अवरोध को पार करते हुए उसमें भले ही आगे बढ़ते चले जाते हैं, परन्तु अन्तर्जगत् के मध्याकर्षण से पार पा सकना विज्ञान के लिए भी दुःष्कर है। 'बलादाकृष्य मोहाय' मोहरूपी मध्याकर्षण बलात् आकृष्ट करके हमें पथ के आरम्भ में ही पटक देता है। हम इस दुरन्त अवरोध से, मध्याकर्षण से छुटकारा पाये बिना अन्तर्जगत् में कैसे अग्रसर हो सकते हैं? अत: इसके लिए पहले साधन के नेत्र पाना होगा, मध्याकर्षण से मुक्ति का उपाय पाना होगा, तभी हम कालान्तर में अन्तर्जगत् के अज्ञात पथ पर आगे बढ़ सकते हैं।
इस ग्रन्थ में ऐसा ही कुछ दिशा-निर्देश है। पहले साधनपथ पर चलना तदनन्तर अन्तःपथ ढूँढना। अथवा कृपा पाकर दोनों पर ही युगपत रूप से एक साथ भी-चालान हो सकता है । इसका स्वरूप कृपा सापेक्ष है। गुरुकृपा, भगवत्कृपा तथा शास्त्रकृपा भगवत्कृपा का कोई नियम नहीं है वह अहेतुकी है। गुरुकृपा आज के परिवेश में और भी दुष्कर हो गई है। सद्गुरु का पता नहीं चलता, वैसे तो गुरु नगर-नगर, गली-गली। भरे पड़े हैं! त्रेता, द्वापर तथा सत्ययुग में भी इतने गुरु नहीं रहे होंगे! परन्तु सद्गुरु? अन्त में बचती है शास्त्रकृपा। सत्शास्त्र वह है जिसे स्वानुभूति से लिखा,बताया, सुनाया गया हो। केवल शब्दों का जाल न हो। जिसमें 'आँखिन की देखी' हो। इस सन्दर्भ में पूज्य कविराजजी की वाणी पर किसे सन्देह हो? है? कई बार पूछा गया-' ' आप जो कहते हैं, वह तो उपलब्ध शास्त्रों में सहे है। सब आप यह सब कहाँ से बतलाते हैं? ''धीर गम्भीर स्वर में उनका उत्तर था-'' मैं जो सामने देखता हूँ वह कहता हूँ। कहते समय भी वह मेरे नेत्रों के सामने प्रतिच्छवित होता रहता है ।'' और ऐसा उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ 'श्रीकृष्ण प्रसंग' में स्पष्ट झलकता है । यह 'साधनपथ' तथा इसमें प्रतिपाद्य प्रत्येक विषय प्रत्यक्ष पर आधारित हैं। स्वानुभूत सत्य हैं। अत: शास्त्र हैं। इसलिए इसके अनुशीलन अध्ययन से शास्त्रकृपा प्राप्त हो जाती है। जो इस अनुभूति-सागर में जितना गोता लगा सकेगा, वह उतने ही रत्न का, कृपारूपी मुक्ता का आहरण कर सकेगा। यह नि:सन्दिग्ध है।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विश्वविद्यालय प्रकाशन के प्रबन्धन द्वारा जो तत्परता प्रदर्शित की गई है, वह स्तुत्य है। इस संस्थान के संस्थापक ब्रह्मलीन पुरुषोत्तमदास मोदीजी की पूज्य कविराजजी तथा उनके कृतित्व के प्रति अगाध श्रद्धा तथा अनुरक्ति का मैंने स्वयं परिचय पाया था। इस कारण मेरा भी प्रयत्न है कि कविराजजी तथा उनके गुरुगण से सम्बन्धित साहित्य इसी संस्थान से आत्मप्रकाश करें। 'अभक्तो नैव दातव्य'। जो केवल व्यावसायिक दृष्टि से इन सबका प्रकाशन करना चाहते हैं, अन्त: श्रद्धा से रहित हैं, वहाँ ऐसे ग्रन्थ देना मैंने अब उचित नहीं समझा, यद्यपि पूर्वकाल में ऐसी त्रुटि कर चुका हूँ।
विषयानुक्रमणिका |
||
1 |
रामनाम साधन |
1 |
2 |
स्वरूप प्राप्ति का मार्ग |
5 |
3 |
मानव का परम लक्ष्य |
8 |
4 |
कृपा तथा उपाय का सामरस्य |
12 |
5 |
प्रकाश का त्रिस्तर |
20 |
6 |
अर्द्धमात्रा का रहस्य |
24 |
7 |
अन्तरंगाशक्ति की क्रीड़ा-जीवोदय |
26 |
8 |
योगमार्ग |
29 |
9 |
गुरुतत्व |
34 |
10 |
मन्त्र विज्ञान का दृष्टिकोण |
40 |
11 |
चक्ररहस्य |
43 |
12 |
भक्तिसाधना प्रसंग |
46 |
13 |
षट्चक्र भेदन |
50 |
14 |
भगवत् स्मृति |
55 |
15 |
योग विभूति |
61 |
16 |
प्रत्यभिज्ञा दर्शन |
67 |
17 |
महाज्ञान का अवतरण |
90 |
18 |
कौल साधना |
95 |
19 |
साधनपथ |
98 |
20 |
योग-प्रसंग |
106 |
21 |
आनन्द रहस्य |
110 |
22 |
अभिषेक रहस्य |
112 |
23 |
भाव- आचार तथा पूजा |
114 |
24 |
कालीरहस्य |
116 |
25 |
भगवत्-प्राप्ति सोपान |
119 |
26 |
जप- ध्यान का रहस्य |
122 |
27 |
'माँ' |
125 |
28 |
मातृ प्रसङ्ग |
131 |
29 |
साधना का प्रारूप |
136 |
30 |
पत्र-संग्रह |
140 |
पुस्तक के विषय में
प्रात:स्मरणीय महामहोपाध्याय डॉ० पं० गोपीनाथ कविराजजी के उपदेश- वाक्यों तथा लेखों के अनुवाद का यह संग्रह एक प्रकार से भले ही क्रमबद्ध रूप से विषय की आलोचना का रूप न ले सके, तथापि इसकी प्रत्येक पंक्ति में अगम पथ का सन्धान मिलता रहता है। यहाँ पथ का तात्पर्य आन्तरिक पथ है। बाह्य पथ यह संसार है। सम्पूर्ण संसार में से हमारी इस पृथ्वी का चक्रमण मनुष्य द्वारा साध्य है। आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से इस विशाल पृथ्वी का प्रसार हम नाप लेते हैं। उसकी परिक्रमा अनायास कर लेते हैं। वह सब एक पथ का आश्रय लेने से होता है। परन्तु अन्तर्जगत् जो हमारे अस्तित्व में स्थित है, वह भले ही इस साढ़े तीन हाथ की देह का जगत् हो, वह आज भी हमारे लिए अज्ञात है। क्योंकि उसमें प्रवेश करने का कोई पथ खोजे भी नहीं मिलता। हजारों-हजारों किलोमीटर की इस भूमण्डल की परिक्रमा उतनी कठिन नहीं है, जितना कठिन है इस अन्तर्जगत् के पथ पर एक बिन्दु भी अग्रसर हो सकना! हम बाह्य जगत् में गुरुत्वाकर्षण तथा वायुमण्डल के अवरोध को पार करते हुए उसमें भले ही आगे बढ़ते चले जाते हैं, परन्तु अन्तर्जगत् के मध्याकर्षण से पार पा सकना विज्ञान के लिए भी दुःष्कर है। 'बलादाकृष्य मोहाय' मोहरूपी मध्याकर्षण बलात् आकृष्ट करके हमें पथ के आरम्भ में ही पटक देता है। हम इस दुरन्त अवरोध से, मध्याकर्षण से छुटकारा पाये बिना अन्तर्जगत् में कैसे अग्रसर हो सकते हैं? अत: इसके लिए पहले साधन के नेत्र पाना होगा, मध्याकर्षण से मुक्ति का उपाय पाना होगा, तभी हम कालान्तर में अन्तर्जगत् के अज्ञात पथ पर आगे बढ़ सकते हैं।
इस ग्रन्थ में ऐसा ही कुछ दिशा-निर्देश है। पहले साधनपथ पर चलना तदनन्तर अन्तःपथ ढूँढना। अथवा कृपा पाकर दोनों पर ही युगपत रूप से एक साथ भी-चालान हो सकता है । इसका स्वरूप कृपा सापेक्ष है। गुरुकृपा, भगवत्कृपा तथा शास्त्रकृपा भगवत्कृपा का कोई नियम नहीं है वह अहेतुकी है। गुरुकृपा आज के परिवेश में और भी दुष्कर हो गई है। सद्गुरु का पता नहीं चलता, वैसे तो गुरु नगर-नगर, गली-गली। भरे पड़े हैं! त्रेता, द्वापर तथा सत्ययुग में भी इतने गुरु नहीं रहे होंगे! परन्तु सद्गुरु? अन्त में बचती है शास्त्रकृपा। सत्शास्त्र वह है जिसे स्वानुभूति से लिखा,बताया, सुनाया गया हो। केवल शब्दों का जाल न हो। जिसमें 'आँखिन की देखी' हो। इस सन्दर्भ में पूज्य कविराजजी की वाणी पर किसे सन्देह हो? है? कई बार पूछा गया-' ' आप जो कहते हैं, वह तो उपलब्ध शास्त्रों में सहे है। सब आप यह सब कहाँ से बतलाते हैं? ''धीर गम्भीर स्वर में उनका उत्तर था-'' मैं जो सामने देखता हूँ वह कहता हूँ। कहते समय भी वह मेरे नेत्रों के सामने प्रतिच्छवित होता रहता है ।'' और ऐसा उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ 'श्रीकृष्ण प्रसंग' में स्पष्ट झलकता है । यह 'साधनपथ' तथा इसमें प्रतिपाद्य प्रत्येक विषय प्रत्यक्ष पर आधारित हैं। स्वानुभूत सत्य हैं। अत: शास्त्र हैं। इसलिए इसके अनुशीलन अध्ययन से शास्त्रकृपा प्राप्त हो जाती है। जो इस अनुभूति-सागर में जितना गोता लगा सकेगा, वह उतने ही रत्न का, कृपारूपी मुक्ता का आहरण कर सकेगा। यह नि:सन्दिग्ध है।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन में विश्वविद्यालय प्रकाशन के प्रबन्धन द्वारा जो तत्परता प्रदर्शित की गई है, वह स्तुत्य है। इस संस्थान के संस्थापक ब्रह्मलीन पुरुषोत्तमदास मोदीजी की पूज्य कविराजजी तथा उनके कृतित्व के प्रति अगाध श्रद्धा तथा अनुरक्ति का मैंने स्वयं परिचय पाया था। इस कारण मेरा भी प्रयत्न है कि कविराजजी तथा उनके गुरुगण से सम्बन्धित साहित्य इसी संस्थान से आत्मप्रकाश करें। 'अभक्तो नैव दातव्य'। जो केवल व्यावसायिक दृष्टि से इन सबका प्रकाशन करना चाहते हैं, अन्त: श्रद्धा से रहित हैं, वहाँ ऐसे ग्रन्थ देना मैंने अब उचित नहीं समझा, यद्यपि पूर्वकाल में ऐसी त्रुटि कर चुका हूँ।
विषयानुक्रमणिका |
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1 |
रामनाम साधन |
1 |
2 |
स्वरूप प्राप्ति का मार्ग |
5 |
3 |
मानव का परम लक्ष्य |
8 |
4 |
कृपा तथा उपाय का सामरस्य |
12 |
5 |
प्रकाश का त्रिस्तर |
20 |
6 |
अर्द्धमात्रा का रहस्य |
24 |
7 |
अन्तरंगाशक्ति की क्रीड़ा-जीवोदय |
26 |
8 |
योगमार्ग |
29 |
9 |
गुरुतत्व |
34 |
10 |
मन्त्र विज्ञान का दृष्टिकोण |
40 |
11 |
चक्ररहस्य |
43 |
12 |
भक्तिसाधना प्रसंग |
46 |
13 |
षट्चक्र भेदन |
50 |
14 |
भगवत् स्मृति |
55 |
15 |
योग विभूति |
61 |
16 |
प्रत्यभिज्ञा दर्शन |
67 |
17 |
महाज्ञान का अवतरण |
90 |
18 |
कौल साधना |
95 |
19 |
साधनपथ |
98 |
20 |
योग-प्रसंग |
106 |
21 |
आनन्द रहस्य |
110 |
22 |
अभिषेक रहस्य |
112 |
23 |
भाव- आचार तथा पूजा |
114 |
24 |
कालीरहस्य |
116 |
25 |
भगवत्-प्राप्ति सोपान |
119 |
26 |
जप- ध्यान का रहस्य |
122 |
27 |
'माँ' |
125 |
28 |
मातृ प्रसङ्ग |
131 |
29 |
साधना का प्रारूप |
136 |
30 |
पत्र-संग्रह |
140 |