उनके बारे में
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी से मेरा सम्बन्ध उस समय हुआ, जब मैं मात्र ग्यारह वर्ष का था और मेरे पूज्य पिता जी, जो गुरुदेव के गृहस्थ शिष्य थे, ने मुझे गुरुदेव के हाथों में सौंपते हुए कहा था, 'यह भले ही मेरा पुत्र हो, पर आज मैं आपके हाथों में सौंपते हुए निश्चिन्त हूं कि आपकी कृपा से यह अचिन्त्य महाशक्ति का एक कण बन सकेगा ।'' तब से गुरुदेव की कृपादृष्टि मुझ पर सदैव बनी रही ।
उनके सान्निध्य में साधकों के प्रति उनका कठोर रूप देखने का अवसर मिला । साधना के क्षेत्र में उन्होंने किसी भी प्रकार की शिथिलता बर्दाश्त नहीं की । हिमालय में उन्हें पैदल ही दुर्गम स्थानों में विचरण करते हुए मैंने देखा । बर्फीले तूफ़ानों में भी अडिग आगे बढ़ते हुए मैंने पाया। कठिन-से-कठिन चुनौती से जूझते हुए अनुभव किया और बाधाएं आने पर मुस्कुराते हुए उनसे पार पाने की क्षमता उनमें अनुभव की । वास्तव में ही योगीराज का प्रत्येक रूप अपने-आप में समर्थ, सशक्त एवं सफल रहा । हिमालय की गुप्त और लुप्त साधनाओं के वे अग्रदूत माने गए। उन्होंने अकेले जितना काम किया है, उतना कार्य सैकड़ों संस्थाएं भी मिलकर नहीं कर सकतीं । तन्त्र, मन्त्र, योग, दर्शन, आयुर्वेद सभी क्षेत्रों में अद्वितीय रहे । योगीराज वर्तमान युग के सही अर्थों में मन्त्र-स्रष्टा तथा तत्त्व चिन्तक के रूप में जाने गए । भारतीय ऋषियों और मनीषियों की उदात्त परम्परा की एक शाश्वत अचिन्त्य कड़ी, जिसके आलोक में वर्तमान और भावी पीढी अपना पथ देख रही है ।
योगीराज तपोबल के प्रेरणा-पुंज रहे । उनका सम्पूर्ण जीवन दु:ख, परेशानियों, बाधाओं, आलोचनाओं और समस्याओं की तीव्र ज्वाला में सन्तप्त होकर भी निखरा । वह जीवन के सुखों को छोड्कर कष्ट, अभाव एवं बाधाओं के कंटकाकीर्ण पथ पर अग्रसर हुए । जीवन-भर गृहस्थ में रहते हुए भी सही अर्थों में विदेह रहे । परम पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी गृहस्थ रूप में नारायणदत्त श्रीमाली के नाम से देश-देशान्तर में ख्यात हुए । अत्यन्त साधारण गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने यथासम्भव अपने को प्रकट किया । यह वास्तव में गौरवमय है कि हम उनके चरणों में बेठकर अपने पूर्वजों की थाती को देख सके, सीख सके, समझ सके और हृदयंगम कर सके । यह हमारे जीवन का सौभाग्य होगा।
मेरा विचार है कि मैं छ: खंडों में गुरुदेव से सम्बन्धित संस्मरणों को साकार कर सकूं । इस पुस्तक पर मैंने गुरुदेव का नाम देना अपना अधिकार समझा । मुझे विश्वास है कि यह ग्रन्थ साधकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह बराबर पथ-प्रदर्शन करता रहेगा ।
अन्दर के पृष्ठों में |
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1 |
उनके बारे में... |
7 |
2 |
सद्गुरुदेव नारायणदत्त श्रीमाली की ज्ञान-यात्रा |
9 |
3 |
नमन |
13 |
4 |
गणपति स्तवन |
24 |
5 |
परकाया प्रवेश |
42 |
6 |
योग और स्वास्थ्य |
59 |
7 |
काशी के नीचे काशी |
75 |
8 |
सिद्धाश्रम-सम्बन्ध |
80 |
9 |
इच्छाशक्ति और सिद्धियां |
90 |
10 |
काली दर्शन |
98 |
11 |
योग विद्या |
102 |
12 |
साधनाएं |
110 |
13 |
सिद्धि साध्य |
134 |
14 |
पारदेश्वर |
140 |
15 |
अन्नपूर्णा साधना |
145 |
16 |
सिद्धि-देह |
151 |
उनके बारे में
स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी से मेरा सम्बन्ध उस समय हुआ, जब मैं मात्र ग्यारह वर्ष का था और मेरे पूज्य पिता जी, जो गुरुदेव के गृहस्थ शिष्य थे, ने मुझे गुरुदेव के हाथों में सौंपते हुए कहा था, 'यह भले ही मेरा पुत्र हो, पर आज मैं आपके हाथों में सौंपते हुए निश्चिन्त हूं कि आपकी कृपा से यह अचिन्त्य महाशक्ति का एक कण बन सकेगा ।'' तब से गुरुदेव की कृपादृष्टि मुझ पर सदैव बनी रही ।
उनके सान्निध्य में साधकों के प्रति उनका कठोर रूप देखने का अवसर मिला । साधना के क्षेत्र में उन्होंने किसी भी प्रकार की शिथिलता बर्दाश्त नहीं की । हिमालय में उन्हें पैदल ही दुर्गम स्थानों में विचरण करते हुए मैंने देखा । बर्फीले तूफ़ानों में भी अडिग आगे बढ़ते हुए मैंने पाया। कठिन-से-कठिन चुनौती से जूझते हुए अनुभव किया और बाधाएं आने पर मुस्कुराते हुए उनसे पार पाने की क्षमता उनमें अनुभव की । वास्तव में ही योगीराज का प्रत्येक रूप अपने-आप में समर्थ, सशक्त एवं सफल रहा । हिमालय की गुप्त और लुप्त साधनाओं के वे अग्रदूत माने गए। उन्होंने अकेले जितना काम किया है, उतना कार्य सैकड़ों संस्थाएं भी मिलकर नहीं कर सकतीं । तन्त्र, मन्त्र, योग, दर्शन, आयुर्वेद सभी क्षेत्रों में अद्वितीय रहे । योगीराज वर्तमान युग के सही अर्थों में मन्त्र-स्रष्टा तथा तत्त्व चिन्तक के रूप में जाने गए । भारतीय ऋषियों और मनीषियों की उदात्त परम्परा की एक शाश्वत अचिन्त्य कड़ी, जिसके आलोक में वर्तमान और भावी पीढी अपना पथ देख रही है ।
योगीराज तपोबल के प्रेरणा-पुंज रहे । उनका सम्पूर्ण जीवन दु:ख, परेशानियों, बाधाओं, आलोचनाओं और समस्याओं की तीव्र ज्वाला में सन्तप्त होकर भी निखरा । वह जीवन के सुखों को छोड्कर कष्ट, अभाव एवं बाधाओं के कंटकाकीर्ण पथ पर अग्रसर हुए । जीवन-भर गृहस्थ में रहते हुए भी सही अर्थों में विदेह रहे । परम पूज्य निखिलेश्वरानन्द जी गृहस्थ रूप में नारायणदत्त श्रीमाली के नाम से देश-देशान्तर में ख्यात हुए । अत्यन्त साधारण गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने यथासम्भव अपने को प्रकट किया । यह वास्तव में गौरवमय है कि हम उनके चरणों में बेठकर अपने पूर्वजों की थाती को देख सके, सीख सके, समझ सके और हृदयंगम कर सके । यह हमारे जीवन का सौभाग्य होगा।
मेरा विचार है कि मैं छ: खंडों में गुरुदेव से सम्बन्धित संस्मरणों को साकार कर सकूं । इस पुस्तक पर मैंने गुरुदेव का नाम देना अपना अधिकार समझा । मुझे विश्वास है कि यह ग्रन्थ साधकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह बराबर पथ-प्रदर्शन करता रहेगा ।
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सद्गुरुदेव नारायणदत्त श्रीमाली की ज्ञान-यात्रा |
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नमन |
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गणपति स्तवन |
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परकाया प्रवेश |
42 |
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योग और स्वास्थ्य |
59 |
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काशी के नीचे काशी |
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सिद्धाश्रम-सम्बन्ध |
80 |
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इच्छाशक्ति और सिद्धियां |
90 |
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काली दर्शन |
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योग विद्या |
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साधनाएं |
110 |
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सिद्धि साध्य |
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पारदेश्वर |
140 |
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अन्नपूर्णा साधना |
145 |
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सिद्धि-देह |
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