पुस्तक के विषय में
सूफ़ियों के अनुसार ईश्वर, खुदा, रब एक ही है। उसी ने सृष्टि की रचना की है। वह सर्वव्यापक है। वह सभी के दिलों में बसता है। मनुष्य में इश्क या प्रेम खुदा ने जन्म से ही भर दिए हैं और इश्क के दो पहलू माने गए हैं । पहला मजाजी इश्क और दूसरा हकीकीया रूहानी । मजाजी इश्क ही रूहानी, हकीकी इश्क की सीढ़ी का पहला पायदान है। सूफ़ीवाद या मत की आधारशिला इस्लाम के महान पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहिब के चिंतन का फलसफ़ा है। आपका जन्म अरब देश में हुआ और उनका पूरा जीवन, शिक्षा, संदेश, उपदेश, लोगों को खुदा के व उसकी कायनात के बारे में जानने व समझाने में गुजरा । उनके विचार, चिंतन ही सूफ़ीमत के मूल आधार बने । सूफ़ीमत मध्य पूरबी देशों ईरान, सीरिया, मिश्र, इराक आदि में धीरे-धीरे विकसित हुआ । समय के साथ-साथ इस्लाम का संस्थायी रूप रूढिवादी होता गया और उसके विरोध में सूफ़ीमत पे और सुदृढ़ होता गया । सूफ़ीमत का केंद्रीय उद्देश्य इस्लाम की मूल मानववादी भावना को उभारकर हर तरह की कट्टरता से बचना था । सूफ़ीवाद ने कुरान के मूल आध्यात्मिक व रहस्यवादी मार्ग को दर्शाया है।
लेखक के विषय में
जन्म : 25 अप्रैल, न पथ, कोयटा, ब्लूनिस्तान (पाकिस्तान) प्रकाशित काव्य-संग्रह।
हिंदी : दरवाजे गिरवी रखे हैं, टुकड़ा-टुकड़ा ख़्याल, अपनी- अपनी ज़मीन पर, पहला-पहला दुःख।
पंजाबी : दस्तक, बदलां ते लिखी इबारत, रूदाद।
प्रकाशकीय
भारतीय साहित्य में सूफ़ी कवियों ने प्रेमतत्त्व का वर्णन करते हुए प्रेम-पंथ का प्रवर्जन किया । सूफ़ियों का विश्वास एकेश्वरवाद में है। यहाँ अस्तित्व केवल परमात्मा है। वह प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। सूफ़ी साधक का मुख्य कर्तव्य ध्यान और समाधि है, प्रार्थना और नामस्मरण है, फकीरी के फक्कड़पन में है। सभी तरह की धार्मिकता और नैतिकता का आधार प्रेम है। प्रेम के बिना धर्म और नीति निर्जीव हो जाते हैं । साधक यहाँ ईश्वर की कल्पना परमसुंदरी नारी के रूप में करता है। इस तरह सूफ़ीमत में ईश्वर साकार सौंदर्य है और साधक साकार प्रेम । विशेष बात यह है कि सूफ़ी संप्रदाय में राबिया जैसी साधिकाएँ भी हुई हैं जो ईश्वर को पति मानती हैं। इस तरह सूफ़ी-प्रेमपंथ में विचारों की स्वाधीनता है। सौंदर्य से प्रेम और प्रेम से मुक्ति, यह सूफ़ीमत के सिद्धांतों का सार सर्वस्व है। इसी प्रेम की प्राप्ति के लिए सूफ़ियों ने इश्क मजाजी (लौकिक प्रेम) तथा इश्क हकीकी (अलौकिक प्रेम) का दर्शन प्रस्तुत किया । 'बका' से 'फना' हो जाना ही 'मोक्ष' है।
सूफ़ीमत के उद्गम चाहे अन्य देशों में रहे हों किंतु संप्रदाय के रूप में उसका संगठन इस्लामी देशों में हुआ । अरब के नगरों में यहूदी, ईसाईयत, हिंदुत्व, बौद्धमत और इस्लाम इन सभी धर्मों का मिलन हुआ था । इस्लाम का संपर्क ईरान में जरथुस्त्रवाद से भी हुआ । सूफ़ीमत इनका योग तो नहीं है, किंतु उस पर इन सभी का प्रभाव है। सूफ़ीमत न तो क़ुरान की व्याख्या है न हदीस की । वह एक सांप्रदायिक मानव- धर्म है। सूफ़ी संत काजियों-मुल्लाओं की नजर में काफ़िर समझे जाते हैं और उन्हें प्राण-दंड तक दिए गए जैसे-सूफ़ी साधक मंसूर । भारत में सरमद नामक सूफ़ी को औरंगजेब ने मरवा दिया । तमाम तरह के उत्पीडनों से बचने के लिए अरब-ईरान के सूफ़ी भारत आते रहे । मुहम्मद गजनी के आक्रमण के बाद तो सूफ़ियों का आना आम बात हो गई । भारत में सूफ़ियों के चार संप्रदाय प्रसिद्ध हुए-1. सुहरावर्दी-संप्रदाय जिसके प्रवर्तक जियाउद्दीन (12वीं सदी) थे । 2. चिश्तिया-संप्रदाय जिसके प्रवर्तक अदब अब्दुल्ला चिश्ती थे। 3. कादरिया-संपद्राय इसके प्रवर्तक शेख अब्दुल कादिर जिलानी (13वीं शताब्दी) थे । 4. नक्शबंदी- संप्रदाय जिसके प्रवर्तक बहाउद्दीन नक्शबंद थे । शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह कादरी संप्रदाय में दीक्षित था ।
भारत में सूफ़ी संतों-फकीरों ने तसव्वुफ़ की राह से हिंदुओं और मुसलमानों को समीप लाने का आदोलन चलाया । इसका प्रभाव जनता पर अच्छा पड़ा और उनके प्रेम-पंथ से रीझकर जनता उनका साथ देने लगी । सूफ़ियों से अलग एक तरह के फकीर होते थे जो कलंदर कहलाते थे । ये संप्रदाय न बनाकर मोक्ष की तलाश में घूमते थे। सूफ़ियों तथा कलंदरों के प्रभाव से भारत में इस्लाम का रूप बदल गया। इस्लाम कट्टर धर्म था। वह अब जटिल भक्ति मार्ग बन गया, उसमें योग, चमत्कार, भजन, कव्वाली, पीरों की पूजा और भारत की न जाने कितनी चीजों का प्रवेश हो गया। भारत में आकर गुरु परंपरा का जोर बढ़ा और दक्षिण से आया उत्तर भारत में भक्ति-आंदोलन भी इस्लाम और सूफ़ियों को बदलने लगा। मुस्लिम सूफ़ी संतों में शत्रुता का भाव नहीं, जैसे-संत फरीदी। हृदय में प्रेम की पीर जगाकर इन सूफ़ी कवियों ने मानवता का नया पथ ही जनता के लिए खोल दिया। सूफ़ी संत धर्म के आडंबरों-अनुष्ठानों की उपेक्षा करते थे। उनका सारा विद्रोही चिंतन प्रेम और परमात्मा की भक्ति पर था। इसलिए इस्लाम के मुल्ले उनके खिलाफ थे। इन सूफ़ी प्रेमपंथ से जनता की चित्तवृत्ति भेद से अभेद की ओर हो चली। मुसलमान हिंदुओं की रामकहानी सुनने को तैयार होने लगे और हिंदू मुसलमानों की दास्ताने-हमजा। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच साधुता का सामान्य आदर्श प्रतिष्ठित हो गया। मुसलमान फकीर अहिंसा का सिद्धांत मानने लगे । अमीर खुसरो नई तरह का मसनवी में रचना कर उठे। इस तरह सूफ़ी-धर्म भारत में रोज़ा और नमाज़ में बँधकर चलनेवाला धर्म न रहा। संतों ने नया लोकधर्म स्थापित किया, जिसने पुरोहितों-मौलवियों को कबीर-स्वर में ललकारा। सामंती-वर्ग को कमजोर किया।
सूफ़ी कवि बुल्लेशाह को इसी लोक- धर्म की क्रांतिकारी चिंतनधारा में समझना होगा। सूफ़ी लोग सूफ (ऊन) की पोशाक धारण करते थे, यह सूफ़ी शब्द अरबी भाषा का है जिसका अर्थ है-ऊन। सूफ़ी संत बुल्लेशाह की काफ़ियाँ इकतारे पर गाई जाती है। यह सूफ़ी संगीत की दिव्यधारा है जो समस्त विकृतियों का नाश करती है। पंजाब की सूफ़ीसंत धारा शेख फरीदी (1173-1245), शाह हुसैन (1538-1600), शाहसरफ (1663-1724), अली हैदर (1101-1190), बुल्लेशाह ( 1680-1752), फरदफकीर (1720-1790), वारिश शाह (1735-1840), हाशिम शाह (1751-1827) आदि कवियों में तीन दशकों तक प्रवाहित रही । सूफ़ी प्रेम-तत्त्व का यह अमृत आपको उत्तर-आधुनिकता के बेचैन समय में चैन दे, यह सोचकर ही यह पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। मुझे विश्वास है कि विशाल पाठक समुदाय इसका स्वागत करेगा । मानव जीवन के इस अमृत को छोड़ना कोई नहीं चाहेगा ।
विषय-सूची
1 | दो शब्द | 15 |
2 | बुल्लेशाह : पंजाब का सूफ़ी कवि | 17 |
3 | जब की मैं हरि सिंउ प्रति लगाई वे | 33 |
4 | अब लगन लग्गी किह करीए | 36 |
5 | रब्बा वे मैं की करसां उठ चले गवाडों यार | 38 |
6 | ख़ाकी ख़ाक में रलि जाण। | 39 |
7 | मैं बे क़ैद, मैं बे क़ैद | 41 |
8 | आपणी किछु खबर न पईआं | 42 |
9 | मुरली बाज उठी अणघातां | 43 |
10 | मैनूं लगड़ा इश्क अव्वल दा | 45 |
11 | प्यारे! बिन मसल्हत उठ जाणा | 47 |
12 | अब हम गुम हुआ हम तुम | 49 |
13 | की करदा हुणि की करदा | 51 |
14 | मैनूं की होइआ मैथो | 54 |
15 | नी सईओ मेरी बुकल दे विचि चोर | 56 |
16 | ग़लबा होर किसे दा है | 58 |
17 | पिआरिआ संभलके निहुं लाइ | 60 |
18 | हिजाब करे दरवेशी थो | 63 |
19 | तुसी करो असाडी कारी | 66 |
20 | मैं चूहड़ेटड़ीआं | 69 |
21 | अबि तो तूं जाग सउदागरि पिआरे | 70 |
22 | साईं छपि तमासे आइआ | 72 |
23 | की जाणा मैं कोई वे अड़िआ की जाणा मैं कोई | 74 |
24 | मउला आदमी बणिआ | 77 |
25 | इको रूँ इक वाई दा | 79 |
26 | कैंथी आप छपाई दा | 80 |
27 | पाइआ है किछु पाइआ है | 82 |
28 | माटी कुदमु करेंदी यार | 84 |
29 | उलटे होर ज़माने आए | 85 |
30 | जिधर रब दी रजाइ | 87 |
31 | नी मिल लउ सहेलड़ीओ | 88 |
32 | हुण मैंथो राजी रहिणा | 90 |
33 | बसि कर जी हुणि बसि करि जी | 92 |
34 | घड़िआली देह निकाल | 94 |
35 | बुल्ला की जाणा मैं कौण | 96 |
36 | मैं उडीकां कर रही | 98 |
37 | नी सईओ, मैं गई गवाची | 100 |
38 | मक्के गिआं गल मुकदी नाहीं | 101 |
39 | बुले नूं लोक मती देंदे | 102 |
40 | वत्त ना करसां माण | 103 |
41 | इश्क दी नवीओं नवीं बहार | 105 |
42 | हीर रांझण दे हो गए मेले | 107 |
43 | देखो नी की कर गिआ माही | 109 |
44 | मुँह आई बात न रहदीं ए | 111 |
45 | ऐथे लेखा पाओ पसारा ए | 113 |
46 | जे ज़ाहर करां इसरार ताई | 115 |
47 | मेरे नौशहु दा कित मोल | 116 |
48 | मैं वैसा जोगी दे नाल | 117 |
49 | माही नाहीं कोई नूर इलाही | 119 |
50 | दिल लोचे माही यार नूं | 121 |
51 | इक नुक़ते विच गल्ल मुकदी ए | 123 |
52 | इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए | 125 |
53 | मैनूं छड गए आप लद गए | 127 |
54 | कत्त कुड़े ना वत्त कुड़े | 128 |
55 | रांझा रांझा करदी हुण मैं | 131 |
56 | इश्क असां नाल केही कीती लोक मरेंदे ताअने | 133 |
57 | मैं पुछा शहु दीआं वाटां नी | 136 |
58 | रोज़े हज निमाज़ नी माए | 138 |
59 | जुमे दी हीरे होर बहार | 139 |
60 | मैं गल्ल ओथे दी करदा हां | 141 |
61 | मैं पापडिआं तों नस्सना हां | 144 |
62 | मैं किउं कर जावां काअबे नूं | 145 |
63 | मेरा रांझण हुण कोई होर | 147 |
64 | मैनूं दरद अव्वलड़े दी पीड़ | 148 |
65 | साडे वल मुखड़ा मोड़ वे पिआरिया | 149 |
66 | दोहरे | 151 |
67 | अठवारा | 158 |
68 | बारां माह | 167 |
69 | सीहरफ़ीआं | 181 |
पुस्तक के विषय में
सूफ़ियों के अनुसार ईश्वर, खुदा, रब एक ही है। उसी ने सृष्टि की रचना की है। वह सर्वव्यापक है। वह सभी के दिलों में बसता है। मनुष्य में इश्क या प्रेम खुदा ने जन्म से ही भर दिए हैं और इश्क के दो पहलू माने गए हैं । पहला मजाजी इश्क और दूसरा हकीकीया रूहानी । मजाजी इश्क ही रूहानी, हकीकी इश्क की सीढ़ी का पहला पायदान है। सूफ़ीवाद या मत की आधारशिला इस्लाम के महान पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहिब के चिंतन का फलसफ़ा है। आपका जन्म अरब देश में हुआ और उनका पूरा जीवन, शिक्षा, संदेश, उपदेश, लोगों को खुदा के व उसकी कायनात के बारे में जानने व समझाने में गुजरा । उनके विचार, चिंतन ही सूफ़ीमत के मूल आधार बने । सूफ़ीमत मध्य पूरबी देशों ईरान, सीरिया, मिश्र, इराक आदि में धीरे-धीरे विकसित हुआ । समय के साथ-साथ इस्लाम का संस्थायी रूप रूढिवादी होता गया और उसके विरोध में सूफ़ीमत पे और सुदृढ़ होता गया । सूफ़ीमत का केंद्रीय उद्देश्य इस्लाम की मूल मानववादी भावना को उभारकर हर तरह की कट्टरता से बचना था । सूफ़ीवाद ने कुरान के मूल आध्यात्मिक व रहस्यवादी मार्ग को दर्शाया है।
लेखक के विषय में
जन्म : 25 अप्रैल, न पथ, कोयटा, ब्लूनिस्तान (पाकिस्तान) प्रकाशित काव्य-संग्रह।
हिंदी : दरवाजे गिरवी रखे हैं, टुकड़ा-टुकड़ा ख़्याल, अपनी- अपनी ज़मीन पर, पहला-पहला दुःख।
पंजाबी : दस्तक, बदलां ते लिखी इबारत, रूदाद।
प्रकाशकीय
भारतीय साहित्य में सूफ़ी कवियों ने प्रेमतत्त्व का वर्णन करते हुए प्रेम-पंथ का प्रवर्जन किया । सूफ़ियों का विश्वास एकेश्वरवाद में है। यहाँ अस्तित्व केवल परमात्मा है। वह प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। सूफ़ी साधक का मुख्य कर्तव्य ध्यान और समाधि है, प्रार्थना और नामस्मरण है, फकीरी के फक्कड़पन में है। सभी तरह की धार्मिकता और नैतिकता का आधार प्रेम है। प्रेम के बिना धर्म और नीति निर्जीव हो जाते हैं । साधक यहाँ ईश्वर की कल्पना परमसुंदरी नारी के रूप में करता है। इस तरह सूफ़ीमत में ईश्वर साकार सौंदर्य है और साधक साकार प्रेम । विशेष बात यह है कि सूफ़ी संप्रदाय में राबिया जैसी साधिकाएँ भी हुई हैं जो ईश्वर को पति मानती हैं। इस तरह सूफ़ी-प्रेमपंथ में विचारों की स्वाधीनता है। सौंदर्य से प्रेम और प्रेम से मुक्ति, यह सूफ़ीमत के सिद्धांतों का सार सर्वस्व है। इसी प्रेम की प्राप्ति के लिए सूफ़ियों ने इश्क मजाजी (लौकिक प्रेम) तथा इश्क हकीकी (अलौकिक प्रेम) का दर्शन प्रस्तुत किया । 'बका' से 'फना' हो जाना ही 'मोक्ष' है।
सूफ़ीमत के उद्गम चाहे अन्य देशों में रहे हों किंतु संप्रदाय के रूप में उसका संगठन इस्लामी देशों में हुआ । अरब के नगरों में यहूदी, ईसाईयत, हिंदुत्व, बौद्धमत और इस्लाम इन सभी धर्मों का मिलन हुआ था । इस्लाम का संपर्क ईरान में जरथुस्त्रवाद से भी हुआ । सूफ़ीमत इनका योग तो नहीं है, किंतु उस पर इन सभी का प्रभाव है। सूफ़ीमत न तो क़ुरान की व्याख्या है न हदीस की । वह एक सांप्रदायिक मानव- धर्म है। सूफ़ी संत काजियों-मुल्लाओं की नजर में काफ़िर समझे जाते हैं और उन्हें प्राण-दंड तक दिए गए जैसे-सूफ़ी साधक मंसूर । भारत में सरमद नामक सूफ़ी को औरंगजेब ने मरवा दिया । तमाम तरह के उत्पीडनों से बचने के लिए अरब-ईरान के सूफ़ी भारत आते रहे । मुहम्मद गजनी के आक्रमण के बाद तो सूफ़ियों का आना आम बात हो गई । भारत में सूफ़ियों के चार संप्रदाय प्रसिद्ध हुए-1. सुहरावर्दी-संप्रदाय जिसके प्रवर्तक जियाउद्दीन (12वीं सदी) थे । 2. चिश्तिया-संप्रदाय जिसके प्रवर्तक अदब अब्दुल्ला चिश्ती थे। 3. कादरिया-संपद्राय इसके प्रवर्तक शेख अब्दुल कादिर जिलानी (13वीं शताब्दी) थे । 4. नक्शबंदी- संप्रदाय जिसके प्रवर्तक बहाउद्दीन नक्शबंद थे । शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह कादरी संप्रदाय में दीक्षित था ।
भारत में सूफ़ी संतों-फकीरों ने तसव्वुफ़ की राह से हिंदुओं और मुसलमानों को समीप लाने का आदोलन चलाया । इसका प्रभाव जनता पर अच्छा पड़ा और उनके प्रेम-पंथ से रीझकर जनता उनका साथ देने लगी । सूफ़ियों से अलग एक तरह के फकीर होते थे जो कलंदर कहलाते थे । ये संप्रदाय न बनाकर मोक्ष की तलाश में घूमते थे। सूफ़ियों तथा कलंदरों के प्रभाव से भारत में इस्लाम का रूप बदल गया। इस्लाम कट्टर धर्म था। वह अब जटिल भक्ति मार्ग बन गया, उसमें योग, चमत्कार, भजन, कव्वाली, पीरों की पूजा और भारत की न जाने कितनी चीजों का प्रवेश हो गया। भारत में आकर गुरु परंपरा का जोर बढ़ा और दक्षिण से आया उत्तर भारत में भक्ति-आंदोलन भी इस्लाम और सूफ़ियों को बदलने लगा। मुस्लिम सूफ़ी संतों में शत्रुता का भाव नहीं, जैसे-संत फरीदी। हृदय में प्रेम की पीर जगाकर इन सूफ़ी कवियों ने मानवता का नया पथ ही जनता के लिए खोल दिया। सूफ़ी संत धर्म के आडंबरों-अनुष्ठानों की उपेक्षा करते थे। उनका सारा विद्रोही चिंतन प्रेम और परमात्मा की भक्ति पर था। इसलिए इस्लाम के मुल्ले उनके खिलाफ थे। इन सूफ़ी प्रेमपंथ से जनता की चित्तवृत्ति भेद से अभेद की ओर हो चली। मुसलमान हिंदुओं की रामकहानी सुनने को तैयार होने लगे और हिंदू मुसलमानों की दास्ताने-हमजा। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच साधुता का सामान्य आदर्श प्रतिष्ठित हो गया। मुसलमान फकीर अहिंसा का सिद्धांत मानने लगे । अमीर खुसरो नई तरह का मसनवी में रचना कर उठे। इस तरह सूफ़ी-धर्म भारत में रोज़ा और नमाज़ में बँधकर चलनेवाला धर्म न रहा। संतों ने नया लोकधर्म स्थापित किया, जिसने पुरोहितों-मौलवियों को कबीर-स्वर में ललकारा। सामंती-वर्ग को कमजोर किया।
सूफ़ी कवि बुल्लेशाह को इसी लोक- धर्म की क्रांतिकारी चिंतनधारा में समझना होगा। सूफ़ी लोग सूफ (ऊन) की पोशाक धारण करते थे, यह सूफ़ी शब्द अरबी भाषा का है जिसका अर्थ है-ऊन। सूफ़ी संत बुल्लेशाह की काफ़ियाँ इकतारे पर गाई जाती है। यह सूफ़ी संगीत की दिव्यधारा है जो समस्त विकृतियों का नाश करती है। पंजाब की सूफ़ीसंत धारा शेख फरीदी (1173-1245), शाह हुसैन (1538-1600), शाहसरफ (1663-1724), अली हैदर (1101-1190), बुल्लेशाह ( 1680-1752), फरदफकीर (1720-1790), वारिश शाह (1735-1840), हाशिम शाह (1751-1827) आदि कवियों में तीन दशकों तक प्रवाहित रही । सूफ़ी प्रेम-तत्त्व का यह अमृत आपको उत्तर-आधुनिकता के बेचैन समय में चैन दे, यह सोचकर ही यह पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। मुझे विश्वास है कि विशाल पाठक समुदाय इसका स्वागत करेगा । मानव जीवन के इस अमृत को छोड़ना कोई नहीं चाहेगा ।
विषय-सूची
1 | दो शब्द | 15 |
2 | बुल्लेशाह : पंजाब का सूफ़ी कवि | 17 |
3 | जब की मैं हरि सिंउ प्रति लगाई वे | 33 |
4 | अब लगन लग्गी किह करीए | 36 |
5 | रब्बा वे मैं की करसां उठ चले गवाडों यार | 38 |
6 | ख़ाकी ख़ाक में रलि जाण। | 39 |
7 | मैं बे क़ैद, मैं बे क़ैद | 41 |
8 | आपणी किछु खबर न पईआं | 42 |
9 | मुरली बाज उठी अणघातां | 43 |
10 | मैनूं लगड़ा इश्क अव्वल दा | 45 |
11 | प्यारे! बिन मसल्हत उठ जाणा | 47 |
12 | अब हम गुम हुआ हम तुम | 49 |
13 | की करदा हुणि की करदा | 51 |
14 | मैनूं की होइआ मैथो | 54 |
15 | नी सईओ मेरी बुकल दे विचि चोर | 56 |
16 | ग़लबा होर किसे दा है | 58 |
17 | पिआरिआ संभलके निहुं लाइ | 60 |
18 | हिजाब करे दरवेशी थो | 63 |
19 | तुसी करो असाडी कारी | 66 |
20 | मैं चूहड़ेटड़ीआं | 69 |
21 | अबि तो तूं जाग सउदागरि पिआरे | 70 |
22 | साईं छपि तमासे आइआ | 72 |
23 | की जाणा मैं कोई वे अड़िआ की जाणा मैं कोई | 74 |
24 | मउला आदमी बणिआ | 77 |
25 | इको रूँ इक वाई दा | 79 |
26 | कैंथी आप छपाई दा | 80 |
27 | पाइआ है किछु पाइआ है | 82 |
28 | माटी कुदमु करेंदी यार | 84 |
29 | उलटे होर ज़माने आए | 85 |
30 | जिधर रब दी रजाइ | 87 |
31 | नी मिल लउ सहेलड़ीओ | 88 |
32 | हुण मैंथो राजी रहिणा | 90 |
33 | बसि कर जी हुणि बसि करि जी | 92 |
34 | घड़िआली देह निकाल | 94 |
35 | बुल्ला की जाणा मैं कौण | 96 |
36 | मैं उडीकां कर रही | 98 |
37 | नी सईओ, मैं गई गवाची | 100 |
38 | मक्के गिआं गल मुकदी नाहीं | 101 |
39 | बुले नूं लोक मती देंदे | 102 |
40 | वत्त ना करसां माण | 103 |
41 | इश्क दी नवीओं नवीं बहार | 105 |
42 | हीर रांझण दे हो गए मेले | 107 |
43 | देखो नी की कर गिआ माही | 109 |
44 | मुँह आई बात न रहदीं ए | 111 |
45 | ऐथे लेखा पाओ पसारा ए | 113 |
46 | जे ज़ाहर करां इसरार ताई | 115 |
47 | मेरे नौशहु दा कित मोल | 116 |
48 | मैं वैसा जोगी दे नाल | 117 |
49 | माही नाहीं कोई नूर इलाही | 119 |
50 | दिल लोचे माही यार नूं | 121 |
51 | इक नुक़ते विच गल्ल मुकदी ए | 123 |
52 | इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए | 125 |
53 | मैनूं छड गए आप लद गए | 127 |
54 | कत्त कुड़े ना वत्त कुड़े | 128 |
55 | रांझा रांझा करदी हुण मैं | 131 |
56 | इश्क असां नाल केही कीती लोक मरेंदे ताअने | 133 |
57 | मैं पुछा शहु दीआं वाटां नी | 136 |
58 | रोज़े हज निमाज़ नी माए | 138 |
59 | जुमे दी हीरे होर बहार | 139 |
60 | मैं गल्ल ओथे दी करदा हां | 141 |
61 | मैं पापडिआं तों नस्सना हां | 144 |
62 | मैं किउं कर जावां काअबे नूं | 145 |
63 | मेरा रांझण हुण कोई होर | 147 |
64 | मैनूं दरद अव्वलड़े दी पीड़ | 148 |
65 | साडे वल मुखड़ा मोड़ वे पिआरिया | 149 |
66 | दोहरे | 151 |
67 | अठवारा | 158 |
68 | बारां माह | 167 |
69 | सीहरफ़ीआं | 181 |