विनोबा-विचार-दोहन: Thoughts of Vinoba

$28
FREE Delivery
Quantity
Delivery Usually ships in 5 days
Item Code: NZD119
Publisher: National Book Trust, India
Author: पराग चोलकर (Parag Cholkar)
Language: Hindi
Edition: 2013
ISBN: 9788123739922
Pages: 226
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 300 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक के विषय में

असामान्य प्रतिभा के धनी आचार्य विनोबा इस सदी कै महानतम पुरुषों में से एक थे । अध्यात्म की युगानुकूल नई व्याख्या करने और अध्यात्म विद्या को विकास की नई शिक्षा-गौर नए आयाम देने वाले विनोबा ने समाजशास्त्र, मानसशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति, भाषा, लिपि आदि सभी विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, जो आज भी न केवल प्रासंगिक हैं, बल्कि सदियों तक मनुष्य जाति का मार्गदर्शन करने की भी क्षमता रखते हैं, विनोबा-विचार-दोहन' नामक इस छोटे-से संकलन में समेटे गए विनोबा के विचार गागर में सागर भरने का प्रयासमात्र हैं, लेकिन अमृत-सिंधु की ये कुछ बूंदें भी पाठकों के समक्ष विनोबा के जीवन-दर्शन की झांकी प्रस्तुत करने में सक्षम हैं।

प्रस्तुत पुस्तक के संपादक, पराग चोलकर, केमिकल इंजीनियरिंग मैं स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद लगभग दस वर्षों तक स्टेट बैंक आफ बीकानेर एंड जयपुर में अधिकारी के रूप में कार्यरत रहें । तत्पश्चात नौकरी छोड़ सर्वोदय आदोलन से जुड़ गए । सर्वोदय आश्रम, नागपुर के सचिव रह चुके चोलकर जी को 'गांधीजी' का राज्य सत्ता विषयक सिद्धांत' विषय पर डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई । कई स्वयंसेवी सस्थाओं से जुड़े पराग चोलकर 'साम्ययोग-साधन' (मराठी पाक्षिक पत्रिका) के संपादक तथा विनोबा विचार केंद्र, नागपुर के संचालक हैं । विनोबा साहित्य के संकलन, संपादन तथा अनुवाद मैं इनका विशेष योगदान रहा है ।

भूमिका

आचार्य विनोबा इस सदी के महानतम पुरुषों में से एक थे । असामान्य प्रतिभा के धनी विनोबा, वैदिक ऋषियों से मध्ययुगीन संतों तक और उससे भी आगे चली आध्यात्मिक साधकों की परंपरा की एक कड़ी तो थे ही, लेकिन वे केवल पारंपरिक साधक नहीं थे । वे ऐसे खोजी थे, जिन्होंने अध्यात्म की युगानुकूल नई व्याख्या की और अध्यात्मविद्या को विकास की नई दिशा और नए आयाम प्रदान किए । उनका अध्यात्म मठों और संप्रदायों में सिमटने वाला नहीं था, वह कर्मक्षेत्र में साहसी प्रयोगों में प्रकट हुआ ।

अध्यात्म में वे जितने गहरे उतरे, उतने सामाजिक शास्त्रों में भी उतरे । समाजशास्त्र, मानसशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य, संस्कृति, भाषा, लिपि-शायद ही कोई विषय होगा जिसे विनोबा की प्रतिभा ने स्पर्श नहीं किया । और हर विषय में उनके चिंतन ने मनुष्य जाति को कुछ--कुछ स्थायी पाथेय दिया । उनका चिंतन केवल शाब्दिक नहीं था । कर्मयोग के आचरण से, कठिन साधना से वह निकला था । घटनाओं, प्रवाहों के पीछे काम कर रही सूक्ष्म शक्तियों को उनकी पैनी नजर पकड़ लेती थी । इसीलिए उनके विचार न केवल आज प्रासंगिक हैं, बल्कि सदियों तक मनुष्य जाति का मार्गदर्शन करने की क्षमता रखते हैं ।

विनोबा अर्थात विनायक नरहर भावे का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश में गागोदे नामक छोटे-से गांव में, एक मध्यवर्गीय परिवार में 11 सितंबर 1895 को हुआ । बचपन से ही मेधावी रहे विनोबा पर पिता की वैज्ञानिकता के और भक्त-हृदय मां की आध्यात्मिकता के सकासे ने प्रभाव डाला । बचपन में ही उन्होंने ब्रह्यचर्य का संकल्प लिया । युवावस्था में उन्हें एक तरफ राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का, राष्ट्रसेवा का आकर्षण था, तो दूसरी तरफ ब्रह्मजिज्ञासा थी, आध्यात्मिक साधना के लिए तड़प थी । आखिर 25 मार्च 1916 को उन्होंने गृह त्याग किया । इंटर की परीक्षा देने बड़ौदा से मुंबई जाते वक्त गाडी बदलकर, दो साथियों के साथ वे काशी गए । वहां उन्होंने गहन अध्ययन किया । एक साथी की मौत भी उन्हें विचलित न कर सकी । वहीं उन्होंने गांधीजी के प्रसिद्ध भाषण के बारे में सुना, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी शासक और देशी राजाओं के सामने अपनी बात निर्भिकता से रखी थी । गांधीजी के साथ हुए पत्राचार के बाद उनके निमंत्रण पर वे 7 जून 1916 को उन्हें कोचरब आश्रम में मिले और फिर वहीं के हो गए । हिमालय की शांति का और बंगाल की क्रांति का उन्हें बचपन से आकर्षण था, शायद इसीलिए वे दोनों के बीचों-बीच स्थित काशी पहुंच गए थे । गांधीजी में उन्हें शांति-क्रांति का अभूतपूर्व संगम दिखाई दिया । गांधीजी का आश्रम उनके लिए दृष्टिदाता मातृस्थान साबित हुआ । गांधीजी ने ही विनायक को 'विनोबा' नाम दिया । विनोबा के पिताजी को उस समय लिखे पत्र में गांधीजी ने लिखा था - 'इतनी छोटी उम्र में ही आपके पुत्र ने जिस तेजस्विता और वैराग्य का विकास कर लिया है, उतना विकास करने में मुझे बहुत साल लगे थे ।" दीनबंधु एंड्रयूज को एक बार गांधीजी ने कहा था - 'आश्रम के दुर्लभ रत्नों में ये एक हैं । ये आश्रम को ही अपने पुण्य से सींचने आए हैं। पाने नहीं आए, देने आए हैं ।"

सन् 1921 में गांधीजी ने वर्धा आश्रम के संचालन के लिए विनोबा को भेजा । तब से तीस साल वही विनोबा की कर्मस्थली रही । वहां उन्होंने कठिन परिश्रम किया, गहरा अध्ययन किया, रचनात्मक कार्य के क्षेत्रों में कई प्रयोग किए, कईयों को सिखाया, ग्रामसेवा का संयोजन कर मानो उसका एक शास्त्र ही निर्माण किया । विनोबा की ही प्रेरणा से उनके एक तरुण साथी मनोहर दिवाण ने कुष्ठसेवा जैसे, तब तक भारतीयों से अछूते रहे क्षेत्र में काम शुरू किया ।

सन् 1923 में आश्रम से शुरू हुई 'महाराष्ट्र-धर्म' पत्रिका ने विनोबा की वैचारिक और साहित्यिक प्रतिभा का महाराष्ट्र को परिचय कराया । उनका वेद-उपनिषदों का गहरा अध्ययन उपनिषदों पर लिखी लेखमाला में प्रकट हुआ, जो बाद में 'उपनिषदांचा अभ्यास' पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। संत तुकाराम के कुछ अभंगों का विवरण 'संतांचा प्रसाद' नाम से प्रकाशित हुआ । उनके ललित निबंधों ने महाराष्ट्र का ध्यान विशेष आकर्षित किया । उनके चुनिंदा निबंधों का संग्रह 'मधुकर' आज भी मराठी की लोकप्रिय पुस्तकों में एक है ।

सन् 1923 में नागपुर झंडा सत्याग्रह के समय विनोबा को पहली बार जेलयात्रा हुई । 1932 में उन्होंने पुलिया जेल में गीता पर जो प्रवचन दिए, वे 'गीता-प्रवचन' नाम से मशहूर हुए । 'गीता-प्रवचन' विश्वसाहित्य की एक अनूठी कृति है । वह केवल गीता का विवरण नहीं है, मनुष्य को शुभ की प्रेरणा देकर श्रेय की ओर अग्रसर करने की शक्ति रखने वाली एक मौलिक कृति है । अब तक 24 भाषाओं में 'गीता-प्रवचन' प्रकाशित हो चुकी है और उसकी करीब 25 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं । 'गीता-प्रवचन' गीता का संदेश तो है ही, वह विनोबा का भी जीवन-संदेश है । उसके पूर्व, 1930- 31 में विनोबा ने 'गीताई' की रचना की थी । 'गीताई' गीता का मराठी में समश्लोकी अनुवाद है । लेकिन वह केवल अनुवाद नहीं है, वह गीता का भाष्य भी है और उसमें विनोबा का अनुभव भी है । उसकी सरल, लेकिन प्रसादपूर्ण काव्य-शैली का शायद ही कोई जोड़ मिलेगा । विनोबा चाहते थे कि गीताई महाराष्ट्र के घर-घर में पहुंचे । अब तक उसकी 34 लाख प्रतियां निकल चुकी हैं । 'गीताई' और 'गीता-प्रवचन' उनकी विरासत है, ऐसा विनोबा का खुद का मानना था । 1928 और 1931 के बीच विनोबा अपने कुछ स्फुट विचार सहज भाव से सूत्र रूप में लिखा करते थे । उन विचारों की 'विचारपोथी' भी जीवन-साधकों कें आकर्षण का केंद्र रही है ।

सन् 1940 में, दूसरे विश्वयुद्ध के समय, युद्धविरोधी सत्याग्रह के लिए प्रथम सत्याग्रही के नाते गांधीजी ने विनोबा को चुना, तब पूरे देश को उनका परिचय हुआ । यह एक प्रकार से गांधीजी द्वारा अपने उत्तराधिकार की घोषणा ही थी । गांधीजी और महादेवभाई देसाई ने उस समय 'हरिजन' पत्रिका में विनोबा का परिचय करा देने वाले लेख लिखे । महादेवभाई ने लिखा था - ''विनोबा का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे जो निर्णय लेते हैं, उसका अमल उसी क्षण से शुरू कर देते हैं । उनका दूसरा गुण है, निरंतर विकासशीलता । गांधीजी के बाद यह गुण मुझे सिर्फ विनोबा में देखने को मिला है । न विनोबा ने तीन बार सत्याग्रह किया और उन्हें कुल पौने दो साल की सजा हुई ।

सन् 1942 से 1945 तक तीन वर्ष 'भारत छोड़ो' आदोलन के दौरान उन्हें जेल में बिताने पड़े। अपने पौने पांच साल के जेल-जीवन में विनोबा ने दक्षिण की सभी भाषाओं और लिपियों का अध्ययन किया । महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर, नामदेव और एकनाथ के भजनों का चयन किया। गांधीजी की 'मंगल प्रभात' पुस्तक के आधार पर, उनके एकादश व्रतों को अभंगों में गूंथकर 'अभंगव्रते' की रचना की । 'स्वराज्यशास्त्र' के रूप में वैकल्पिक राजनीतिशास्त्र का पूरा खाका खींचा । गीता के स्थितप्रज्ञ के श्लोकों पर विवरणात्मक प्रवचन दिए, जो 'स्थितप्रज्ञ-दर्शन' नाम से प्रकाशित हुए । 'ईशावास्य उपनिषद्' पर भी उन्होंने लिखा । देवनागरी लिपि का संशोधन कर लोकनागरी लिपि बनाई ।

भारत को आजादी मिली, लेकिन विभाजन के साथ । उसने तुरंत गांधीजी को भी खोया । देश में मानो एक शून्य निर्माण हुआ । इस स्थिति में विनोबा तीव्रता से मार्ग खोजने में लग गए । गांधीजी के बाद रचनात्मक कार्य का नेतृत्व अपने आप उनके सिर पर आ पड़ा । मार्च 1948 में सेवाग्राम में हुए रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन में 'सर्वोदय समाज' की कल्पना विनोबा ने प्रस्तुत की और बाद में 'सर्वोदय' शब्द का विवरण और भाष्य करते रहे । साथ ही पवनार आश्रम में ऋषिखेती (बिना बैलों की या यंत्रों की मदद से, सिर्फ हाथ से खेती) का और कांचन-मुक्ति का प्रयोग उन्होंने चलाया । उसी समय एकबार जयप्रकाश नारायण पवनार गए थे । बाद में उन्होंने कहा था- 'मुझे यहां कुछ प्रकाश दीखता है ।" अप्रैल 1951 में तेलंगाना में शिवरामपल्ली सर्वोदय सम्मेलन के लिए विनोबा गए । उस समय वह प्रदेश अशांत था । आजादी मिलने के बाद कम्युनिस्टों ने हिसक क्रांति की असफल कोशिश वहां की थी, जिसे पुलिस बल से दबाया गया था । लेकिन पुलिस बल समस्या का स्थायी इलाज नहीं था । विषमता के कारण असंतोष के बीज मौजूद थे । उन्हें निर्मूल करना जरूरी था । भूमिहीनों को भूमि मिलना इसका पहला कदम होना आवश्यक था ।

18 अप्रैल 1951 को भूदान का जन्म हुआ । पोचमपल्ली गांव में दलितों ने जमीन की मांग की और एक सज्जन ने सौ एकड़ जमीन तुरंत दान दी । विनोबा ने इस सूत्र को पकड़ लिया । भूदान-गंगा प्रवाहित हुई । फिर विनोबा के पैर सालों तक रुके ही नहीं । कुल पैंसठ हजार किलोमीटर की पदयात्रा हुई ।

विनोबा ने 'दान' शब्द को नया अर्थ दिया । 'दानं संविभाग:'-दान यानी सम-विभाग, इस शास्त्रवचन का उन्होंने आधार लिया । शास्त्रों से युगानुकूल वचन ढूंढना तथा शास्त्रवचनों को नए अर्थ देना, यह विनोबा की एक विशेषता थी । उनका मानना था कि यह अहिंसक क्रांति की प्रक्रिया का एक अंग है और भारत में यह परंपरा चलती आई है ।

विनोबा सम-विभाग के लिए अधिकार के तौर पर जमीन मांगते थे । वे कहते थे 'मैं भिक्षा मांगने नहीं, दीक्षा देने आया हूं ।" वे खुद को दरिद्रनारायण के प्रतिनिधि के तौर पर पेश करते और जमीन वालों को कहते कि वे उन्हें अपने परिवार का हिस्सा मानकर जमीन दें । जमीन का बंटवारा उनके लिए केवल एक निमित्त था । वे अहिंसा से समस्याओं का समाधान ढूंढना चाहते थे । इसीलिए वे भूदान में अहिंसक क्रांति और विश्वशांति के बीज देखते थे ।

कई पावन प्रसंग भूदान पदयात्रा में घटित हुए । मनुष्य के हृदय में भलाई मौजूद रहती है और उसे जगाया जा सकता है, इसका अदभुत दर्शन हुआ । सूर्य के सातत्य से विनोबा 'चरैवेति चरैवेति' मंत्र सार्थक करते रहे । निःस्वार्थ, त्यागी, तपस्वी, निष्ठावान राजनीतिक दलों से मुक्त लोक सेवकों का एक समूह खड़ा हुआ । छोटे-छोटे गांवों में विनोबा और उनके साथी पहुंचे । वहां शान का प्रकाश, नए विचार उन्होंने पहुंचाए । विनोबा यात्रा मानो चलता-फिरता विश्वविद्यालय ही था। जीवन से संबंधित लगभग सभी विषयों पर मौलिक चिंतन समाज के सामने प्रस्तुत हुआ।

विनोबा का क्रांतिकारी स्वरूप निखर उठा । चांडिल सर्वोदय सम्मेलन में उन्होंने 'हिंसा-शक्ति की विरोधी और दंड-शक्ति से भिन्न तीसरी शक्ति' की अवधारणा प्रस्तुत की। लोक-शक्ति जगाना उनका उद्देश्य था । विचार शासन और कर्तृत्व विभाजन की कार्यपद्धति का विवरण भी उन्होंने किया। बाद में इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए निधिमुक्ति और तंत्रमुक्ति की साहसी पहल कर सर्वोदय आदोलन को पूर्णतया जनाधारित जन-आंदोलन करना चाहा । विकल्प की खोज करने वालों को इस विचार-यात्रा से काफी कुछ मिल सकता है । आचार्य दादा धर्माधिकारी ने ठीक ही कहा था : 'विनोबा ने क्रांति की प्रक्रिया को ललित कला की माधुरी अर्पित की । ''

भूदान ने जमीन मालिकों को झकझोरा । करीब 42 लाख एकड़ जमीन भूदान में मिली और करीब आधी बंट भी गई । सुपात्र भूमिहीन मजदूरों को जीविका का स्थायी और गरिमामय साधन मिला । भूदान से निर्मित वातावरण से सीलिंग कानून बनने में मदद मिली । भूदान का यह योगदान किसी भी कसौटी पर कम नहीं आका जा सकता । इतिहास में यह एक अपूर्व आदोलन के नाते हमेशा याद किया जाएगा ।

लेकिन भूदान यश की उपलब्धि महज भूमि समस्या के समाधान तक सीमित नहीं थी । उसकी सबसे श्रेष्ठ उपलब्धि थी, उसका ग्रामदान में विकास । भूदान में सुप्त संभावनाएं ग्रामदान में प्रकट हुईं ।

ग्रामदान की बुनियाद है, जमीन का ग्रामीकरण और जमीन पर व्यक्तिगत मालिकी की समाप्ति। इससे गांव के संसाधन गांव वालों के हाथ आएंगे और उनके समुचित संयोजन से वे गांव की जरूरतें पूरी कर सकेंगे । इससे हर पेट को रोटी और हर हाथ को काम मिलेगा । गांव एकात्म समाज बनेगा और स्वायत्त, स्वावलंबी, स्वाश्रयी, स्वशासी इकाई होने की दिशा में कदम बढ़ा सकेगा । इसी में मनुष्य का श्रेय है । यही मनुष्य-क्रांति का अगला सोपान हो सकता है ।

ग्रामदान की क्रांतिकारिता ने दुनिया भर के विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया । लुई फिशर ने उसे 'अर्वाचीन काल में पूरब से आया सबसे ज्यादा सृजनशील विचार' कहा । ग्रामदान को पुष्ट करने के लिए संपत्तिदान, शातिसेना, सर्वोदयपात्र और आचार्यकुल जैसे कई कार्यक्रम भी विनोबा ने दिए और लोकनीति, जय जगत, गणसेवकत्व जैसी मौलिक अवधारणाएं प्रस्तुत कीं ।

कोई डेढ़ लाख गांवों के बहुसंख्य लोगों के गांवों ने ग्रामदान-संकल्प पत्रों पर हस्ताक्षर किए । यह मामूली काम नहीं था । लेकिन दुर्भाग्य से आगे के कदम उठ नहीं पाए ।

ग्रामदान आदोलन के बाद विनोबा ने क्षेत्र संन्यास लिया । अंतिम दिनों में उन्होंने गोरक्षा के लिए कोशिश की । आखिर 15 नवंबर 82 को उन्होंने स्वेच्छामरण का वरण किया ।

विनोबा सही मायने में विचार पुरुष थे । वे विचार दे सकते थे, प्रेरणा दे सकते थे । लोगों को खींचने की शक्ति उनमें थी । लेकिन संघटन बांधने की न उनकी वृत्ति थी, न वह उनके विचारों से मेल खाता था । वे बार-बार 'शास्त्रं ज्ञापक न तु कारकम' इस वचन को याद किया करते थे । उनकी भूमिका रास्ता बताने की थी, किसी का हाथ पकड़कर उसे उस रास्ते पर ले जाने की नहीं थी ।

वे कभी मठाधिपति नहीं बने, न उन्होंने कभी गुरु या नेता की भूमिका स्वीकार की । वे हमेशा सख्य भावना पर, मैत्री पर जोर देते रहे। उन्होंने एक बार लिखा था - "पहाड़ के समान ऊंचा होने में मुझे मजा नहीं आता। मेरी मिट्टी आसपास की जमीन पर बिखेरी जाए, इसमें मुझे आनंद है। इसीलिए उनकी कोशिश गणसेवकत्व की, नेतृत्व-निरसन की, संघटन मुक्ति की थी।

विचार पर विनोबा का अटूट विश्वास था। वे चाहते थे कि लोग विचार समझें और फिर उस पर अमल करें। वे मानते थे कि विचार से ही क्रांति होगी ।

इसीलिए शिक्षा पर उनका विश्वास था। उन्होंने एक बार कहा था कि उनसे अगर उनका पेशा पूछा जाए तो वे खुद को शिक्षक ही बताएंगे। वे आजीवन शिक्षक ही रहे। वे केवल शिक्षक ही नहीं, बल्कि एक शिक्षाशास्त्री भी थे। शिक्षा के बारे में उनकी अंतर्दृष्टि समझने लायक है। इनका मानना था कि 'योग-उद्योग-सहयोग' ये शिक्षा के प्रमुख विषय हैं, और उनकी शिक्षा जीवन जीते हुए मिलनी चाहिए। जीवन और शिक्षा एकरूप है, इसलिए कर्म करना और लान पाना एक ही प्रक्रिया के दो पहलू होने चाहिए। विनोबा के जीवन में हम यही पाते हैं। वे आजीवन कर्मरत रहे और आजीवन विद्यार्थी भी रहे। विनोबा की ज्ञान-लालसा असीम थी । अध्ययन पर वे हमेशा जोर देते थे। करीब सभी धर्मों का, दर्जनों भाषाओं का, सामाजिकशास्त्रों का, दुनिया के श्रेष्ठतम साहित्य का उनका अध्ययन था।

जो उन्होंने समझा वह बांटा भी। दुनिया के आध्यात्मिक साहित्य का सर्वजनसुलभ, युगानुकूल सार-संकलन यह विनोबा का एक विशेष योगदान है। वेद, उपनिषद्, भागवत, मनुस्मृति, शंकराचार्य-साहित्य, महाराष्ट्र के संत श्रेष्ठ ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ और रामदास का साहित्य, इनका सार तो उन्होंने निकाला ही, कुरान शरीफ और बाइबिल का भी गहन अध्ययन कर उनका सार प्रस्तुत किया। धम्मपद की नवसंहिता प्रस्तुत की । आसाम के संत माधवदेव के 'नामघोषा' ग्रंथ का, नानक के 'जपुजी' का, तुलसीदास की 'विनयपत्रिका' का परिचय भी करा दिया । आध्यात्मिक साहित्य में यद्यपि उसके द्रष्टा लेखकों का मौलिक दर्शन होता है, फिर भी शब्दातीत वस्तु शब्दों में बांधने में निहित मर्यादाओं की वजह से उसमें त्रुटियां रहना स्वाभाविक है। काल प्रवाह में उसका कुछ अंश अप्रासंगिक भी हो जाता है । अत: उसका सर्वोत्तम, प्रासंगिक अंश निकालकर समाज के सामने रखने की जो सेवा विनोबा ने की, वह हमेशा यादगार रहेगी । इससे सभी धर्मों का हार्द एक-सा है यह प्रकट हुआ । दुनिया की आध्यात्मिक धरोहर को नए युग के सामने प्रस्तुत करने के साथ-साथ भारत को और दुनिया को जोड्ने का काम भी हुआ।

गीताई के श्लोकों पर विनोबा का चिंतन-विवरण 'गीताई चितनिका' नाम से प्रकाशित है । गीताई, गीता प्रवचन, स्थितप्रज्ञ-दर्शन, गीताई चितनिका, ज्ञानदेव चितनिका, ईशावास्य वृत्ति, संतांचा प्रसाद, विचारपोथी जैसी कृतियों में विनोबा ने विषय-वस्तु पर प्रकाश तो डाला ही है, अपना आध्यात्मिक अनुभव भी उनमें उड़ेल दिया है।

शब्द शक्ति का अनूठा दर्शन उनके साहित्य मे होता है। उनकी शैली सूत्र माप और अर्थघन है। हर बार सोचने पर नए-नए अर्थ उसमें से खुलते हैं। शब्द पर कमाल का प्रभुत्व और विषय पर पकड़ होने से उनका साहित्य अक्षर साहित्य बन गया है । विनोबा के व्यक्तित्व में लान, कर्म, भक्ति एकरूप हुए थे । एक मनुष्य चाहे तो कितनी ऊंचाइयों को छू सकता है, यह उनके जीवन ने दिखा दिया । इतना ही नहीं, विनोबा ने यह भी दिखा दिया कि मनुष्य को कितनी ऊंचाइयों तक ले जाया जा सकता है । जिस जमीन के एक-एक इंच के लिए खून बहता आया है, उस जमीन के लाखों एकड़ों का दान मामूली चीज नहीं मानी जा सकती । हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया क्या कुछ कर सकती है इसका दूसरा उदाहरण था, चंबल के डाकुओ का उनके सामने शस्त्र अर्पण करना। दिलों को जोड़ते हुए, उन्हे बदलते हुए विनोबा भारत भर में प्रेमपूर्ण हृदय से एक बुनियादी विचार लेकर घूमे ।

विनोबा की विचारधारा के लिए अगर एक शब्द प्रयुक्त करना हो, तो उसे 'साम्ययोग' कहा जा सकता है। 'साम्य' का 'वाद' नहीं, बल्कि 'योग' । वाद तोड़ता है, योग जोड़ता है । 'साम्ययोग' शब्द से साम्य-स्थापना की प्रक्रिया का संकेत भी मिलता है-वह है जोड़ना । विनोबा के सब काम दिलों को जोड्ने के लिए ही थे ।

'साम्य' यानी समता, समत्व । समाज में हर तरह की समता प्रतिष्ठत हो, मनुष्य के अंदर, तथा उसका मनुष्यों से, समाज से, सृष्टि से जो संबंध है उसमें समत्व रहे, यही विनोबा की पुन थी । आज तक समता के बारे में खंडित चिंतन हुआ । उससे समस्याएं और भी उलझ गईं । सबको जोड़कर, सबकी शक्तियों का योग करके संपूर्ण साम्य की तरफ मनुष्य का प्रयास हो, यह विनोबा की चाह थी । वे चाहते थे कि यही संपूर्ण जीवन के चिंतन और कार्य का विषय बने । इसे उन्होंने 'अभिधेय' कहा था ।

आर्थिक समता के लिए विनोबा ने भूदान-संपत्तिदान जैसे कार्यक्रम दिए । मालिकी-विसर्जन जैसी क्रांतिकारी बात कही । अपरिग्रह के आधार पर समाज की रचना की बात की । अपरिग्रह यानी संग्रह का अभाव नहीं, बल्कि अत्यंत संग्रह, लेकिन बंटा हुआ और क्रमयुक्त । समाज में संपत्ति चाहिए, लेकिन व्यक्तियों के घरो में नहीं । समृद्धि और समता में कोई विरोध नहीं है । बल्कि समृद्धि के लिए समाज में द्रव्य का प्रवाह सतत बहना चाहिए । इसीलिए 'दान' के कार्यक्रम थे । इससे समता की स्थापना की दिशा में प्रवास होगा और विषमताओं के निर्माण पर रोक लगेगी । विनोबा की रणनीति की कुशलता इसमें थी कि वे एक तरफ चित्तशुद्धि पर जोर देते थे, उसके लिए जीवन साधना बताते थे, वातावरण संस्कारित करते थे, और दूसरी तरफ ग्रामराज्य, विकेद्रित उद्योग, स्वदेशी जैसे वैकल्पिक रचना-निर्माण के कार्यक्रम भी सामने रखते थे । सामाजिक समता के भी विनोबा प्रखर पुरस्कर्ता थे । जाति भेद, अस्पृश्यता, स्त्री-पुरुष विषमता इनके वे घोर विरोधी थे । अस्पृश्यता-निवारण और दलितों की सेवा के लिए उन्होंने भंगी-मुक्ति जैसे कई कार्यक्रम हाथ में लिए । कई साल दलितों के बीच जाकर बैठे । भूदान में प्राप्त जमीन प्राय: दलित-आदिवासी और पिछडों को ही मिली । भारत में कई जातियां जमीन से वंचित रहती आई हैं। भूदान ने उन्हें जमीन देकर उनकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया ।

'स्त्री-मुक्ति' के बदले विनोबा 'स्त्री-शक्ति-जागरण' शब्द का प्रयोग करते थे । वे चाहते थे कि स्त्रियों को जकड़ने वाले सभी धार्मिक-सामाजिक बंधन टूटें । केवल ब्रह्मचारिणी स्त्रियों के लिए ब्रह्मविद्यामंदिर आश्रम की स्थापना उनका एक मौलिक प्रयोग

राजनैतिक समता के लिए लोगों को अपना कारोबार खुद देखना आवश्यक है । सर्वानुमति की निर्णय प्रक्रिया इसकी रीढ़ है । ग्रामदान के माध्यम से ग्राम स्वराज्य की अवधारणा प्रस्तुत कर विनोबा ने साम्ययोगी समाज के रूप में एक परिपूर्ण विकल्प ही पेश किया ।

इस संकलन में विनोबा-विचार के विभिन्न पहलुओं की केवल एक झलक मिल सकती है । उसे पूरी तरह समझने के लिए उनके विशाल शब्द-सागर में ही डुबकी लगानी होगी । जितनी बार डुबकी लगाएंगे, उसने अधिक मोती पाएंगे । दो सौ पृष्ठो की मर्यादा में उस ज्ञानसागर को समेटने की कोशिश गागर में सागर भरने जैसी है । महाराष्ट्र के संत श्रेष्ठ ज्ञानेश्वर ने गीता तत्व के बारे में कहा था-

हें अपार कैसेनि कबळावे। महातेज कवणें धवळावें।

गगन मुठीं सुवावें । मशकैं केवी ।।

(यह अपार है, इसे बाजुओं में कैसे समेटा जा सकता है? प्रखर तेज को उज्जवल कौन कर सकता है? मच्छर कैसे मुट्ठी में आकाश पकड़ सकता है?)

विनोबा-साहित्य के बारे में यही सच है'

दूसरी दिक्कत यह है कि, दूध का तो मक्खन निकाला जा सकता है, लेकिन मक्खन का मक्खन कैसे निकालें? इन दिक्कतों का भान रखकर, सभी सीमाओं का भान रखकर किया गया यह एक नम्र प्रयास है। नेशनल बुक ट्रस्ट इसके लिए निमित्त बना, इसलिए वह धन्यवाद का पात्र

अमृत सिंधु के कुछ बिंदु यहां प्रस्तुत हैं । पाठकों को वे तुष्टिदायक तथा पुष्टिदायक होंगे इस विश्वास के साथ।

 

विषय-सूची

भूमिका

सात

1

1. क्रांत-दर्शन

1

2

2. तत्व-बोध

22-73

अध्यात्म आशय और दिशा

22

वर्णाश्रम धर्म

29

गीता का संदेश

32

जीवन-साधना

45

व्रत-विचार

61

आत्मज्ञान और विज्ञान

70

3

समाज-चिंतन

74-128

अपरिग्रह : शक्ति और सिद्धि

74

कांचन-मुक्ति

86

विकेंद्रीकरण और स्वदेशी

87

आर्थिक योजना

96

खेती:एक ब्रह्मकर्म

100

खादी बगावत का झंडा

101

गोसेवा और गोरक्षा

102

शिक्षा

107

स्त्री-शक्ति

116

आरोग्य

119

आहार-शुद्धि

123

विविध

125

4

स्वराज्य-साधना

129-183

स्वराज्य-शास्त्र

129

लोकनीति

135

सत्याग्रह

153

सर्वोदय आरोहण

159

विविध

174

5

भाषा और साहित्य

184-189

भाषा का प्रश्न

184

नागरी लिपि

185

साहित्य-शक्ति

186

6

निबंध-मधु

190-201

जैसे को तैसा

190

त्याग और दान

191

साहित्य-किन विषयों पर

193

मत और मत-प्रचार

194

तीन मुद्दे

198

सत्य ही सयानापन

199

मृत्युरूपी वरदान

201

7

विचार-कणिकाए

202

8

परिशिष्ट

208

Sample Page


Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at help@exoticindia.com
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through help@exoticindia.com.
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories