'सर्वज्ञानमयो हि सः' भगवान् मनु के इस वचन विशेष से यह स्पष्ट है कि लोकप्रवर्तित विविधविधविद्याओं का मूल वेद ही है। तत्रापि वेदोदधिनिःसृतनैकविध-विद्यानिकरोत्तमकालविधानशास्त्र (ज्योतिषशास्त्र) अनितरसाधारणवैशिष्ट्यविशिष्ट है। जिसके द्वारा परलोकपुष्टि हेतु सम्पादित होने वाले वैदिक यज्ञों के सम्पादन हेतु समुचित काल का विधान किया जाता है। प्रकृतशास्त्र का इहलोक की परिपृष्टि प्रदातृता तो सर्वविदित है ही। लौकिकालौकिकसर्वविधकल्याणसम्पादनसमाहितस्वसर्वस्व यह शास्त्र तीन स्कन्धों में विभक्त है। जिसमें प्राचीनकाल से अद्यावधिपर्यन्त अगणित मनीषियों एवं आचार्यों ने अपने मेघाशक्ति के द्वारा अनेक ग्रन्थों की रचना की जिसके फलस्वरूप अनवद्य यह विद्याविशेष हम सबको सुलभ हो पाया। उन्हीं ग्रन्थो में से एक "बृहदवकहडाचक्रम्" कालत्रयज्ञमण्डलमहिमामण्डित ग्रन्थ विशेष ज्योतिषशास्त्र के प्रारम्भिक ग्रन्थों में से अन्यतम है। जिसमें वार, पक्ष, तिथि, राशि, नक्षत्र, शुभाशुभकार्यारम्भ हेतु शुभाशुभ मुहूर्तादि विषयों का विशद् विवेचन किया गया है। विवेचन की शैली अत्यन्त सरल है जिससे अध्ययन हेतु शास्त्र में सद्यः प्रविष्ट छात्र सरलता से ग्रन्थविवेचित विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। विशेषज्ञों हेतु भी यह ग्रन्थ प्रारम्भिक प्रमाण के रूप में अत्यन्त समादृत है। अधुना इस ग्रन्थ का कुछ विद्वानों ने मूलसम्पादन तथा कुछ विद्वानों ने हिन्दी व्याख्यानपुरस्सर भी इसका प्रकाशन किया। मैंने पूज्यगुरुवर पं अवध बिहारी त्रिपाठी जी द्वारा सम्पादित बृहदवकहडाचक्रम् ग्रनथ के मूल पाठ को लेकर हिन्दी "अनन्या" व्याख्या की है। परन्तु स्फीतविवेचनाभाव से यह प्रकाशित ग्रन्थ भी छात्रों हेतु अनुन्मीलितप्राय प्रतीत हो रहा है। जिसका अनुभाव यथाऽवसर मैंने भी अध्यापन काल में किया। अत एव भगवद् कृपा से प्रकृत ग्रन्थ के स्पष्ट एवं सरल व्याख्या हेतु प्रेरणा हुई। जिसके उपरान्त भूतभावनभगवान् विश्वनाथ की अमोघकृपाकटाक्षोल्लास के फलस्वरूप यह ग्रन्थ विशेष पूर्ण हो पाया। प्रकृत ग्रन्थ की निर्विघ्नतया पूर्णता में यथासमय अपना सान्निध्य प्रदान करने वाले गुरुवर्य लौकिकालौकिक सर्वविधविद्याविशिष्टान्तःकरण आचार्य रामचन्द्र पाण्डेय गुरुचरण के चरणकमल में अपनी प्रणतितति विनिवेदित करता हूँ। इसी क्रम में डॉ. राहुल मिश्र जी के अनिवर्चनीय सहयोग हेतु साधुवाद प्रदान करता हूँ। चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय के सहसंस्थापक श्री नितेष जी के सातत्य सहयोग हेतु उन्हें भी अन्तःकरण से साधुवाद प्रदान करता हूँ।
इसी क्रम में इस शुभावसर पर इस पुनीत कार्य में प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने वाले विविधविधानवद्यविद्योपनिषदभूत ज्योतिषशास्त्रसमाराधनविशुद्धान्तःकरण ज्योतिर्विदों के प्रति अपने कार्तज्ञभाव का प्रकाशन करता हुआ मेरा मन अपार आनन्दनिमग्न हो रहा है। अन्त में भगवती शारदा के वाङ्मयी मूर्तिस्वरूप इस ग्रन्थविशेष को विद्या के अधिष्ठाता भगवान् श्रीकाशीविश्वनाथजी के चन्दिरचरणकमल में प्रणमाञ्जलिविनिवेदनपुरस्सर निवेदित करता हूँ।
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