पुस्तक परिचय
भावाभिव्यक्ति के साधन को भाषा कहते हैं। लिपि का आधार पाकर भाषा में समय और स्थान पार करने की शक्ति आ जाती है। लिपि का उद्भव भाषा के उद्भव के बहुत बाद उसे स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश्य से हुआ है। साहित्य का मूल मंत्र है "सहितस्य भावं साहित्यम्।" भारतीय साहित्य के सम्मान भारतीय भाषाओं और उनकी लिपियों में भारतीय संस्कृति की अनुप्रेरक भाषाभिक्ति है। भारतीय संस्कृति में मातृशक्ति को शीर्ष स्थान दिया गया है। भाषा की लिपियों के स्वर वर्षों और अक्षर मातृशक्ति संपन्न होते हैं। इसलिए भारतीय भाषा की लिपियों में 'स्वर' को वर्णमाला में पूर्व स्थान पर रखा गया और व्यंजन वर्षों को उत्तरांश में रखा जाता है। स्वर वर्ण प्रयोगी की आदि मध्य और अंत्य सभी स्थितियों में पूर्ण होते हैं। स्वर वर्ण का स्वतंत्र प्रयोग होता है, जबकि व्यंजन का प्रयोग स्वर के साथ ही संभ होता है। स्वरविहिन व्यंजन आधे हो जाते हैं। स्वर उच्चारण में हस्य, वीर्य और प्लुत की अनूठी शक्ति भाषा की दिशा प्रदान करती है। भारतवर्ष में लिपि-प्रयोग की एक लंबी और आकर्षक परंपरा है। ब्राहमी यहाँ की प्राचीनतम और श्रेष्ठ लिपि है। इससे अनेक लिपियों का उद्भव हुआ है। इनमें नागरी एक प्रमुख लिपि है। देवभाषा-संस्कृत भी इसी लिपि में लिपिबद्ध की जाती है। इसीलिए इसे 'देवनागरी' लिपि नाम भी दिया गया है। वर्तमान समय में वैदिक, संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के साथ हिंदी, मराठी और नेपाली भाषाएँ नागरी में लिपिबद्ध की जाती है। पंजावी, बंगला, असमिया और उड़िया भाषाओं की गुरुमुखी, वंगला, असमिया और उड़िया लिपियाँ नागरी से निकट समानता रखती हैं।
भारतवर्ष की विभिन्न भाषाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए उन्हें नागरी में लिपिवद्ध करने का सराहनीय प्रयास शुरू हो चुका है। इसका सबल प्रमाण है कि उर्दू की चर्चित रचनाओं को नागरी में गतिशीलता से लिपिवद्ध किया जा रहा है। इस प्रकार सर्वाधिक प्रचलित नागरी में लिप्यंतरण से रचना का अनुकूल प्रचार-प्रसार हो रहा है, साथ ही भाषा और भाव का पूर्ववत् संरक्षण ही नहीं, आकर्षक विकास हो रहा है। सरस्वती के वरद पुत्र रवींद्र नाथ टैगोर की पुस्तक 'गीतांजलि' नागरी में लिप्यंतरित होकर सर्वसुलभ वन गई है।
लेखक परिचय
शिक्षा: एम.ए. (हिंदी-संस्कृत), पीएच. डी., पोस्ट एम. ए. अनुप्रयुक भाषाविज्ञान (हिंदी) डिप्लोमा, पत्रकारिता डिप्लोमा, साहित्य महोपाध्याय
अध्यापन अनुभव: 43 वर्ष
प्रशासनिक अनुभव : अध्यक्ष, हिंदी विभागय डीन, मानविकी, शिक्षण संकाय, प्रभारी परीक्षा नियंत्रक, प्रभारी कुलपति - हरियाणा केंद्रीय महेंद्रगढ़ विश्वविद्यालय
प्रकाशन : 1. भापाविज्ञान 2. साहित्य-सूजन 3. आलोचना आदि
भाषाविज्ञान : नागरी लिपि और उसकी समस्याएँ, हिंदी शब्द समूह का विकास, अनुप्रयुक्त हिंदी भाषा-चिंतन (पुरस्कृत), भाषा और हिंदी भाषा का इतिहास, भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा, राम नरेश त्रिपाठी का शब्द-भंडार, हिंदी शब्दार्थ की सांस्कृतिक भूमिका, मानक हिंदी व्याकरण, मानक हिंदी और हरियाणावी : व्यक्तिरेकी अध्ययन, हिंदी मानकीकरण उच्चारण और लेखन, प्रयोजनमूलक हिंदी, हरियाणावी-हिंदी
कोश, मानकीकरण और प्रयोग, नागरी लिपि आदि
साहित्य-सुजन : भरोसा करो, इंसान हूँ न । मित्र सप्तशती (काव्य), घर से बाहर तक, वातायन
(कहानी संग्रह), प्रकाश पर्व, जब पीपल रो पड़ा (लघुकथा संग्रह), माहाशिवरात्रि से कार्निवाल तक, स्मृति कं मधुर पल (यात्रा वृतांत), स्मृति लतिकाएँ, मधुर प्रात से तप्त दोपहरी तक (संस्करण संग्रह), तरंगों के
संग बदलत रंग, संबंधों की वैतरणी (उपन्यास)
आलोचना आदि: हिंदी साहित्य की भावभूमि, मीडिया लेखन, काव्यांग दर्पण, डॉ. भोला नाथ तिवारी का साहित्य सौरम, हिंदी काव्य के शिक्षर भक्तिकालीन संदर्भ, हिंदी काव्य के शिक्षर आधुनिक कालीन संदर्भ, प्रवासी महाकवि प्रो. हरिशंकर' आदेश', संस्कृत और नैतिकता का आलोक पथ आदि ।
संस्कृत: कालिदासीय नाटकंषु सामाजिक जीवनम् (पुरस्कृत)
प्राक्कथन
भावाभिव्यक्ति के साधन को भाषा कहते हैं। लिपि का आधार पाकर भाषा में समय और स्थान पार करने की शक्ति आ जाती है। लिपि का उद्भव भाषा के उद्भव के बहुत वाद उसे स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश्य से हुआ है। साहित्य का मूल मंत्र है- "सहितस्य भावं साहित्यम्।" भारतीय साहित्य के सम्मान भारतीय भाषाओं और उनकी लिपियों में भारतीय संस्कृति की अनुप्रेरक भाषाभिक्ति है। भारतीय संस्कृति में मातृशक्ति को शीर्ष स्थान दिया गया है। भाषा की लिपियों के स्वर वर्ण और अक्षर मातृशक्ति संपन्न होते हैं। इसलिए भारतीय भाषा की लिपियों में 'स्वर' को वर्णमाला में पूर्व स्थान पर रखा गया और व्यंजन वर्षों को उत्तरांश में रखा जाता है। स्वर वर्ण प्रयोगी की आदि मध्य और अंत्य सभी स्थितियों में पूर्ण होते हैं। स्वर वर्ण का स्वतंत्र प्रयोग होता है, जबकि व्यंजन का प्रयोग स्वर के साथ ही संभ होता है। स्वरविहिन व्यंजन आधे हो जाते हैं। स्वर उच्चारण में ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत की अनूठी शक्ति भाषा की दिशा प्रदान करती है। भारतवर्ष में लिपि-प्रयोग की एक लंबी और आकर्षक परंपरा है। ब्राह्मी यहाँ की प्राचीनतम और श्रेष्ठ लिपि है। इससे अनेक लिपियों का उद्भव हुआ है। इनमें नागरी एक प्रमुख लिपि है। देवभाषा-संस्कृत भी इसी लिपि में लिपिबद्ध की जाती है। इसीलिए इसे 'देवनागरी' लिपि नाम भी दिया गया है। वर्तमान समय में वैदिक, संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के साथ हिंदी, मराठी और नेपाली भाषाएँ नागरी में लिपिबद्ध की जाती है। पंजाबी, बंगला, असमिया और उड़िया भाषाओं की गुरुमुखी, बंगला, असमिया और उड़िया लिपियाँ नागरी से निकट समानता रखती हैं।