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महाकवि भवभूति: विचार और समीक्षा- Mahakavi Bhavabhooti: Thoughts and Criticism

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Specifications
Publisher: Shivalik Prakashan
Author Babulal Meena, Asha Singh Rawat
Language: Sanskrit Text with Hindi Translation
Pages: 450
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 710 gm
Edition: 2025
ISBN: 9789348433244
HBW556
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Book Description

प्राक्कथन

भवभूति संस्कृत वाङ्मय के उच्च कोटि के नाटककार और महाकवि हैं। संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास के बाद महाकवि भवभूति का ही नाम उत्कृष्ट नाटककार के रूप में लिया जाता है। प्रसन्नता की बात है कि महाकवि भवभूति ने अपनी नाट्य-कृतियों की प्रस्तावना में अपना वंश-परिचय और जीवन वृत्त आदि दिया है। ये दक्षिण भारत में पद्मपुर के निवासी थे। ये कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा-पाठी ब्राह्मण थे। इनका गोत्र काश्यप था। इनके पितामह का नाम भट्ट गोपाल और पिता का नाम नीलकण्ठ था। माता का नाम जतुकर्णी (या जातुकर्णी) था। इनका मूल नाम श्रीकण्ठ या भट्ट श्रीकण्ठ था। ये कवि रूप में 'भवभूति' नाम से विख्यात हुए- श्रीकण्ठपदलांछनः पदवाक्यप्रमाणज्ञो. ..भवभूतिर्नाम (मालतीमाधवम्, प्रथम अंक)। अधिकांश विद्वानों ने इनका समय लगभग 680 ई० से 750 ई० तक स्वीकार किया है। इनकी तीन नाट्य रचनाएँ उपलब्ध हैं- मालतीमाधवम्, महावीरचरितम् और उत्तररामचरितम्। इनमें क्रमशः श्रृङ्गार, वीर और करुण रस प्रधान है। रचना क्रम की दृष्टि से इनके तीन रूपकों का क्रम इस प्रकार विद्वानों ने माना है- (1) मालतीमाधवम्, (2) महावीरचरितम् और (3) उत्तररामचरितम् । कुछ विद्वान् इस प्रकार भी क्रमशः इनकी रचनाओं का क्रम स्वीकार करते हैं- (1) महावीरचरितम् (2) मालतीमाधवम् और (3) उत्तररामचरितम्।

उनके उपर्युक्त इन तीनों रूपकों में उत्तररामचरितम् ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसमें भवभूति अपने आपको 'परिणतप्रज्ञः' कहते हैं। यह नाटक उनकी प्रतिभा का सर्वोत्तम निदर्शन है। इसमें उनकी नाटकीय योग्यता और विद्वत्ता का चरम उत्कर्ष प्राप्त होता है। शास्त्रीय मान्यता है कि नाटकों में श्रृङ्गार या वीर अङ्गी रस होना चाहिए। नाटककार भवभूति ने श्रृङ्गार और वीर रस प्रधान नाटक लिखने के बाद अपनी यह मान्यता स्थापित की, कि करुण रस प्रधान नाटक भी लिखा जा सकता है और साथ ही उसके आदर्शभूत उत्तररामचरितम् की रचना भी की।

उत्तररामचरितम् में वे कवित्व में महाकवि कालिदास से भी आगे निकल गए हैं, इसीलिए समीक्षक यह भी कहते हैं कि भवभूति तो महाकवि हैं कवयः कालिदासाद्या भवभूतिर्महाकविः। श्रीराम के रामायण में वर्णित उत्तर चरित के अन्य कवियों की अपेक्षा भवभूति के द्वारा उत्तररामचरितम् में समुत्कृष्ट वर्णन करने के कारण विद्वान् समालोचकों ने यह भी कहा कि उत्तरे रामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते। वस्तुतः उनके तीनों रूपक नाट्यशास्त्रीय अध्ययन अर्थात् वस्तु, नेता और रस की कसौटी पर खरे उतरते हैं।

महाकवि भवभूति की नाट्य-कृतियों के अध्ययन-अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उनका शास्त्रीय और कला विषयक ज्ञान अगाध था। उन्होंने वेद, उपनिषद्, दर्शन, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीति, धनुर्वेद, साहित्य, कामशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, संगीत, नृत्य, चित्रकला, मनोविज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि का गम्भीर अध्ययन किया था। उनकी कृतियों में पाण्डित्यसूचक अनेक स्थल प्राप्त होते हैं। मालतीमाधवम् में उन्होंने स्वयं को वेद, उपनिषद्, सांख्य, योग आदि विविध शास्त्रों का विद्वान् कहा है- यत् वेदाध्ययनं तथोपनिषदां साँख्यस्य योगस्य च (मालतीमाधवम्, 1/8) और तोनों रूपकों में अपने आपको 'पदवाक्यप्रमाणज्ञः' कहा है, जिसका अभिप्राय है कि वे व्याकरण, मीमांसा और न्यायशास्त्र के विद्वान् थे।

वस्तुतः नाटककार भवभूति की असाधारण ख्याति के कारण हैं- उनका भाषा पर पूर्ण अधिकार, प्रसाद, माधुर्य और ओज गुणों से युक्त शैली, वर्णनों में असाधारण पटुता, मानवीय भावनाओं का सूक्ष्मतम अध्ययन और विवेचन, गम्भीर से गम्भीर भावों को सरल और सुबोध भाषा में प्रकट करना, भाषा में प्रौढ़ता, उदारता और अर्थगाम्भीर्य। भवभूति गौड़ी रीति के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उन्होंने मालतीमाधवम् और महावीरचरितम् में गौड़ी रीति को अपनाया है। करुण रस प्रधान होने के कारण उत्तररामचरितम् के वर्णनों में वैदर्भी रीति है और वीर रस और प्रकृति वर्णनों में गौड़ी रीति है। इस प्रकार उत्तररामचरितम् में गौड़ी और वैदर्भी रीति का मणि-कांचन संयोग है।

भवभूति ही ऐसे महाकवि हैं, जिनकी रचनाओं में प्रसाद, माधुर्य और ओज-इन तीनों गुणों का समान रूप से सम्मिश्रण मिलता है। करुण रस तथा सामान्य प्रकृति-वर्णनों में वैदर्भी रीति का आश्रय लेने से प्रसाद और माधुर्य गुणों का तथा वीर रस और प्रकृति के भयावह वर्णनों में ओज गुण का अत्यन्त मनोहारी परिपाक हुआ है। भवभूति का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। उनमें यह शक्ति है कि वे भाषा को अपनी अँगुलि पर नचा सकें। वे अपने आपको 'वश्यवाक्' कहते हैं और वाणी को अपनी अनुवर्तिनी बनाते हैं। उनकी भाषा सरल और क्लिष्ट, सुबोध और दुर्बोध, कोमल और कठोर, समास-रहित और समास प्रधान-इन परस्पर विरोधी गुणों से युक्त है। भवभूति का शब्द कोष अगाध है। वे भाव और प्रसंग के अनुसार सरल से सरल और कठिन से कठिन शब्दावली का अत्यन्त दक्षता के साथ प्रयोग करते हैं। प्रत्येक स्थान पर अत्यन्त उपयुक्त और सार्थक शब्दों का ही उनकी कृतियों में प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। भाषा और शब्दकोष पर असाधारण अधिकार के कारण भाषा में असाधारण मनोरमता, प्रौढ़ता, प्राञ्जलता, परिष्कार और अर्थ-गाम्भीर्य प्राप्त होते हैं। श्रृङ्गार, करुण और शान्त रसों के प्रयोग में भाषा अत्यन्त सरल और सुबोध है। वीर, बीभत्स, भयानक, रौद्र और अद्भुत रसों के वर्णन में शब्दावली क्लिष्ट और दुर्बोध है। भवभूति की भाषा सबल, संपुष्ट और परिष्कृत है। वे गम्भीर से गम्भीर भावों को अत्यन्त परिष्कृत और प्रभावपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त करने में निष्णात हैं। उन्होंने भावों के अनुकूल शैली अपनाई है और तदनुसार ही शब्दावली का संचयन किया है। उनकी भाषा में ऐसी शक्ति है कि वे करुण रस के प्रसंग में कठोर हृदय व्यक्ति को भी रुला दें, वीर रस के वर्णन में निर्जीव में भी उत्साह भर दें और मनोभावों के वर्णन में मनोवैज्ञानिक को भी चमत्कृत कर दें। भवभूति की शैली विवरणात्मक, व्याख्यात्मक और वाच्यार्थ प्रधान है। उनके रूपकों में अभिधा वृत्ति मुख्य है। लक्षणा और व्यंजना वृत्तियों का न्यूनतम आश्रय लिया गया है, अतः वे वर्ण्य वस्तु का सांगोपांग चित्रण प्रस्तुत करते हैं। वर्णन ऐसे व्यापक हैं कि उनके द्वारा वस्तु का चित्र सा उपस्थित हो जाता है (उ०रा०, 4/19)।

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