| Specifications |
| Publisher: POOJA PRAKASHAN, DELHI | |
| Author Sant Gyaneshwar | |
| Language: Sanskrit Text with Hindi Translation | |
| Pages: 502 (With B/W Illustrations) | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 660 gm | |
| HBF405 |
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भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रारंभ वैदिक वाङ्गमय से होता है जिसमें ज्ञान, भक्ति, कर्म, मुक्ति, उपासना, ब्रह्म, ईश्वर, माया, जीवात्मा आदि अनेक विषयों का विपुल भंडार है। वेदों का अंतिम भाग ज्ञानकांड है जो उपनिषदों में वर्णित है। इसको वेदांत कहते हैं। ज्ञान ज्योति को सतत् प्रज्वलित रखने में आदिशंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानंद, संत कबीर, दत्तात्रेय, अष्टावक्र आदि ने विशेष भूमिका निभाई है।
हिंदू ज्ञान परंपरा की एक खूबी उसकी सहिष्णुता है जिसमें न केवल हिंदू उपासना पद्धति को, बल्कि अन्य धर्मों की उपासना पद्धतियों को भी स्थान दिया गया है। यह एक ऐसी जीवन शैली है जो सृष्टि की समग्रता को अंगीकार करती है। गीता में उपनिषदों का सार और भारतीय वेदांत के दर्शन किए जा सकते हैं। वैसे तो गीता पर अनेक भाष्य हुए हैं, लेकिन श्रीमद्भगवद् गीता की अपनी विशेष पहचान है। गीता की सबसे बड़ी विशेषता उसकी उदारता और व्यापक दृष्टिकोण है।
श्रीमद्भगवद् गीता में तत्त्व और धर्म मीमांसा का मिश्रण है। चूंकि यह संस्कृत में होने के कारण अनेक लोग संस्कृत का ज्ञान न होने से इसके वास्तविक ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं। आदि शंकराचार्य ने इसे ज्ञान ग्रंथ माना है, तो लोकमान्य गंगाधर तिलक ने इसे कर्मयोग ग्रंथ माना है। वस्तुतः गीता तत्त्व ज्ञान का ग्रंथ है। गीता में अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने को 'स्वधर्म' कहा गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान, कर्म, भक्ति और योग का वर्णन अर्जुन के माध्यम से किया है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले ज्ञान मार्ग का उपदेश दिया है।
कोई भी साधना चित्त की वृत्तियों को एकाग्र करके उनका निरोध करने से संपन्न होती है तभी आत्मा की अनुभूति होती है जो योग का एक मार्ग है। चूंकि अर्जुन रजोगुणी प्रवृत्ति का था, अतः कृष्ण ने उसे कर्म योंग का विकल्प दिया जो उसके स्वभाव के अनुसार थ। फिर भी अर्जुन द्वारा आपत्तियां करते रहने पर श्रीकृष्ण ने उसे अंततः भक्ति-मार्ग बताया। भक्ति के मार्ग में तर्कों का कोई महत्व नहीं है। भक्त सभी को ईश्वरीय मानकर स्वीकार करता है।
भक्ति का आधार श्रद्धा है। अपने सभी कर्मों को ईश्वरार्पण कर देना ही भक्ति की महानता है।
संत ज्ञानेश्वर दिव्य विभूति संपन्न थे। उनके द्वारा रचित ज्ञानेश्वरी तत्त्व रत्नों की निधि है। गीता की अब तक हुई टीकाओं में ज्ञानेश्वरी का स्थान सर्वोत्तम है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें किसी संप्रदाय विशेष की मुहर नहीं है। इसमें जो कुछ भी कहा गया है वह सांप्रदायिक भावों से अलग रहते हुए गीता के वास्तविक अर्थ को समझने के दृष्टिकोण से कहा गया है। इसकी टीका आज से साढ़े छह सौ वर्ष पूर्व की गई थी। फिर भी इसकी भाषा सरल, सरस, भावगम्य है।
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