निर्मल कहते हैं, 'अकसर सोचता हूँ, कौन-सा सही तरीक़ा है, किसी देश के जातीय गुण जानने का! शायद बहुत छोटी बातों से, जिनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है, जिन्हें नजरअन्दाज किया जा सकता है'- निर्मल वर्मा का यात्री-मन शहरों, देशों, समाजों, ऐतिहासिक स्थलों, म्यूज़ियमों, पबों और बारों में किसी भी देश के भूत-भविष्य और वर्तमान को ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से जानता और पाठक तक पहुँचाता है। शायद इसीलिए उनके यात्रा-विवरणों को पढ़ना न थकाता है, न बोझिल करता है, उलटे हम जैसे अपने ऊपर ठहरी अपने दैनन्दिन जीवन की थकान को उनके गद्य के प्रवाह में तिरोहित करते जाते हैं; हल्के और प्रकाशित महसूस करते हुए। 'चीड़ों पर चाँदनी' (प्रथम प्रकाशन 1964) न सिर्फ़ निर्मल वर्मा के उत्कृष्ट गद्य का नमूना है, बल्कि एक यात्रा-वृत्तान्त के रूप में भी यह पुस्तक एक मानक का दर्जा हासिल कर चुकी है। जिन यात्राओं का वर्णन इस पुस्तक में उन्होंने किया है, वे सिर्फ़ बाहर की यात्राएँ नहीं हैं, न सिर्फ़ उस क्षण तक सीमित जब वे की जा रही थीं- ये भीतर की यात्राएँ भी हैं, और स्मृतियों की भी, इतिहास की भी। उन शहरों और सड़कों की यात्राएँ जिन पर कहीं अतीत के विध्वंसों के अवशेष आपको चौंका देते हैं, अवसाद से भर देते हैं तो कहीं महान लेखकों, चित्रकारों, कलाकारों की कालातीत मौजूदगी उम्मीद से भर देती है, जिन्होंने अपने समय में मनुष्य के लिए दूर तक जानेवाली राहें बनाई थीं।
कहानी, निबन्ध, डायरी और यात्रा-वृत्त-इन सब विधाओं का परिपाक इस पुस्तक में हुआ है। इन यात्राओं से गुजरते हुए हम एक से ज्यादा स्तरों पर समृद्ध होते हैं।
निर्मल वर्मा हिन्दी कथा-साहित्य के अन्यतम हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म 3 अप्रैल, 1929 को शिमला में हुआ था। वे अपने मौलिक लेखन के लिए जितने लोकप्रिय रहे, उतने ही विश्व-साहित्य के अपने अनुवादों के लिए। वैचारिक चिन्तन और हस्तक्षेप के लिए भी समादृत। लेखन के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता और पद्मभूषण सहित अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। भारत सरकार द्वारा 2005 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किये गए। उसी वर्ष 25 अक्तूबर को नई दिल्ली में देहावसान ।
अरसे बाद अपने इन स्मृति-खंडों को दोबारा पढ़ते समय मुझे एक अजीब-सा सूनापन अनुभव होता रहा है- कुछ वैसा ही रीता अनुभव, जब हम किसी ज़िन्दा फड़फड़ाते पक्षी को क्षण-भर पकड़कर छोड़ देते हैं-उसकी देह हमसे अलग हो जाती है लेकिन देर तक हथेलियों पर उसकी धड़कन महसूस होती रहती है। एक दूरी का अभाव जो सफ़री-सूटकेस पर विभिन्न देशों के लेबलों पर लटका रहता है-उन्हें न रख पाने का मोह रह जाता है, न फेंक पाने की निर्ममता ही जुड़ पाती है।
इन फटे-पुराने लेबलों के पीछे कितने चेहरे, हाथ से हाथ मिलाने के गरम स्पर्श, होटलों के ख़ाली कमरे छिपे हैं, क्या इनका लेखा-जोखा कभी सम्भव हो सकेगा?
शिमला के वे दिन आज भी नहीं भूला हूँ। सर्दियाँ शुरू होते ही शहर उजाड़ हो जाता था। आसपास के लोग बोरिया-बिस्तर बाँधकर दिल्ली की ओर 'उतराई' शुरू कर देते थे। बरामदे की रेलिंग पर सिर टिकाए हम भाई-बहन उन लोगों को बेहद ईर्ष्या से देखते रहते जो दूर अजनबी स्थानों की ओर प्रस्थान कर जाते थे। पीछे हमारे लिए रह जाते थे चीड़ के साँय-साँय करते पेड़, ख़ाली भुतहे मकान, बर्फ़ में सिमटी हुई स्कूल जानेवाली पगडंडी। उन सूनी, कभी न ख़त्म होनेवाली शामों में हम उन अजाने देशों के बारे में सोचा करते थे-जो हमेशा दूसरों के लिए हैं, जहाँ हमारी पहुँच कभी नहीं होगी। तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन अचानक अपने छोटे-से कमरे, ग्रामोफ़ोन, काग़ज़-पत्रों को छोड़कर बरसों 'सात समुद्र पार' रहना होगा।
बचपन में मेरा एक प्रिय प्राइवेट खेल था-कुछ-कुछ मॉर्बिड भी। रात को नींद की प्रतीक्षा करते हुए मैं सहसा अपने-आपसे पूछता था-फ़र्ज़ करो, अगले पाँच मिनिट में तुम मर जाओगे, इस बीच तुम कौन-सी चीजें याद करना चाहोगे? मैं तब कुछ इतना घबरा-सा जाता था कि जल्दी-जल्दी हड़बड़ाहट में कुछ भी याद नहीं आता था। आज यदि मैं अपने से यह प्रश्न पूहूँ तो मुझे निश्चय है कि स्मृति अनायास उन वर्षों और उनसे जुड़ी घटनाओं के आसपास घूमती रहेगी जिसके कुछ अंश इस पुस्तक में संगृहीत हैं- यह बात दूसरी है कि पाँच मिनिट की 'मुहलत' इस प्रक्रिया में एक-दो घंटे तक खिंच जाती है! उसके बाद भी मृत्यु का न आना एक चमत्कार-सा ही लगता है।
वास्तव में इस भूमिका में मैं इस 'चमत्कार' की ही चर्चा करना चाहता था। इन यात्राओं में अनेक ऐसी घड़ियाँ आई थीं जिन्हें शायद मैं आज याद करना नहीं चाहूँगा... लेकिन घोर निराशा और दैन्य के क्षणों में भी यह ख़याल कि मैं इस दुनिया में जीवित हूँ, हवा में साँस ले रहा हूँ, हमेशा एक मायावी चमत्कार-सा जान पड़ता था।
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