'तार सप्तक' का प्रकाशन जब हुआ, तब मन में यह विचार जरूर उठा था कि इसी प्रकार की पुस्तकों का. एक अनुक्रम प्रकाशित किया जा सकता है, जिस में क्रमशः नये आने वाले प्रतिभाशाली कवियों की कविताएँ संगृहीत की जाती रहें- ऐसे कवियों की जिन में इतनी प्रतिभा तो है कि उन की संगृहीत रचनाएँ प्रकाशित हों, लेकिन जो इतने प्रतिष्ठापित नहीं हुए हैं कि कोई प्रकाशक सहसा उन के अलग-अलग संग्रह निकाल दे। 'तार सप्तक' का आयोजन भी मूलतः इसी भावना से हुआ था, यद्यपि इस में साथ ही यह आदर्शवादी आरोप भी था कि संग्रह का प्रकाशन सहकार-मूलक हो। (जिन पाठकों ने यह संग्रह देखा है वे शायद स्मरण करेंगे कि इस आदर्श की रक्षा तब भी नहीं हो सकी थी; 'दूसरे सप्तक' में तो उसे निबाहने का यल ही व्यर्थ मान लिया गया था।)
तो 'तार सप्तक' के कवि ऐसे कवि थे, जिन के बारे में कम से कम सम्पादक की यह धारणा थी कि उन में 'कुछ' है, और वे पाठक के सामने लाये जाने के पात्र हैं; यद्यपि वे हैं 'नये' ही, केवल 'कवियशः प्रार्थी' ही और इस लिए काव्यक्षेत्र के अन्वेषी ही। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन में से सभी अनन्तर काव्य-क्षेत्र में आगे बढ़े-कम से कम एक ने तो न केवल ऐलान कर के कविता छोड़ दी बल्कि क्रमशः कविता के ऐसे आलोचक हो गये कि उसे साहित्य-क्षेत्र से ही खदेड़ देने पर तुल गये; और बाक़ी में से दो-एक और भी कविता से उपराम-से हैं। फिर भी, हम आज भी समझते हैं कि 'तार सप्तक' का प्रकाशन प्रकाशन ही नहीं, उस का आयोजन, संकलन, सम्पादन न केवल समयोचित और उपयोगी था बल्कि उसे हिन्दी काव्य-जगत् की एक महत्त्वपूर्ण घटना भी कहा जा सकता है। और आलोचकों द्वारा उस की जितनी चर्चा हुई है उसे 'सप्तक' के प्रभाव का सूचक मान लेना कदाचित् अनुचित न होगा।
'दूसरा सप्तक' में फिर सात नये कवियों की संगृहीत रचनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। सात में से कोई भी हिन्दी-जगत् का अपरिचित हो, ऐसा नहीं है, लेकिन किसी का कोई स्वतन्त्र कंविता-संग्रह नहीं छपा है, अतः यह कहा जा सकता है कि प्रकाशित कविता-ग्रन्थ के जगत् में ये कवि इसी पुस्तक के साथ प्रवेश कर रहे हैं। और हमारा विश्वास है कि हिन्दी में सम्प्रति जो काव्य-संग्रह छपते हैं; उन में कम ऐसे होंगे जिन में अच्छी कविताओं की इतनी बड़ी संख्या एकत्र मिले, जितनी 'दूसरा सप्तक' में पायी जायेगी।
क्या ये रचनाएँ प्रयोगवादी हैं ? क्या ये कवि किसी एक दल के हैं, किसी मतवाद -राजनीतिक या साहित्यिक के पोषक हैं? 'प्रयोगवाद' नाम के नये मतवाद के प्रवर्तन का दायित्व क्योंकि अनचाहे और अकारण ही हमारे मत्थे मढ़ दिया गया है, इस लिए हमारा इन प्रश्नों के उत्तर में कुछ कहना आवश्यक है, और नहीं तो इसी लिए कि 'दूसरा सप्तक' के संगृहीत कवि आरम्भ से ही किसी पूर्वग्रह के शिकार न बनें, अपने कृतित्व के आधार पर ही परखे जायें।
प्रयोग का कोई बाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने-आप में इष्ट या साध्य है। ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है; कविता भी अपने-आप में इष्ट या साध्य नहीं है। अतः हमें 'प्रयोगवादी' कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें 'कवितावादी' कहना। क्योंकि यह आग्रह तो हमारा है कि जिस प्रकार कविता-रूपी माध्यम को बरतते हुए आत्माभिव्यक्ति चाहने वाले कवि को अधिकार है कि उस माध्यम का अपनी आवश्यकता के अनुरूप श्रेष्ठ उपयोग करे, उसी प्रकार आत्म-सत्य के अन्वेषी कवि को, अन्वेषण के प्रयोग-रूपी माध्यम का उपयोग करते समय उस माध्यम की विशेषताओं को परखने का भी अधिकार है। इतना ही नहीं, बिना माध्यम की विशेषता, उस की शक्ति, और उस की सीमा को परखे और आत्मसात् किये उस माध्यम का श्रेष्ठ उपयोग हो ही नहीं सकता। जो लोग प्रयोग की निन्दा करने के लिए परम्परा की दुहाई देते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि परम्परा, कम से कम कवि के लिए, कोई ऐसी पोटली बाँध कर अलग रखी हुई चीज नहीं है, जिसे वह उठा कर सिर पर लाद ले और चल निकले। (कुछ आलोचकों के लिए भले ही वैसा हो।) परम्परा का कवि के लिए कोई अर्थ नहीं है जब तक वह उसे ठोक-बजा कर, तोड़-मरोड़ कर देख कर आत्मसात् नहीं कर लेता; जब तक वह एक इतना गहरा संस्कार नहीं बन जाती कि उस का चेष्टापूर्वक ध्यान रख कर उस का निर्वाह करना अनावश्यक न हो जाये। अगर कवि की आत्माभिव्यक्ति एक संस्कार-विशेष के वेष्टन में ही सहज सामने आती है, तभी वह संस्कार देने वाली परम्परा कवि की परम्परा है, नहीं तो वह इतिहास है, शास्त्र है, ज्ञान-भण्डार है जिस से अपरिचित भी रहा जा सकता है। अपरिचित ही रहा जाये, ऐसा आग्रह हमारा नहीं है- हम पर तो बौद्धिकता का आरोप लगाया जाता है! पर इस से अपरिचित रह कर भी परम्परा से अवगत हुआ जा सकता है और कविता की जा सकती है।
तो प्रयोग अपने-आप में इष्ट नहीं है, वह साधन है और दोहरा साधन है। क्योंकि एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे वह उस प्रेषण की क्रिया को और उस के साधनों को जानने का भी साधन है। अर्थात् प्रयोग-द्वारा कवि अपने सत्य को अधिक अच्छी तरह जान सकता है और अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकता है। वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग फलप्रद होता है। यह इतनी सरल और सीधी बात है कि इस से इनकार करना चाहना कोरा दुराग्रह है; ऐसे दुराग्रही अनेक हैं और उस वर्ग में हैं जो साहित्य-शिक्षण का दायित्व लिये हैं, इस से हमें आतंकित न होना चाहिए। जिस वर्ग की घोषित नीति यह है कि उन के द्वारा ग्राह्य होने के लिए कोई वस्तु या रचना तीन सौ वर्ष पुरानी तो होनी ही चाहिए, उस वर्ग से आज की कविता पर बहस कर के क्या लाभ ? उस से तो तीन सौ वर्ष बाद बात करना अलम् होगा और तब कदाचित् वह अनावश्यक होगा क्योंकि आज का प्रयोग तब की परम्परा हो गयी होगी-उन की परम्परा ! छायावाद जब एक जीवित अभिव्यक्ति था, तब वह जिन्हें अग्राह्य था, आज वे उस के समर्थक और प्रतिपादक हैं, जब वह मृत हो चुका; आज वे उसे उन से बचना चाहते हैं जिन में आज का जीवित सत्य अभिव्यक्ति खोज रहा है, भले ही अटपटे शब्दों में।
प्रयोग का हमारा कोई वाद नहीं है, इस को और भी स्पष्ट करने के लिए एक बात हम और कहें। प्रयोग निरन्तर होते आये हैं, और प्रयोगों के द्वारा ही कविता या कोई भी कला, कोई भी रचनात्मक कार्य, आगे बढ़ सका है। जो कहता है कि मैं ने जीवन-भर कोई प्रयोग नहीं किया, वह वास्तव में यही कहता है कि मैं ने जीवन-भर कोई रचनात्मक कार्य करना नहीं चाहा; ऐसा व्यक्ति अगर सच कहता है तो यही पाया जायेगा कि उस की 'कविता' कविता नहीं है; उस में रचनात्मकता नहीं है, वह कला नहीं, शिल्प है, हस्तलाघव है। जो उसी को कविता मानना चाहते हैं, उन से हमारा झगड़ा नहीं है। झगड़ा हो ही नहीं सकता। क्योंकि हमारी भाषाएँ भिन्न हैं, और झगड़े के लिए भी साधारणीकरण अनिवार्य है! लेकिन इस आग्रह पर स्थिर रहते हुए भी हमें यह भी कहना चाहिए कि केवल प्रयोगशीलता ही किसी रचना को काव्य नहीं बना देती। हमारे प्रयोग का पाठक या सहृदय के लिए कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व उस सत्य का है जो प्रयोग द्वारा हमें प्राप्त हो। 'हम ने सैकड़ों प्रयोग किये हैं' यह दावा ले कर हम पाठक के सामने नहीं जा सकते, जब तक हम यह न कह सकते हों कि 'देखिए, हम ने प्रयोग द्वारा यह पाया है।' प्रयोगों का महत्त्व कर्ता के लिए चाहे जितना हो, सत्य की खोज, लगन, उस में चाहे जितनी उत्कट हो, सहृदय के निकट वह सब अप्रासंगिक है। पारखी मोती परखता है, गोताखोर के असफल उद्योग नहीं। गोताखोर का परिश्रम या प्रयोग अगर प्रासंगिक हो सकता है तो मोती को सामने रख कर ही - 'इस मोती को पाने में इतना परिश्रम लगा' बिना मोती पाये उस का कोई महत्त्व नहीं है।
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