आज से हजारों वर्ष पूर्व चीन वासियों ने यह पता लगा लिया था कि प्रकृति से संघर्ष का रास्ता छोड़ कर यदि सामंजस्य स्थापित किया जाए तो उससे जीवन स्तर को विकसित किया जा सकता है। उन्होंने यह भी अनुभव किया था कि घर का मुख अगर दक्षिण की ओर गर्माहट देने वाले सूर्य की ओर हो तो जीवन आसान होता है, साथ ही घर के पिछवाड़े पहाड़ियां भी होनी चाहिए ताकि उत्तर की शीतल हवाओं से भी रक्षा हो सके। अतः स्पष्ट है कि वे अपने घर के सम्मुख मंथर गति से प्रवाहित जल को देखना पसंद करते थे।
फिर धीरे-धीरे समय के साथ-साथ विभिन्न उपायों को परखा गया जिसके फलस्वरूप फेंग-शूई के मूलभूत सिद्धांत उभर कर आए। फेंग-शूई की कला लगभग 5000 वर्ष पुरानी है तथा कोई नहीं जानता कि इसका प्रचलन कब और कैसे प्रारंभ हुआ। वैसे इसका श्रेय प्रागैतिहासिक कालीन चीन के पांच पौराणिक शासकों में से शिया के वू को दिया जाता है।
सदियों पुराने इतिहास के अनुसार वू जब पीली नदी पर सिंचाई संबंधी काम करा रहा था तो नदी में से एक विशालकाय कछुवा निकला था। उसे शुभ संकेत माना गया क्योंकि उस जमाने में विश्वास था कि कछुवे की खोपड़ी के अंदर देवता निवास करते हैं। जब वू और उसके साथियों ने कछुवे को ध्यान से देखा तो पाया कि उसकी खोपड़ी के ऊपर 3×3 का चमत्कारिक वर्ग स्पष्ट रूप से आंकित । तब वू और उसके विद्वानों ने उसे विशिष्ट खोज मान कर लंबे समय तक उसका अध्ययन किया। फिर उसी खोज से फेंग-शूई, आइ चिंग, चीनी ज्योतिष्य शास्त्र तथा अंक शास्त्र का जन्म हुआ।
चीन में प्रचलित एक कहावत यह दर्शाती है कि वहां के निवासियों के लिए फेंग-शूई कितनी महत्वपूर्ण है। कहावत है- "पहले नियति, फिर भाग्य आता है। तीसरे स्थान पर फेंग-शूई के पश्चात् परोपकार तथा शिक्षा आती है।" किसी की जन्मपत्री से उसकी नियति का पता चलता है अर्थात् शक्तियों व कमजोरी का। भाग्य को परिभाषित करना कठिन है फिर भी शेष चार सिद्धांतों पर अमल कर भाग्य को सुधारा जा सकता है। वैसे भाग्य को वह मानसिक स्थिति माना जा सकता है जो कि उसे आकर्षित करती है जो हम सोचते हैं। तीसरे स्थान पर फेंग-शूई आती है जिसका उपयोग कर हम ब्रह्मांड के साथ सामंजस्यता पूर्ण ढंग से रह सकते हैं। परोपकार का स्थान इसके बाद आता है। चीन की प्राचीन दार्शनिक व धार्मिक पुस्तकें इस बात पर जोर देती हैं कि हमें फल की इच्छा किए बिना निःस्वार्थ रूप से देना चाहिए। अंत में शिक्षा आती है जो एक प्रकार से जीवन पर्यंत चलती है।
पाश्चात्य देशों के निवासियों को विगत 25 वर्ष पूर्व ही फेंग-शूई का पता चला था क्योंकि एशियाई संस्कृति के व्यक्ति फेंग शूई को इतना महत्वपूर्ण मानते थे कि उन्होंने जानबूझ कर इसे गुप्त रखा था। किंतु हाल ही के वर्षों में अन्य देशों में जाकर बसने वाले एशियाई व्यक्ति अपने साथ फेंग-शूई को भी ले कर गए थे। यही कारण है कि आज से फ्रांसिसको, मास्को तथा ब्यूनस आर्यस में लोग-बाग उसी प्रकार फेंग-शूई पर विचार करते मिल जाएंगे जिस प्रकार हांग कांग, क्वालालंपुर या सिंगापुर में।
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