तिष्ठन्तीं शववक्षसि स्मितमुखीं हस्ताम्बुजैर्बिभ्रतीं
मुण्डं खङ्गवराभयानि विजितारातिब्रजां भीषणाम् ।
मुण्डस्रकप्रविकाशमानविपुलोत्तुङ्गस्तनोद्धासिनीं
नत्वा जातकभूमिकां वितनुते नन्दोऽच्युतादिः कृती ।।
प्राचीन और आधुनिक इतिहासों द्वारा यह सर्वथा सिद्ध हो चुका है कि उपलब्ध पुस्तकों में सब से प्राचीन वेद है। इसको अपौरुषेय कहते हैं अर्थात् किसी मनुष्य ने इसको नहीं बनाया किन्तु मनुष्यों के कल्याणार्थ सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने त्रिकालज्ञ ऋषियों द्वारा सृष्टि के आदि में प्रकाशित किया ।
इसके व्याकरण आदि है अङ्ग हैं, जैसे व्याकरण मुख, ज्यौतिषशास्त्र नेत्र, निरुक्त कान, कल्प हाथ, शिक्षा नासिका और छन्द पैर हैं। कहा भी है-
शब्दशास्त्रं मुखं ज्यौतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं च कल्पः करौ ।
या तु शिक्षाऽस्य वेदस्य सा नासिका पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधैः ।।
वेद का नेत्र होने के कारण ज्यौतिष शास्त्र सब अङ्गों में श्रेष्ठ गिना जाता है। क्योंकि अन्य सब अङ्गों से युत भी मनुष्य नेत्रहीन होने पर कुछ भी नहीं कर सकता है। अतः श्रीमान् भास्कराचार्य ने सिद्धान्तशिरोमणि में कहा है-
वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्यौतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते ।
संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभि श्चक्षुषाङ्गेनहीनो न किञ्चित्करः ।।
इसके सिद्धान्त, फलित ये प्रधान दो भाग है। सिद्धान्त उसको कहते हैं जिसमें भूगोल, खगोल आदि का वर्णन है।
फलित जन्म समय से लेकर मरण पर्य्यन्त हरेक मनुष्य की सारी जीवन घटनाओं
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