लेखक परिचय
डॉ० विष्णुराम नागर पुत्र ५० श्री शिवलाल नागर का जन्म १३ सितम्बर, १९१६ को उदयपुर (राजस्थान) में हुला था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक तथा आगरा विश्वविद्यालय से संस्कृत व हिन्दी में स्नातकोत्तर परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उसीर्ण करने के बाद आप महाराणा भूपाल महाविद्यालय (बाद में सुखाड़िया विश्वविद्यालय), उदयपुर में संस्कृत के व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए । दक्षिणी राजस्थान के इस प्रमुख शिक्षण केन्द्र में आपने लगभग बार दशकों तक यशस्विता के साथ संस्कृत शिक्षण का कार्य किया। इसी विश्वविद्यालय से पी-एम० डी० की उपाधि प्राप्त करके आपने अनेक शोध छात्रों का सफल मार्गदर्शन भी किया। 'आधुनिक काव्य-संचय', 'आधुनिक गय कौमुदी' और 'संस्कृत-सुषमा' पुस्तकों के सम्पादन के अतिरिक्त आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए अनेक लेख लिखे। आकाशवाणी उदयपुर ने भारतीय साहित्य और संस्कृति पर आपकी अनेक बार्ताबों का प्रसारण किया। सन् १९७८ में सेवानिवृत्ति के बाद भी आप अनेक प्रकार की सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न रहे। ५ दिसम्बर, १९९३ को आप विष्णुलोकवासी हुए ।
प्राक्कथन
संस्कृत-हिन्दी के प्रौढ़ विद्वान् (स्व०) डॉ विष्णुराम नागर का मूळ शोधप्रबन्ध 'कालिदास के काव्यों में सादृश्येतर बलङ्कारों का प्रयोग यद्यपि दो दशक पूर्व लिखा गया थाः किन्तु अपने ढंग का सर्वथा मौलिक और गम्भीर कार्य होने पर भी नियतिवशात् प्रकाशन से बश्चित रहा। डॉ० नागर के एकमात्र पुत्र श्री राकेश नागर ने जब इस इच्छा को मेरे समक्ष रखा तब मुझे उनको सत्तुत्रोचित भावना, वन्य की महत्ता एव डॉ० नागर के शिव्यरूर में आने दायित्व-प्रबोध ने इस गुरुतर कार्य को स्वीकार करने के लिए तत्पर किया जिसके फलस्वरूप संपादन-प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ। इस क्रम में विषय-निर्वाह, निष्कर्ष एवं भाषा-शैली के मूल स्वरूप में बड़ा परिवर्तन किये बिना साधप्रबन्ध को प्रकारानोचित स्वरूप देने के लिए, शीर्षक, उपशीर्षक, पादटिप्पणियों, सन्दर्भी को पुष्टि-संशाधन आदि कार्यों में जो भी आवश्यक प्रतीत हुआ, वह किया गया। सम्प्रति यह विनयपूर्वक पाटकों के समक्ष प्रस्तुत है। संस्कृत हिन्दी साहित्य के कवि, आर्यासम्राट् एवं शतकवीर डॉ० शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदो (पूर्व अध्यक्ष, साहित्य विभाग, संस्कृतविद्याधर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) द्वारा रचित 'अलङ्कार-कौतुकम्' भी यहाँ संग्रथित है। डॉ० नागर के सहृदय सहयोगों एवं मेरे अद्धय गुरुवर प्रो० मूलचन्द्र पाठक ने, अत्यन्त आत्मीयभाव से प्रन्य को प्रराचना लिखकर जो सहयोग किया है उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ है।.
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