महापुरुषों के तात्विक विचार समझने में कठिनाई
(क) सिद्ध तथा साधक की स्थिति में अन्तर - साधारण आचार सम्बन्धी परिधि से निकल कर मनुष्य जब अध्यात्मिक परिधि में प्रवेश करता है, या प्रतीयमान वस्तु तत्त्व की ओर अथवा बाह्य स्थूल रस्मोरिवाज से उनके आधारभूत नियम या भाव की ओर बढ़ता है तो मनुष्य के दृष्टिकोण में इतना बड़ा अन्तर पड़ जाता है और मानसिक स्थिति एक दूसरे से इतनी विलक्षण हो जाती है कि एक दूसरे के आचार व्यवहार को समझना असंभव नहीं तो अति कठिन अवश्य हो जाता है। विशेषतया निचली श्रेणी के लोग उच्च श्रेणी के विचारों तथा भावों की कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसी महान आत्माओं के प्रति समाज तथा मज्जह्व के अत्याचारों का कारण यही होता है। इसीलिए एक साधक के लिए महात्मा के वचनों के यथार्थ भाव को समझना अति कठिन है ।
(ख) साधक स्थिति अनुसार तत्कालोचित उत्तर - यह कठनिता कई बार इसलिए भी बढ़ जाती है कि आचार्य कभी २ जिज्ञासु' को उसकी मानसिक अवस्था के अनुसार ऐसे पथ पर डालता है-ऐसी शिक्षा देता है-उसके प्रश्नों का वह उत्तर देता है जो कि उन प्रश्नों का अन्तिम और वास्तविक समाधान नहीं होता। परन्तु क्योंकि जिज्ञासु अन्तिम तथ्य को समझने में असमर्थ होता है, अतः अधूरे तत्कालोचित (Provisional) उत्तर अधिक उपयोगी होने के कारण दे दिए जाते हैं।
मुझे भगवान् सियारामजी के चरण कमलों में बैठ कर इस बात का अनुभव हुआ है। उनकी शिक्षा के तात्पर्य के सम्बन्ध में मेरी सम्मति दिनप्रतिदिन परिवर्तित होती रही है। इसलिए मुझे उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कहने का साहस नहीं होता; क्योंकि यदि किसी मेरे प्रश्न का उन्होंने कोई वास्तविक और अन्तिम उत्तर दिया हो तो मैं कदाचित् उसके भाव को न समझ सका हूँ और यदि वह उत्तर मेरी मानसिक स्थिति के अनुसार था तो वह अन्तिम तथ्य नहीं हो सकता ।
किसी परम्परा शिक्षा सम्पन्न अनुभवी महात्मा द्वारा इस ग्रन्थ का अध्ययन आचार्यवान् पुरुषो वेद ।
छान्दोग्योपनिषद् ६।१४।१
स्वतन्त्र निज पुरुषार्थ भाग से शास्त्रोक्त सूक्ष्म विषयो का यथार्थ बोध नहीं हो सकता, (श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ) आचार्य को शिक्षा द्वारा ही शास्त्र रहस्य का ज्ञान हो सकता है।
अतः मैंने इन्हीं कारणों से उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ लिखना उचित न समझा। परन्तु आदरणीय मित्रों की आज्ञा का पालन ही करना पड़ा। यद्यपि मेरा तो यह विचार है कि ऐसे लेख क्रियात्मिक रूप में अधिक लाभप्रद न हो कर प्रायः हानिकारक ही सिद्ध हुआ करते हैं। ऐसी अवस्थ विशेषतया जब कि न्यून-योग्यता वाले उच्च शिक्षा पर बिना समझे बूझे आचरण करते हैं।
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