भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर पुराणों का सर्वाधिक प्रभाव है अथवा पुराणों पर भारत की इस विशेषता का प्रभाव है, इस मत पर एकराय होना कठिन है। किन्तु यह ठीक लगता है कि अपेक्षित सांस्कृतिक मूल्यों ने पुराणों के कलेवर में विपुल विस्तार दिया है। पुराण केवल सर्ग, प्रतिसर्ग, मन्वन्तर, वंश और वंशानुकीर्तन जैसे पंचतत्त्वों के धारक ही नहीं, वे देश-देशान्तर, गोल-भूगोल, काल-प्रमाण आदि के स्रोत भी हैं और सृजन की विकासशील परम्परा के प्रतीक भी हैं। वे कई अर्थों में इतिहास के कोश भी हैं। यह इतिहास केवल राजवंशों और राजाओं का ही नहीं, मानव और उसके उद्भव एवं विचरण स्थलों, आधि-व्याधियों का भी हो सकता है। इसी अर्थ में चरकसंहिता, अर्थशास्त्र, नाट्यशास्त्र, अंगविगा, विश्वकर्माप्रकाश, बृहत्संहिता आदि अनेक ग्रन्थ यह सूत्र लिए है कि किसी भी विषय का आरम्भ उसके ऐतिहासिक पक्ष के साथ हो और फिर उसका महत्त्व रेखांकित किया जाए। इसी कारण पुराणों का विकास माहात्म्य के साथ निरन्तर होता गया। विष्णु शर्मा मानते हैं कि जैसे अज्छी वर्षा हो तो एक बीज दूसरे बीज को उत्पन्न करता है, वैसे ही उपयोगी चर्चाओं को कहने-सुनने से रचनात्मक प्रक्रिया की सिद्धि होती है- उत्तरादुत्तरं वाक्यं वदतां सम्प्रजायते।
सुवृष्टिगुण सम्पन्नाद् बीजमिवापरम् ।।
(पञ्चतन्त्र, मित्रभेद 64)
पुराणों में यदि दर्शनीय स्थलों, तीथों, देवभूमि, नदियों और उनके उद्गम तथा प्रवाह क्षेत्रों, नगरों, देशों आदि की महिमा मिलती है तो उनका विस्तार माहात्म्य के रूप में भी हुआ। मूलकथाओं में जहाँ कहीं कोई अवसर मिला, उसका पगवन आगे हुआ है। मध्यकाल में विपुल रूप से माहात्म्य सामने आए। यही नहीं माहात्म्यों का मण्डन तक पुराणों के रूप में हुआ और अनेक ग्रन्थरत्न सामने आए। ये किसी विशेष स्थल से सम्बद्ध और महिमामूलक होने से स्थल-पुराण भी कहे गए। पुराणसंहिताओं का स्थल-क्षेत्र अथवा खण्ड के रूप में विस्तार हुआ, स्कन्दपुराण और पद्मपुराण इसके सुन्दर उदाहरण हैं। कुछ पुराणों का स्वरूप बृहद् जैसे विशेषण के साथ भी मिलता है बृहद्विष्णुपुराण, बृहद्धर्म, बृहद्वन्दिकेश्वरपुराण आदि।
स्थल माहात्म्य अथवा पुराणों में एकाम्रपुराण, धर्मारण्यपुराण, सरस्वतीपुराण, एकलिंगपुराण, हिंगुलापुराण, श्रीमालपुराण, अर्बुदपुराण, पुष्करपुराण आदि के नाम उगेखनीय हैं और इनमें से कई पुराण क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित रहे हैं। नीलमतपुराण कश्मीर से सम्बन्धित है और इसका एक नाम वितस्ता माहात्म्य भी है। वितस्ता प्रसिद्ध झेलम नदी का नाम है। यह स्वयं को उपपुराण कहता है और कश्मीर को एक मण्डल के रूप में प्रतिपादित करता है जबकि वितस्ता को परमेश्वरी के रूप में। कश्मीर की छटा अनेक तीर्थ और मन्दिरों से हैं, वहाँ पर नाग निर्मित पुण्यप्रद चश्मे हैं, पुण्यमय उगा शिलाएँ हैं। यही नहीं, वहाँ की नदियाँ पुण्यप्रदायक हैं, सरोवर पुण्यमय जलराशि को भण्डार हैं, देवालय तथा आश्रमों के पुण्यों का तो कहना ही क्या। उनके बीच में वितस्ता नदी सीमन्त-विभाग करती सी प्रवाहित होती है ऐसे नैसर्गिक दृश्य-भण्डार को देखकर रचनाकार का मन शब्दों की सरिता प्रवाहित करने लगता है-
कश्मीरामण्डलं पुण्यं सर्वतीर्थमन्दिरम्।
तत्र नागहदांपुण्यास्तत्र पुण्याः शिलोज्चयाः ।।
तत्र नद्यस्तथा पुण्याः पुण्यानि च सरांस्यपि।
देवालया महापुण्यास्तेषां चैव तथाश्रमाः ।।
तस्य मध्येन निर्याता सीमन्तमिव कुर्वती।
वितस्ता परमा देवी साक्षाद्धिमनगोद्भवा ।।
कृत्यकल्पतरुकार लक्ष्मीधर (1104-1154 ई.) ने ब्राह्मपुराण से वितस्तापूजा विषयक एक उद्धरण दिया है जिसमें कहा है कि यह पूजन भाद्रपद शुक्ला दशमी से होता है। सात दिवसीय इस पूजन में वितस्ता नदी के दर्शन, उसमें खान, जल संग्रहण और अर्चना एवं ध्यान की परम्परा रही। वहाँ भी वितस्ता को सती का अवतार बताया गया है। वितस्ता एवं सिन्धु के संगम पर विशेष पूजा की ओर भी संकेत किया गया है- यह एक प्रकार से सरिता के सम्मान-उत्सव रूप है। वहाँ रंगमंचीय अभिनेताओं एवं नर्तकवृन्दों का बहुमान भी होता था। (धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 4, पृष्ठ 200) नीलमतपुराण की अध्येता डॉ. वेदकुमारी ने सिद्ध किया है कि उक्त उदाहरण ब्राह्मपुराण से नहीं बल्कि नौलमत से ही है। निश्चित है कि यह परम्परा एक लोकप्रिय व्रत के रूप में रही तो इसके आधारसम्मत प्रचार की आवश्यकता भी रही होगी और इसी की परिणति हमें नीलमतपुराण के रूप में देखने को मिलती है। नीलमतपुराण से हमें स्थलपुराणों की अनेक विशेषताओं का अवबोध होता है। जैसे कुछ विशिष्टताएँ उदाहरण सहित यहाँ दी जा रही हैं-
1. किसी पूर्ववर्ती प्रसंग से सम्बद्ध होकर कथातत्त्वों और विषय का प्रवर्तन होना, जैसे नीलमतपुराण में जनमेजय द्वारा महाभारत के युद्ध से चर्चा आरम्भ की गई है और राजाओं की उसमें भागीदारी न होने का प्रश्न किया गया है- कथं कश्मीरको राजा नायातस्तत्र कीर्तय।
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