| Specifications |
| Publisher: Anita Publishing House, Ghaziabad | |
| Author Dharmchandra Vidyalankar | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 184 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 370 gm | |
| Edition: 2024 | |
| ISBN: 9788119977499 | |
| HAH958 |
| Delivery and Return Policies |
| Usually ships in 5 days | |
| Returns and Exchanges accepted within 7 days | |
| Free Delivery |
आजकल कथा-साहित्य ही सर्जना के केन्द्र में है, अपनी किस्सागोई अथवा कथन-शैली के कारण ही। परन्तु निबन्ध एक ही साथ विचार-बोध एवं आत्मपरकता से युक्त भी बने रहते हैं। उनमें ज्ञानात्मक संवेग कहीं पर भावात्मक संवेग से भारी रहता है। आखिर वह आलेखों का ही तो सर्जनात्मक स्वरूप है। निबन्ध भी कई प्रकार के होते हैं, जैसेकि विचारपरक, समीक्षात्मक, आत्मपरक एवं सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक निबन्ध। प्रस्त निबन्ध कृति में भी समीक्षात्मक निबन्ध शैली को छोड़कर आपको शेष सभी प्रकार की निबन्ध-शैलियों का निदर्शन मिलेगा । 'कुरुक्षेत्र के कगार' पर स्वयं उसी की सत्य साक्षी है।
मेरा मानस-मराल अधिकतर सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक और आत्माभिव्यंजक निबन्धों में ही कहीं अधिक रमता रहा है। कारण, मैंने अपने विद्यार्थी जीवन से ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के सांस्कृतिक निबन्धों का सतत भाव से ही स्वाध्याय किया है।
नाम : डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार 'समन्वित'
जन्मतिथि: 10/12/1956
जन्मस्थान: ग्राम व पोस्ट अल्लीका, जिला-पलवलv माता-पिता : श्रीमती रामकली व श्री रामचन्द कुंडू
शिक्षा : बी.ए. (अलंकार) एम.ए. हिन्दी, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं शोध उपाधि भी वहीं से प्राप्त की है। डॉ. अम्बेडकर आगरा विश्वविद्यालय से डी.लिट्. सन्त साहित्य पर की है।
व्यवसाय : तीस वर्षों तक एक स्नातकोत्तर महाविद्यालय (गो.ग. दत्त सनातन धर्म कॉलेज, पलवल) में अनवरत अध्यापन कार्य किया है।
रचनात्मक परिचय : कहानी संग्रह - (1) झूठी कसम तथा अन्य कहानियाँ (2) चौवीसी का चबूतरा (3) पगड़ी
संभाल जट्टा (4) आग की दहक (5) जिन्दगी के हाशिये पर (6) रोटी और रिश्ते (7) सांझी विरासत (8) चेतना की चिंगारी
निबन्ध संग्रह :(1) क्रान्ति और सक्रिय राजनीति (2) स्वदेशी और साम्राज्यवाद (3) ब्राह्मणवाद बनाम शूद्रवाद (4) आर्यों से अयोध्या तक (5) जाटों का नया इतिहास (6) कुरुक्षेत्र के कगार पर (7) त्रिवेणी के तट पर (8) बहता पानी निर्मला (9) दिग्दाह (10) वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति (11) साधो! यह मुर्दों का गाँव! (12) आरक्षण की व्यवस्था और सामाजिक न्याय (13) सूरजमल शौर्य गाथा (14) साम्राज्यवाद और स्वाधीनता संग्राम (15) शहीदे आजम का आज्ञातवास (15) बलिदान का प्रतिशोध
उपन्यास : (1) गोकुला (लघु उपन्यास) (2) दीनबंधु छोटूराम (महाकाव्यात्मक उपन्यास) पुरस्कार प्राप्ति
(1) हंस कविता पुरस्कार 2002 'हिसार' (2) चौ. हीरासिंह स्मृति पुरस्कार, आगरा, 2002 (3) स्वामी केशवानन्द साहित्य पुरस्कार, कुरुक्षेत्र, 2007 (4) डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप, 2008
आजकल कथा-साहित्य ही सर्जना के केन्द्र में है, अपनी किस्सागोई अथवा कथन-शैली के कारण ही। परन्तु निबन्ध एक ही साथ विचार-बोध एवं आत्मपरकता से युक्त भी बने रहते हैं। उनमें ज्ञानात्मक संवेग कहीं पर भावात्मक संवेग से भारी रहता है। आखिर वह आलेखों का ही तो सर्जनात्मक स्वरूप है। निबन्ध भी कई प्रकार के होते हैं, जैसेकि विचारपरक, समीक्षात्मक, आत्मपरक एवं सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक निबन्ध । प्रस्त निबन्ध कृति में भी समीक्षात्मक निबन्ध शैली को छोड़कर आपको शेष सभी प्रकार की निबन्ध-शैलियों का निदर्शन मिलेगा। 'कुरुक्षेत्र के कगार' पर स्वयं उसी की सत्य साक्षी है।
मेरा मानस-मराल अधिकतर सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक और आत्माभिव्यंजक निबन्धों में ही कहीं अधिक रमता रहा है। कारण, मैंने अपने विद्यार्थी जीवन से ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के सांस्कृतिक निबन्धों का सतत भाव से ही स्वाध्याय किया है। वैचारिक निबन्धों में भी मुझे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू गुलाबराय की निबन्ध शैली कहीं उत्तम अनुभव होती रही है। श्री रामधारी सिंह की 'संस्कृति के चार अध्याय' नामक निबन्ध-कृति ने भी मेरे लिए उज्ज्वल आलोकदीप का ही कार्य किया है। पं. प्रतापनारायण मिश्र और बाबू बालमुकुन्द गुप्त का खिलन्दड़ापन भी मुझे बहुत पसन्द है।
वैचारिक रूप से वैदिक साहित्य से लेकर उपनिषद् कालीन विचार वैभव यहाँ पर विद्यमान है तो बाद का ब्राह्मण एवं श्रमण-सांस्कृतिक संघर्ष भी देव और दैत्य जैसे सांस्कृतिक विचार-वीथियों को ही रूप में यहाँ पर वर्णित है। यहाँ पर मेरा विचारबोध ही भावबोध में बदल गया है। ऐतिहासिक अध्ययन एवं समाजशास्त्रीय चिन्तन ने भी मुझे इस ओर आजकल आकर्षित किया है। राजनीति तो अब सारे ही समाज की संचालक और सूत्रधार है ही। वैसी स्थिति में भला समकाल में उसके विचार बोध से भी कैसे और कब तक बचा जा सकता है।
मेरे भावात्मक संवेग ही अब साहित्य सर्जना के आधारफलक सिद्ध नहीं हो सकते । अतएव ज्ञानात्मक संवेगों का भी अपना औचित्य है। निबन्ध वैसे भी स्वयं में एक बौद्धिक विधा ही है।
Send as free online greeting card
Visual Search