| Specifications |
| Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi | |
| Author Pragya Sagar Muni | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 137 | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 10x7.5 inch | |
| Weight 260 gm | |
| Edition: 2019 | |
| ISBN: 9789326353083 | |
| HBX522 |
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जैन वाङ्मय में प्राकृत भाषा का महत्त्व भारतीय वाङ्मय में व्याकरण-शास्त्र का महत्त्वच शरीर में मुख के सदृश माना गया है। अर्थात् जैसे शरीर तो सर्वांग सुन्दर हो किन्तु व्यक्ति वाक्-शक्ति-रहित (गूंगा) हो तो प्रशस्त नहीं कहलाता है, उसी प्रकार विषय-शैली एवं आकारादि की दृष्टि से शास्त्र कितना ही मनोहारी क्यों न हो किन्तु यदि उसमें व्याकरणादि की उपेक्षा की गयी हो तो वह शास्त्र प्रशस्त नहीं कहा जा सकता है। अतः व्याकरण-संस्कार के बिना शास्त्र उस सुन्दर मुखमण्डल के समान है जिसमें पूर्ण संस्थान आदि समस्त दृष्टियों से सम्पूर्ण सौन्दर्य है किन्तु वचन-सामर्थ्य का अभाव है। जैनाचार्य भी बड़े प्रकाण्ड मनीषी एवं तलस्पर्शी अध्येता रहे हैं। उन्होंने अपने लेखन में प्रतिपाद्य मुख्यतः दार्शनिक विषय रखें, किन्तु उसमें व्याकरणादि की मर्यादा का पूरा-पूरा पालन किया गया।
मात्र लेखन-कार्य में ही नहीं अपितु कहे गये या लिखे गये पदों के उच्चारण में भी व्याकरणादि की मर्यादापूर्वक शुद्ध उच्चारण करने को धार्मिक नियमों के अन्तर्गत परिभाषित करते हुए उसे अनुभाषणा विशुद्धि की संज्ञा दी है। स्वामी वट्टकेर मूलाचार में स्पष्ट लिखते हैं-
"अणुभासदि गुरुवयणं अक्खर-पद-वंजणं कमवियुद्धं ।
घोसविसुद्धीसुद्ध एवं अणुभासणा-युद्धं ॥
अर्थात् गुरु के वचन अनुसार बोलना, अक्षर-पद-व्यंजनादि के क्रम से विशुद्ध बोलना, घोष की विशुद्धि का पालन करना इत्यादि प्रकार से शुद्ध उच्चारण करना 'अनुभाषणा विशुद्धि' है।
भाषाशास्त्र में शुद्ध शब्द और शुद्ध वाक्यप्रयोग का विशेष महत्त्व है। जिस प्रकार सूत्र-रचना में एक मात्रा का भी लाघव होने पर सूत्रकार को स्वर्ग का-सा सुख अनुभव होता है, इसी प्रकार शब्दशास्त्री को एक शुद्ध शब्द का प्रयोग देखकर स्वर्गीय सुख की अनुभूति होती है।
"एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः शास्त्रान्वितः ।
सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुक् भवति ।।"
अर्थात् एक भी शब्द का शुद्ध ज्ञान और प्रयोग विद्वान मनुष्य को स्वर्ग के इस लोक के और सुख का अनुभव प्रदान करता है।
शब्द और वाक्य की शुद्धता का अनुशासन एवं नियमन शब्दशास्त्र या व्याकरणशास्त्र करता है। जो व्यक्ति व्याकरण नहीं पढ़ा उसके उच्चारण या लिखने में ऐसी हास्यास्पद अशुद्धि हो जाती है जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है इसी आशय को प्रगट करते हुए कहते हैं-
'यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् ।
श्वनजः स्वजनो मा भूत् शकलं सकलं शकृत् सकृत् ॥
अर्थ- बेटा ! बहुत न पढ़ो लेकिन व्याकरण अवश्य पढ़ना। व्याकरण के पढ़े बिना उच्चारण शुद्ध नहीं होता और उच्चारण शुद्ध हुए बिना कुछ का कुछ अर्थ हो जाता है, जैसे-
श्वजन (कुत्ता) अशुद्ध उच्चारण होने पर स्वजन (आत्मीयजन), शकल (खण्ड-टुकड़ा) अशुद्ध उच्चारण होने पर सकल (सम्पूर्ण), शकृत् (मैला) अशुद्ध उच्चारण होने पर सकृत् (एक बार)
भाषा-शुद्धि के लिये व्याकरण की अतीव उपयोगिता है। इसीलिये प्राचीन शास्त्रों की टीकाओं में टीकाकारों ने स्थान-स्थान पर व्याकरण के नियम देकर शब्दों की सिद्धि की है। कसायपाहुड़ षट्खण्डागम, समयसार, भगवती आराधना, मूलाचार जैसे ग्रन्थों में आचार्य वसुनन्दि आदि ने अनेक गाथाओं की टीका में व्याकरण के माध्यम से ही शब्दरूपों और धातुरूपों को समझाया है। जयधवला में तो किसी प्राचीन प्राकृत व्याकरण की पाँच गाथाएँ भी उद्धृत की हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि आगमों को व्याकरण का समर्थन सदाकाल से मिलता आया है।
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