उपर्युक्त पुष्टि संगोत आज अपने उसी वास्तविक रूप में है? यह एक संदेहास्पद बात होगी। क्योंकि, आजके कीर्तनकार, जो कि मन्दिरों में परम्परा-प्राप्त होते हैं, शास्त्रीय संगोत से सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं, परिणामतः वे रागों को शुद्ध नहीं रख पाते, अतएव कीर्तन विधि आज कुछ विचित्रता लिए हुए एक अस्वाभाविक स्थिति प्राप्त किए हुए है। इघर आकाशवाणी से जो भी थोड़ा बहुत कीर्तन संगीत के नाम से प्रसारित होता है उसकी स्थिति भी कोई संतोषजनक नहीं है।
उक्त रुभी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए पुष्टि संगीत को उन सभी त्रुटियों को मिटाकर उसे वास्तविक एवं परम्परागत शुद्ध स्वरूप में पुनः स्थापित करने हेतु प्रसिद्ध गायक तथा पुष्टि शैली के पारम्पारिक वेत्ता पण्डित श्री भगवती प्रसाद भट्टजी ने विशेष प्रयत्न करके जो अपना योगदान 'पुष्टि संगीत प्रकाश' नामक हिन्दी ग्रन्थ लिखकर दिया है, यह वस्तुतः उल्लेखनीय एवं प्रशंसनीय है। यह (उक्त) ग्रन्थ पुष्टि संगीत के मौलिक स्वरूप को संगीतज्ञ तथा रसज्ञ भक्तजनों से परिचित कराने में सक्षम सिद्ध होगा ऐसी आशा है।
यह केवल कवि नहीं थे, अपितु संगीत कला के परमोत्कृष्ट मर्मज्ञ थे। ये उत्तम वाग्येयकार थे और नित्य भगवान् के सम्मुख कीर्तन गान करते थे। इनके गान में जो काव्य और संगीत का मधुर समन्वय हुआ है उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं है।
संगीत में चंचल मनको मुग्ध करने की अमोघ शक्ति है। इस कारण भक्तों ने चित्त निरोध के लिए संगीत को साधन रूप में स्वीकार किया है। निर्गुण सगुण संत भक्तों ने प्रभु के प्रति अनन्यता व्यक्त करने के लिए संगीत की सहायता ली है।
वैदिक युग में भारत के प्रत्येक परिवार में संगीत कला का उत्कृष्ट स्थान बना हुआ था। इस युग से ही संगीत कला की प्रगति के प्रयम सोपान का सूत्रपात हुआ। आदि काल, रामायण काल, महाभारत काल आदि अनेक कालों में प्रगति करते-करते गुप्तकाल संगीत का सुवर्णयुग बन गया ।
राजपूत युग में संगीत ईश्वर साधना के माध्यम से विचलित हुआ और मौज शौकका प्रतीक बना, अतः निजानंद के स्थान पर द्वेष और ईर्ष्या का उद्भव हुआ। मुस्लिम युग में मुस्लिम बिजेताओं की संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण संगीत की प्रगति में रुकावट आई। इस समय श्री चैतन्य महाप्रभु और श्री वल्लभाचार्यजी महाराज ने उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन को वेग दिया और संगीत को ईश्वर भक्ति को और मोड़ दिया ।
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