| Specifications |
| Publisher: Uttar Pradesh Hindi Sansthan, Lucknow | |
| Author: आचार्य वेदव्रत शास्त्री (Acharya Vedavrata Shastri) | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 76 | |
| Cover: Paperback | |
| 8.5 inch X 5.5 inch | |
| Weight 90 gm | |
| Edition: 1990 | |
| NZA821 |
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प्रकाशकीय
गत ११८१ में तुलसी जयन्ती के अवसर पर गोस्वामी तुलसीदास के स्व-देथीय तथा रामायण के मर्मज्ञ आचार्य वेदव्रत शास्त्री को हिन्दी संस्थान में विशेष व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था। उस अवसर पर गोस्वामी जी की पत्नी रत्नावली पर उन्होंने जो प्रकाश डाला था उसी के आधार पर उसी समय, रत्नावली के जीवन चरित्र तथा उनकी प्राप्त रचनाओं को प्रकाशित करने का निश्चय किया गया था। इस निश्चय का तत्कालीन शिक्षा मंत्री तथा उपस्थित वृन्द ने करतल ध्वनि से स्वागत किया था । तब से बार - बार हमें तकाजा सुनना पड़ रहा था कि ग्रंथ कब निकलेगा। पर पाण्डुलिपि प्राप्त होने तथा उसका सम्पादन कराने में समय तो लगना स्वाभाविक था। अब यह ग्रंथ पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है ।
गोस्वामी जी का जन्म तथा कार्यक्षेत्र शूकर क्षेत्र था अथवा राजापुर, इस विवाद में हम अपनी कोई सम्मति नहीं दे रहे हैं। आचार्य वेदव्रत के पास शूकर क्षेत्र (कासगंज) के संबंध में पर्याप्त प्रमाण हैं। अत:एवं उनके विचार ज्यों के त्यों दिये जा रहे हैं ।
निवेदन
राम की कथा पर गोस्वामी तुलसीदास की अद्भुत रचना- रामायण से बहुत पहले पाल नरेश रामपाल देव (सन् १२४०-१२५५) के शासन काल में राजकीय कवि संध्याकर नन्दी ने ''रामचरित'' ग्रंथ संस्कृत में लिखा था । उसमें गोस्वामी जी या उनकी पत्नी रत्वावली का उल्लेख न होना स्वाभाविक है। उस समय गोस्वामी जी का जन्म भी नहीं हुआ था। पर गोस्वामी तुलसीदास के बाद (१५३२-१६३०) के किसी ग्रंथ में या भारत के महाकवियों की सूची में अथवा दुख सन्तप्त देवियों की जीवनी में रत्नावली ऐसी महान महिला का उल्लेख न होने का एक ही कारण प्रतीत होता है-गोस्वामी जी के रामायण की प्रतिभा तथा प्रकाश में लोग रामायण के अस्तित्व की जड़ को ही भूल गये थे।
सन् १६०३ में सन्त नामदास ने ''भक्तमाल'' की रचना की थी। वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। उन्हें रत्नावली के बिषय में मालूम अवश्य रहा होगा पर उनकी रचना से वे परिचित नहीं रहे होंगे इसीलिये उन्होंने रत्नावली का उल्लेख नहीं किया होगा। नामदास के भक्तकाल की टीका सन्त प्रियादास ने सन् १६७२ में की थी। उसमें उन्होंने रत्नावली का उल्लेख किया है- वह दोहा इस ग्रंथ में रत्नावली के चरित्र में उद्धृत है।
काव्य, भाषा तथा भाव की दृष्टि से रत्नावली की रचना इतनी उच्च कोटि की है कि कहीं- कहीं वे गोस्वामी तुलसीदास से भी भाव तथा भाषा में अधिक आगे बढ गयी है। इस ग्रंथ से ही प्रकट है कि रत्नावली का जीवन उनकी २५-२६ वर्ष की अवस्था से लेकर मृत्यु तक बड़ा दुखी तथा सन्तापमय था। उन्हें पति का वियोग इतना अखर रहा था कि वे दिन रात बेचैन रहती थीं और बार-बार यह अनुरोध करती रहीं कि एक बार उनके ''प्रभु'' उन्हें दर्शन दे दें । पर इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता कि गोस्वामी जी ने उनकी प्रार्थना सुनी। राम के वियोग में सीता तथा सिया के वियोग में राम के दुःख का वर्णन तो वे कर सकते थे-''प्रिया हीन डरपत मन मीरा'' कह सकते थे पर अपनी पत्नी के वियोग को उन्होंने कुछ भी नहीं समझा, यह स्थिति हम सांसारिक लोगों की समझ के बाहर है। इस पर मैं क्या कह सकता हूँ। यह अवश्य है कि इस महान महिला के तथा उसके काव्य के प्रति गैर जानकारी ही हो सकती है कि किसी काव्य संकलन में, हिन्दी साहित्य के इतिहास में उन्हें कोई स्थान नहीं मिला। यह एक साहित्यिक अपराध भी रहा है।
कासगंज, सोरों (शूकर क्षेत्र) निवासी आचार्य वेदव्रत ने हमें रत्नावली के बिषय में अपने पास एकत्रित सामग्री जिसमें हिन्दी में एक लघु प्रकाशित उनकी पदावली देकर तथा इस ग्रंथ को लिखकर, हमें उपकृत किया है। साहित्यकार तथा कवि श्री दीपक कुष्ठा वर्मा ने बड़े परिश्रम से इसका सम्पादन कर हमारी जो सहायता की है, उसके लिए हम कृतज्ञ हैं। यह रचना हिन्दी साहित्य की एक कमी पूरा करने के साथ ही एक अब तक की हुई महान महिला को सजीव कर हमारे सामने प्रस्तुत कर रही है। हिन्दी संस्थान को इसके प्रकाशन से बड़ा संतोष है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर भी रत्नावली की जीवनी निश्चयत: मान्य है।







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