यह सत्य है कि इस नश्वर जगत में रससिद्ध कविजन (विद्वान रचनाकार) ही विराजमान हैं। उनके यश रूपी शरीर को बुढ़ापा और मृत्यु का भय नहीं है।
आज मराठाश्रेष्ठ शिवाजी नहीं हैं, किन्तु उनका यश इतिहास रूप में विद्यमान है। 'शिवराज विजयमः' के कुशल, प्रवीण, रस-मर्मज्ञ एवं लेखनी के धनी पं० अम्बिकादत्त व्यास भी इस भूतल पर नहीं हैं किन्तु अपनी रचना से वह यशशरीर से संस्कृत साहित्य में सदा अमर रहेंगे ।
'शिवराज विजयमः' के प्रथम निश्वास का सम्पादन करने का सुअवसर विनोद पुस्तक मन्दिर के सौजन्य से प्राप्त हुआ है इसके लिए प्रकाशक महोदय धन्यवाद के पात्र है।
इस रचना में संस्कृत मूल के साथ हिन्दी शब्दार्थ, प्रसंग, अनुवाद, भावार्थ, अलंकार, रस, शैली आदि सभी कुछ विद्यार्थियों के सुलभ बोध हेतु परीक्षा की दृष्टि से यथास्थान दिया गया है। परिशिष्ट में प्रश्न तथा परीक्षो-पयोगी गद्यांशों को भी संकेत में दिया है।
मेरी अन्य टीकाओं की भाँति विद्वानजन एवं छात्र इस टीका को भी सहर्ष मान्यता देंगे ऐसी आशा है। यदि यह पुस्तक छात्रों का कुछ भी लाभ कर सकी तो मैं अपने श्रम को सार्थक मानूगा क्योंकि छात्र ही इसके सरल हृदय पारखी होंगे ।
काव्य दृश्य एवं श्रव्य दो भेद वाला होता है। श्रव्य काव्य में गद्य-पद्य दो भेद होते हैं। पद्य के महाकाव्य, खण्डकाव्य और उपकाव्य तीन भेद वत-लाये गये हैं। गद्य काव्य वह शब्दार्थ योजना है जो पद्यबद्ध नहीं होती और न उसमें पद्म के नियम होते हैं। यह नियम बद्ध न होकर मुक्त रूप में गिरि सरिता की भाँति कल्लोल करती, इच्छानुसार भावों को व्यक्त करती हुई चलती है । भाव प्रकाशन इसका मूलोद्देश्य होता है। वाक्य विन्यास के आधार पर इसके चार भेद किये जाते हैं (१) मुक्तक (२) वृत्तगन्धि (३) उत्कलिकाप्राय तथा (४) चूर्णक ।
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