"Short Notes on Pachaka Pitta and Pachakagni" (शॉर्ट नोट्स ऑन पाचक पित्त एवं पाचकाग्नि) नामक प्रस्तुत पुस्तक क्रिया शरीर के क्षेत्र में अग्नि विषयक अध्ययन का चिर प्रतीक्षित प्रयास का प्रतिफल है। इस पुस्तक के द्वारा विभिन्न अग्नि विषयक मत-मतान्तरों का समाधान करने का प्रयास किया गया है, साथ ही पाचक पित्त एवं पाचकाग्नि को समझने का प्रयास किया गया है।
महर्षि चरक का कथन "बलमारोग्यमायुश्च प्राणाश्चाग्नौ प्रतिष्ठिताः" ही शरीर में अग्नि की महता को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है। यद्यपि आहार को शरीर की धातुओं की पुष्टि, बल, वर्ण, प्रभा, उत्साह आदि का हेतु कहा गया है, परन्तु इन सबका मूल अग्नि (पाचकाग्नि) ही है। आहार का अग्नि द्वारा पाक न हो तो रस आदि धातुओं की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। पाचकाग्नि ही अन्य अग्नियों का आधार है। अग्नि नष्ट होने से शरीर नष्ट हो जाता है। अतः अग्नि ही वर्ण, बल एवं प्राण इत्यादि का मूल है। अष्टांगहृदयकार ने " रोगाः सर्वेऽपि मन्देग्नौः" का उल्लेख कर शरीरस्थ समस्त रोगों का कारण अग्नि की मन्दता को ही स्वीकार किया है। महर्षि सुश्रुत ने स्वस्थ की परिभाषा का उल्लेख करते हुए 'समदोषः' के पश्चात् 'समाग्नि' को वर्णित कर अग्नि महता के औचित्य को प्रस्तुत किया है। यद्यपि दोषों की साम्यावस्था से पित्त रूप अग्नि की साम्यावस्थ्या स्वयंसिद्ध है तथा दोषों की अवस्थाओं पर ही अग्नि की अवस्था निर्भर है, परन्तु पुनः 'समाग्नि' का वर्णन अग्नि की स्वतन्त्र सत्ता का परिचायक है।
पंचभौतिक शरीर का पोषण पंचभौतिक आहार से सम्पन्न होता है। "पंचभूतात्मके देहे ह्याहारः पांचभौतिकः" (सु.सू. 46/533)। पंचभौतिक आहार का पाचन अग्नि के द्वारा होता है। इसे ही आयुर्वेद में पाचकाग्नि, जठराग्नि, कायाग्नि, देहाग्नि या पाचक पित्त आदि नामों से वर्णित किया गया है। स्थान वैशिष्ट्य एवं कर्म वैशिष्ट्य के कारण पाचकाग्नि, भूताग्नि एवं धात्वग्नि संज्ञा प्राप्त कर, यह आहार का पाचन कर, सार-किट्ट का विभाजन करते हुए तथा सार भाग के ग्रहण से धातुओं में धात्वग्नि नाम से यह धातुओं के पोषण में कारण है। अपनी साम्यावस्था में रहकर यह विधिपूर्वक ग्रहण किये हुए, युक्तियुक्त, सात्म्य आहार का पाचन कर शरीर के धारण में कारण है। इसके विपरीत विषमावस्था को प्राप्त होने पर शरीर की व्याधियों का जनक है। इसलिए अग्नि की चिकित्सा को काय चिकित्सा कहा गया है।
शरीर में आहार पाचन में सर्वप्रथम पाचकाग्नि का कार्य प्रारम्भ होता है।
इस पाचन क्रिया में आहार का संघात भेद होता है, जिससे आहार रस में पार्थिवादि अंश पृथक् पृथक् हो जाते हैं। इस अवस्था में भूताग्नियाँ पृथक् पृथक् एवं स्वतन्त्र सत्ता ग्रहण करती हैं। इससे पूर्व ये निष्क्रिय अवस्था में रहती हैं। पाचकाग्नि इन्हें स्वतन्त्र बनाने के साथ-साथ अपने आग्नेय अंश से इन्हें संधुक्षित या प्रदीप्त भी करती है। भूताग्नियों को स्वतन्त्र, सक्रिय एवं प्रदीप्त करने के कारण पाचकाग्नि को अन्य अग्नियों में श्रेष्ठ माना गया है।
शरीरस्थ अग्निकर्म करने वाले जितने पित्त या अग्निद्रव्य हैं, उनके सभी स्रावों को पंचभौतिक दृष्टि से पार्थिव माना गया है, क्योंकि ये सभी प्रोटीन्स से निर्मित होते हैं। अपनी प्रकृति से ये आग्नेय हुआ करते हैं। जिस पार्थिव (प्रोटीन युक्त) आहार को ग्रहण करते हैं, उसी से निर्मित 'एमाइनो एसिड्स' के द्वारा अनेक अग्निद्रव्यों यथा-इन्सुलिन, थाइराक्सिन आदि का निर्माण करते हैं।
इस प्रकार अपने मूल स्थान महास्रोतस् में रहते हुए इस पाचकाग्नि या कायाग्नि के अंश समस्त काय में अर्थात् दोष, धातु, मलरूपी उपादानों में विद्यमान रहते हैं, ऐसी आयुर्वेद की मान्यता है। इसी कारण पाचकाग्नि को भूताग्नियाँ ही नहीं, धात्वग्नियों में भी श्रेष्ठ माना गया है। इसके क्षीण होने से अन्य अग्नियों का ह्रास हो जाता है और इसके तीव्र होने से अन्य अग्नियाँ भी प्रबल हो जाती हैं।
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