प्रस्तुत पुस्तक पश्चिम का उदय (1453-1783) बिहार के नवीन त्रय वर्ष स्नातक (प्रतिष्ठा) के पाठ्यक्रम पर आधारित है। राष्ट्रभाषा हिन्दी में इस विषय पर मानक ग्रंथों का नितान्त अभाव है। प्रस्तुत कृति इस अभाव पूर्ति का एक लघु प्रयास है। तथ्य-बिन्दुओं में विषय-वस्तु को अत्यन्त सरल शब्दों में सुस्पष्ट किया गया है। आवश्यकतानुसार पाद-टिप्पणियों में मूर्धन्य इतिहासकारों के उद्धरण दिए गए हैं। वस्तुतः पुस्तक को विद्वानों की अपेक्षा विद्यार्थियों के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने का हर सम्भव प्रयास किया गया है।
पुनर्जागरण पश्चिमोदय का प्रतीक है। तथाकथित अंधकार युग (500-1500) का अवसान एवं आधुनिक युग का श्रीगणेश यहीं से होता है। मध्ययुग में व्यक्ति के जीवन पर रोमन चर्च और सामंतवाद का प्रबल प्रभाव था। दोनों प्रधानतः शोषण मूलक संस्थाएँ थीं। रोमन चर्च धर्म के नाम पर धार्मिक अंधविश्वास फैलाता था तथा लोगों से धन ऐंठने के लिये पापमोचन पत्र बेचता था। इसी तरह सामंत अपनी-अपनी जागीरों में किसानों व कम्मियों का शोषण कर गुलछरें उड़ाते थे। रोमन चर्च व सामतवाद का मूलोच्छेदन नितान्त आवश्यक था। । धर्म सुधार आंदोलन तथा राष्ट्रीय राज्यों के उदय में इनकी परिणति हुई। रोमन चर्च का प्रभाव घट गया तथा ईसाई धर्म मुख्य रूप में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों में बंट गया। सामंतवाद के कब पर इंग्लैंड, फ्रांस, स्पेन, रूस आदि राष्ट्रीय राज्यों का उदय हुआ। उनके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया। अब उन पर पोप की पकड़ न रही तथा प्रभावशाली सामंतों के विद्रोह को आशंका जाती रही। इंग्लैंड का राजा हेनरी आठवाँ अपनी प्रेयसी एन बोलिन से ब्याह रचा सकता था, स्पेन का राजा फिलिप द्वितीय इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ से विवाह करने का स्वांग रच सकता था, फ्रांस का राजा लुई चौदहवां बड़े गर्व से स्वयं को राजा कह सकता था तथा प्रशा का राजा फ्रेडरिक महान प्रबुद्ध शासक होने का परिचय दे सकता था। ऐसा इसलिए कि प्रत्येक राष्ट्रीय राज्य का राजा संप्रभु एवं स्वेच्छाचारी था।
पश्चिमोदय में वणिकवाद, उद्योगवाद एवं पूँजीवाद के महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती । यूरोपीय अर्थव्यवस्था में वे क्रमशः बीज, वृक्ष एवं फल सिद्ध हुए। स्पेन और पुर्तगाल प्रमुख वणिकवादी राष्ट्र थे, जिन्होंने अमरीकी सोना-चाँदी से यूरोपीय बाजारों को पाट दिया। वस्तुओं के दाम आकाश छूने लगे। निर्माता व उत्पादक वर्ग चांदी काटने लगे। व्यापार अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर होने लगा। माल-असबाब से खचाखच लदे जहाज ईस्ट इण्डिज से वेस्ट इण्डिज आने-जाने लगे। इंग्लैंड और फ्रांस में व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गई। एशिया, अफ्रीका एवं अमरीका में उपनिवेशीकरण की होड़ मच गई। पूँजीपति पिछड़े मुल्कों में पूँजी का निवेश कर अधिकाधिक मुनाफा कमाने लगे। वस्तुतः पश्चिमोदय भौतिक संभ्यता-संस्कृति का पर्याय बन गया।
पश्चिमोदय में प्रबोधन युग को अहम् भूमिका रही है। इस युग में प्राकृतिक विज्ञान, दर्शन, धर्म, साहित्य-कला आदि की प्रभूत उन्नति हुई। भौतिक शास्त्र, जीव विज्ञान, गणित, ज्योतिष आदि में नए-नए सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया। आध्यात्मवाद को अलौकिकताओं से उन्मुक्त कर प्राकृतिक नियमों से जोड़ा गया। इसी तरह प्राकृतिक धर्म पर जोर दिया गया जिसमें धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कोई स्थान नहीं था। यह भक्तिवाद, देववाद, नास्तिकवाद का पर्याय बन गया। इस युग का शास्त्रीय साहित्य-कला में धर्मनिरपेक्षवाद व रोमनीवाद की स्पष्ट छाप है। प्रबोधन युग ने कुछ राष्ट्रीय राजाओं को प्रबुद्ध बना दिया जिन्होंने अपने-अपने सुधार कार्यों द्वारा विनम्र निरंकुश शासक होने का परिचय दिया। प्रशा के फ्रेडरिक महान, आस्ट्रिया की मेरिया धेसा एवं रूस के पिटर महान इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
इसी समय ब्रिटिश संसद अपनी सर्वोच्चता के लिए स्टुअर्ट राजाओं से संघर्ष करने लगी। गृहयुद्ध, चार्ल्स प्रथम की फांसी, क्रॉमवेल के संवैधानिक प्रयोग एवं पुनर्स्थापन ने संवैधानिक समस्या का कोई समाधन नहीं किया। अंततोगत्वा 1688 की गौरवपूर्ण क्रांति ने संसद की सर्वोच्चता पर मुहर लगा दो। इसी तरह फ्रांस को पुरातन व्यवस्था चरमराने लगी। मतिस्क्यू, वाल्लेयर एवं रूसो के क्रांतिकारी दर्शन ने आग में घो का काम किया। पुरोहित तथा कुलीन फन काढ़े बैठे थे। उनको अहमन्यता आकाश पर थी। आाम लोग सामाजिक-आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए कृत संकल्प थे। इसी समय अमरीको उपनिवेशो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के मूलोच्छेदन में सफल रहे। अमरीका स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद फ्रांस में भी गूंजने लगा। 1789 की फ्रेंच क्रांति ने पुरातन व्यवस्था के कब पर नवीन व्यवस्था को जन्म दिया। निरंकुश राजतंत्र, वर्ग विशेषाधिकार एवं स्थापित चर्च का स्थान स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व ने ग्रहण किया। यह ठीक है कि उपर्युक्त रोमांचकारी रक्त रंजित घटनाओं ने आम लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया नहीं किया, किन्तु उन्हें शोषण-दमन से अवश्य उन्मुक्त किया। संयुक्त राज्य अमरीका में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का जनाजा निकल गया तथा फ्रांस में राजा रानी गुलोटिन पर चढ़ा दिए गए।
प्रस्तुत पुस्तक की रचना में मुझे जिन मूर्धन्य इतिहासकारों को कृतियों की सहायता देनी २० है उनके प्रति में अपना हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ। अपनी आत्मजा श्रीमती मजु देवी, तदर्थ व्याख्याता, इतिहास विभाग, जैन कालेज, आरा को धन्यवाद जिसने पुस्तक की प्रेस प्रतिलिपि प्रस्तुत करने में अपना अमूल्य समय दिया है।
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