एक ब्रिटिश व्यापारिक उपक्रम ने जिस प्रकार भारत में औपनेवेशिक शासन की स्थापना की और भारत को स्थायी रूप से दासत्व में बांधे रखने की लगातार चेष्टाएं कीं, परन्तु भारतीयों ने लगातार इस औपनेवेशिक सत्ता का प्रतिरोध किया। 1842 की बुन्देला क्रांति इसी प्रतिरोध का एक उदाहरण है। इस क्रांति के योजनाकारों ने बड़ी ही गहन दूरदृष्टि का परिचय देते हुए आज के मध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश के एक विशाल क्षेत्र में अंग्रेजों को बड़ी टक्कर दी।
राजा हिरदेशाह और उनके बन्धु बांधवों ने इस क्रांति में अपना अमूल्य योगदान दिया। उनका न केवल राज्य ब्रिटिश सत्ता द्वारा छीन लिया गया, बल्कि उनके अनेकानेक निकट संबंधी इस क्रांति में बलिदान हुए। यह पुस्तक राजा हिरदेशाह के इस क्रांति में योगदान को रेखांकित करने का प्रयास है।
इस पुस्तक का नया संस्करण लाना हर्ष का विषय है। परन्तु इस पुस्तक के लेखक इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र इस अवसर पर सशरीर हमारे बीच नहीं हैं। यह पुस्तक राजा हिरदेशाह और उनके पराक्रम को लेखनीबद्ध करने वाले डॉ. मिश्र को श्रद्धांजलि है।
नर्मदा सतपुड़ा और विन्ध्या के अंचल में मराठों के जो इलाके थे, उन्हें 1818 में मराठों की पराजय के बाद अंग्रेजों ने अपने अधिकार में कर लिया और उन्हें सागर नर्बदा टेरीटरीज़ अर्थात सागर-नर्मदा प्रदेश के रूप में गठित किया। इसे एक फौजी अधिकारी के अन्तर्गत रख दिया गया जो सीधे गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी था। इस अधिकारी को गवर्नर जनरल का एजेण्ट, सागर-नर्बदा टेरीटरीज़ कहा जाता था। इस एजेन्ट का मुख्यालय सागर था। सागर नर्बदा टेरीटरीज़ के अन्तर्गत उस समय सागर, दमोह, जबलपुर, (मौजूदा कटनी जिला सहित) होशंगाबाद (मौजूदा हरदा जिला सहित) नरसिंहपुर और मण्डला (मौजूदा डिण्डोरी जिला सहित) जिले थे। इसके बाद नरसिंहपुर जिला 1836 में होशंगाबाद जिले में शामिल कर लिया गया था। उल्लेखनीय बात यह थी कि इन सभी जिलों के जिलाधिकारी फौजी अधिकारी थे। 1842 में सागर-नर्बदा टेरीटरीज़ के अधिकांश हिस्से में एक ऐसा विद्रोह हुआ जिसमें इस इलाके के राजाओं, मालगुजारों और जागीरदारों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इसमें जो तालुकेदार जागीरदार और मालगुजार सबसे आगे थे उनमें पहला कम बुन्देलों का था और उनके बाद लोधियों और गोंडों का क्रम आता है। चूंकि इस विद्रोह में बुन्देले लोग सबसे आगे थे, इसलिये इसे बुन्देला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस व्यापक विद्रोह में नर्मदा तट के उत्तर में नर्मदा और हिरन नदियों के संगम पर स्थित हीरापुर के जागीरदार राजा हिरदेशाह ने भी हिस्सा लिया।
नर्मदा नदी के उत्तर का जो इलाका आज नरसिंहपुर जिले का हिस्सा है वह 1843 के पहले जबलपुर जिले का हिस्सा था और हीरापुर तालुका के नाम से जाना जाता था। जैसा कि बताया जा चुका है, उस समय नरसिंहपुर स्वतंत्र जिला नहीं था क्योंकि इसे 1836 में इसे होशंगाबाद जिले में शामिल कर लिया गया था। हीरापुर का इलाका घने जंगलों से परिपूर्ण था और इस जागीर पर काफी समय से एक लोधी परिवार ने अपना शासन स्थापित कर लिया था।
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