पुस्तक परिचय
पिछले सत्तर-अस्सी बरस के साहित्य का इतिहास सीधी लाइन में नहीं चला बल्कि उसमें अनेक टूट-फूट हुई हैं और अनेक विच्छेद आए हैं।
ऐसी बहुत सी 'फॉल्ट लाइनें' और विच्छेद आज की 'उत्तर आधुनिक स्थितियों' में और 'उत्तर संरचनावादी' समीक्षा पद्धति के बाद इसलिए और भी अधिक उत्कट होते दीखते हैं क्योंकि आज साहित्य में एक अर्थ, एक प्रातिनिधिक यथार्थ और एकान्विति को नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि अब उसका न कोई एक 'सेण्टर' है, न 'एक यथार्थ' है और न शब्द का 'एक अर्थ' सम्भव है।
जब अमेरिका में काले आदमी औरत का 'पाठ' गोरे आदमी औरत के 'पाठ' से अलग हो सकता है, जब अपने यहाँ दलित 'पाठ' गैरदलित 'पाठ' से अलग और विपरीत हो सकता है तब एक दिन हिन्दी साहित्य का 'हिन्दू' पाठ भी होगा, 'मुस्लिम' पाठ भी होगा, 'सिख' या 'बौद्ध' या 'ईसाई' या 'जैन' या अन्य पाठ भी सम्भव हैं। जितनी भी अस्मितामूलक पहचानें हैं उन सबके पाठ अलग-अलग हो सकते हैं और कई बार एक-दूसरे के विपरीत और लड़ते-झगड़ते नजर आ सकते हैं।
इतना ही नहीं जब दलित विमर्श हो सकते हैं तब ब्राह्मणवादी, वैश्यवादी और क्षत्रियवादी विमर्श भी हो सकते हैं और होंगे और इनके अतिरिक्त, हर 'अस्मितामूलक समूह' के 'स्त्रीत्ववादी' तथा ' एलजीबीटीक्यू वादी' पाठ भी सम्भव हैं। सवाल यह भी है कि आज के ' उत्तर आधुनिकतावादी' दौर में जब साहित्य के 'एक केन्द्रवाद' का पतन हो चुका हो, तब कौन सा 'साहित्य शास्त्र' अथवा कौन सी 'साहित्यिक सिद्धान्तिकियाँ' कारगर हो सकती हैं?
कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे सवालों से टकराये बिना आगे के साहित्य व साहित्य शास्त्र का विकास सम्भव नहीं दीखता।इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर हमने 'नेहरू युग से मोदी युग तक' लिखा है। हो सकता है इसे देख हमारे कई 'पाठक' हमारी 'निन्दा' भी करें कि यह लेखक नेहरू के साथ मोदी का नाम कैसे ले रहा है? वे शायद सोचते हैं कि हिन्दी साहित्य का' नेहरू युग' तो हो सकता है लेकिन' मोदी युग' कैसे हो सकता है ?
इसके जवाब में हमारा यही कहना है कि अगर कुछ विद्वानों द्वारा आजादी से पहले और कुछ बाद के हिन्दी साहित्य पर नेहरू का प्रभाव देखा जा सकता है तो आज के साहित्य पर मोदी का प्रभाव भी देखा जा सकता है।
आजादी के बाद के हिन्दी साहित्य में नेहरू की 'छवि' अगर एक 'अप्रत्यक्ष किन्तु सकारात्मक' आलम्बन के रूप में नजर आती है तो मोदी की छवि 'प्रत्यक्ष नकारात्मक' आलम्बन के रूप में नजर आती है। नेहरू युग का बौद्धिक नजरिया साहित्य को' धर्म और संस्कृति' से अलग करके देखता-पढ़ता था तो मोदी युग का बौद्धिक नजरिया साहित्य को देश, राष्ट्र, धर्म व संस्कृति से मिलाकर देखता-पढ़ता है जो हिन्दी साहित्य के जातीय पाठों और साहित्य शास्त्र के अधिक नजदीक बैठता है! नेहरूवादी नजरिया साहित्य के इतिहास की 'फॉल्ट लाइनों' को दबाकर चलता है तो मोदीवादी नजरिया साहित्य के इतिहास की फॉल्ट लाइनों को उजागर कर पढ़ना-पढ़ाना चाहता है!
यह किताब पिछले पिचहत्तर बरसों के इतिहास को इसी और ऐसे ही उपेक्षित कर दिये गये नाना जातीय नजरियों से टटोलती पढ़ती है।
इस किताब का लेखक भी 'पॉलिटिकली करेक्ट' लेखन करने की जगह 'पॉलिटिकली इनकरेक्ट' लेकिन 'लिटरली करेक्ट' लेखन करने में यकीन करता है और यहाँ उसने वैसा ही करने की कोशिश की है। और इसी मानी में इस लेखक ने हिन्दी साहित्य के पिछले सात-आठ दशकों के साहित्य को देश, राष्ट्र और धार्मिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों में रखकर देखने-समझने की कोशिश की है।
इस नजर से देखें तो हमारा साहित्य उन तमाम फॉल्ट लाइनों का संकेत करता रहा है जिनके बारे में 'द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन' के लेखक सैमुअल पी. हंटिंग्टन ने अपनी उक्त किताब में लिखा है और जिनके बारे में इस लेखक ने भी यत्र-तत्र संकेत दिये हैं।
लेखक परिचय
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग; पूर्व डीन ऑफ़ कॉलेजेज एवं पूर्व प्रो वाइस चांसलर दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
जन्म : 29 दिसम्बर 1948; अलीगढ़ (उ.प्र.)।
प्रख्यात समीक्षक, स्तम्भकार व मीडिया विश्लेषक।
सुधीश पचौरी दूरदर्शन की भूमिका; दूरदर्शन: स्वायत्तता और स्वतन्त्रता
कृतियाँ : नयी कविता का वैचारिक आधार; कविता का अन्त; (सं.); उत्तर-आधुनिक परिदृश्य; उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद; नवसाम्राज्यवाद और संस्कृति; नामवर के विमर्श (सं.); उत्तर-आधुनिक साहित्य विमर्श दूरदर्शन विकास से बाज़ार तक; उत्तर-आधुनिक साहित्यिक विमर्श; देरिदा का विखण्डन और विखण्डन में 'कामायनी'; मीडिया और साहित्य; टीवी टाइम्स; साहित्य का उत्तरकाण्ड; अशोक वाजपेयी पाठ कुपाठ (सं.); प्रसार भारती और प्रसारण परिदृश्य; दूरदर्शन सम्प्रेषण और संस्कृति; स्त्री देह के विमर्श; आलोचना से आगे; मीडिया, जनतन्त्र और आतंकवाद; निर्मल वर्मा और उत्तर-उपनिवेशवाद; विभक्ति और विखण्डन; हिन्दुत्व और उत्तर-आधुनिकता; मीडिया की परख; पॉपुलर कल्चर के विमर्श; भूमण्डलीकरण, बाजार और हिन्दी; टेलीविजन समीक्षा : सिद्धान्त और व्यवहार; उत्तर-आधुनिक मीडिया विमर्श; बिन्दास बाबू की डायरी; फासीवादी संस्कृति और पॉप-संस्कृति; मिस काउ : ए लव स्टोरी; रीतिकाल : सेक्सुअलिटी का समारोह; तीसरी परम्परा की खोज; नयी साहित्यिक सांस्कृतिक सिद्धान्तिकियाँ समेत 60 पुस्तकें।
भूमिका
इस लेखक का मानना है कि पिछले आठ दशकों की हिन्दी आलोचना अपना 'कर्तव्य कर्म' पूरा करने में असमर्थ रही है। इसीलिए वह पिछले सत्तर-अस्सी बरसों के साहित्य को कायदे से समझने और उसे अपेक्षित दिशा देने में असमर्थ रही है।
हमने इस पुस्तक में कई बार संकेत दिये हैं कि पिछले सत्तर-अस्सी बरस के साहित्य का इतिहास सीधी लाइन में नहीं चला बल्कि उसमें अनेक टूट-फूट हुई हैं और अनेक विच्छेद आए हैं।
ये टूट-फूट और विच्छेद आज की 'उत्तर आधुनिक स्थितियों' में और 'उत्तर संरचनावादी' समीक्षा पद्धति के बाद इसलिए और भी अधिक उत्कट होते दीखते हैं क्योंकि आज साहित्य में एक अर्थ, एक प्रातिनिधिक यथार्थ और एकान्विति को नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि अब उसका न कोई एक 'सेण्टर' है, न 'एक यथार्थ' है और न शब्द का 'एक अर्थ' सम्भव है।
फिर यह 'अर्थ' भी लेखक के हाथ में नहीं है बल्कि 'पाठक' के हाथ में है क्योंकि ये दिन 'रीडर रिस्पांस' थियरी के हैं।
जिस तरह 'हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता' सम्भव है उसी तरह शब्द के 'अनेकार्थ' हैं।