सन् 1975 में कुछ मित्रों के साथ मुझे अलमोड़ा और कौसानी के बीच भैंसुड़ी नामक गाँव में पंद्रह दिन बिताने का अवसर मिला। हम सड़क से कुछ ऊपर एक पुराने-से बंगले में ठहरे हुए थे। यहाँ एक नेपाली चौकीदार था, जिसे हम बहादुर के नाम से बुलाते थे। बहादुर, जो हमारा खाना भी बनाता था, काफी बातूनी और बड़ा ही रोचक व्यक्ति था। इस पहाड़ी यात्रा के एक वर्ष बाद फिल्म 'रजनीगंधा' में बहादुर नामक और हमारे अलमोड़ा वाले बहादुर जैसा ही एक पात्र देखकर घर आते-आते मन में एक ऐसा विस्फुटन हुआ कि उसी समय मैंने इस संकलन की "बहादर" नामक कविता लिख दी। यह पंद्रह वर्ष के अंतराल के बाद मेरी पहली कविता थी। इससे पहले स्कूल-कॉलेज के दिनों में प्रत्येक मित्र के जन्मदिन पर नई कविता लिखने के साथ-साथ अपने कस्बे की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों पर कविताएं लिखा और जलसों-जुलूसों में सुनाया करता था। 1958 में मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद के निधन के कारण हमारे जिले में हुए उपचुनाव के अवसर पर एक कविता, जो मैंने लगभग 18 वर्ष की आयु में एक बहुत बड़े चुनावी जलसे में सुनाई, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं:
फाँसी के तख्तों से पूछो पूछो जेल की सल्लाखों से, जल्लादों से चलकर पूछो, पूछो बुझी चिता की ठंडी राखों से -चलो अरावली से चल पूछो, झांसी खूब सुनाती है-दास्तान वो आज़ादी की झूम-झूम कर गाती है।
उस समय की लगभग सारी कविताओं का बंडल दिल्ली आने के दौरान सफ़र में कहीं खो गया। दिल्ली में ग़मे-रोजगार के चलते कविता लिखना बहुत कम हो गया। उपर्युक्त अन्तराल के बाद 1979 में मेरा पहला कविता-संकलन 'बीस साल का सफर' प्रकाशित हुआ और सौभाग्यवश काफी चर्चित हुआ। कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने 'सारिका' में उसकी गिनती 1979 की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में की। श्री हरिवंश राय बच्चन का एक प्रशंसात्मक तथा उत्साहवर्धक पत्र भी प्राप्त हुआ। इस संग्रह की सारी कविताएँ मुक्त छंद में हैं।
'बीस साल का सफर' के बाद किन्हीं कारणों से मेरा रुझान ग़ज़ल की तरफ हो गया। यद्यपि कविताएँ भी साथ-साथ चलती रहीं अधिकतर ग़ज़लें और ग़ज़ल-संकलन ही प्रकाशित हुए।
जैसे जीवन के विस्तार और उसकी विविधता को कुछ शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, उसी तरह कविता की भी कोई संक्षिप्त परिभाषा नहीं हो सकती। प्रकृति की तरह कविता की 'कैमिस्ट्री' का भी कोई पार नहीं पा सकता। शायद कवि के मन-मस्तिष्क पर एक 'जिन्न' सवार हो जाता है, जिसे वह जब तक कविता के रूप में बाहर नहीं निकाल लेता, उसे चैन नहीं आता। या फिर कभी-कभी कवि पर ऐसी तरलता तारी हो जाती है कि भूत, भविष्य, वर्तमान एक-साथ प्रवाहित होने लगते हैं:
यूँ ही बैठे-बैठे फिर कसक उठी है, यह काया पिघल जाने लगी हो जैसे मन की नदी रुख अपना बदलकर उमड़ी है किसी धुँधले-से नगर में, मैं अपने आरंभ के पास खड़ा हूँ।
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