साहित्यिक कृतियाँ कृतिक के लिए स्वयं के अनुभव को महसूस करने और उन कृतियों को रचने का नाम है और समीक्षा उन कृतियों में कृतिक को खोजने का। साहित्य में जो रचा जाता है, समीक्षा में उसी को पहचाना जाता है। कृतिक द्वारा कृति में जिसे टटोला जाता है, समीक्षा में उसी को पाया जाता है। रचनाकार के लिए रचना आत्मसाक्षात्कार है और समीक्षा उसी रचना से साक्षात्कार।
समीक्षा का संसार, रचना का विरोधी, उसका विलोम या उसका प्रतिद्वन्द्वी संसार नहीं है, प्रत्युय वह रचना के संसार से लगा हुआ समानान्तर संसार है। ये दोनों संसार अपने-अपने स्थान पर स्वतंत्र संप्रभुता सम्पन्न संसार हैं. पर दोनों के बीच एक मित्रता की संधि है।
रचना कुछ भी सिद्ध नहीं करती, सिवाय एक अनुभव को रचने के। समीक्षा कुछ भी प्रकाशित नहीं करती, सिवाय उस रचे हुए अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देने के। समीक्षा रचना द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर नहीं देती, वह मात्र प्रश्नों की अर्थवत्ता और पृष्ठभूमि का उद्घाटन करती है, ताकि इस रहस्योद्घाटन के प्रकाश में रचना स्वयं अपना उत्तर या प्रश्न रखे। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी साहित्य और समीक्षा पुस्तक में समीक्षक की इसी समीक्षा-दृष्टि के उद्घाटन का प्रयास किया गया है। इस उपक्रम में युगीन संदर्भों और अन्य आचार्यों-समीक्षकों के प्रभावशाली अस्तित्व के अनन्तर भी आचार्य वाजपेयी की निर्भीक स्थापनाओं का यथार्थ भी खोजा गया है।
सुधी आलोचक अतीत की सम्पूर्ण रचनात्मक परम्परा पर दृष्टिपात करते हुए अपने समय की नवीन उपलब्धियों से मण्डित नए साहित्य को आत्मसात करता है। वह अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य के अनुसार साहित्य की परिभाषा को इतना व्यापक बनाना चाहता है जिसमें क्रमागत अतीत और वर्तमान सभी समा सकें। सर्जनात्मक प्रतिभा प्रसूत रचनात्मक साहित्य अपनी गतिशीलता में अवश्य कुछ न कुछ नया जोड़ता है। रचनात्मक साहित्य के साक्ष्य पर अपनी अंतः प्रज्ञा से वह काव्य का नया प्रतिमान निर्मित करता है और सत्काव्य के लिए अपेक्षित घटकों का संकेत करता है। आचार्य वाजपेयी के पूर्व आचार्य रामचन्द्र शुक्ल यह काम अपनी रुचि के अनुसार कर चुके थे और उनके मानदण्ड पर नया साहित्य छायावाद अपना उचित स्थान नहीं पा रहा था। फलतः तदर्थ अपेक्षित आस्वाद् या रुचि का न तो परिष्कार अपेक्षित मात्रा में हो रहा था और न ही उन कलाकृतियों की समझ के लिए उनका विशदन ही, आचार्य शुक्ल के गुरू-गम्भीर व्यक्तित्व से भर्सिंत साहित्य-छायावादी साहित्य के विशदन और रुचि परिष्कार का स्वतः स्फूर्त संकल्प लेकर आचार्य वाजपेयी हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में उतरे।
अपने गुरू का सर्वथा सम्मान करते हुए अपनी अनुभूति के सत्य को सर्वोपरि मानना शायद सबसे बड़ी ईमानदारी और गुरुभक्ति है। खासकर किसी कला या साहित्य के निकष या मानदण्ड तय करते समय। यही कारण है कि परम्परा गतिशील होकर प्रगति पथ पर आगे बढ़ती है। यही आलोचक की सच्चे मायने में निर्वैयक्तिकता है। आचार्य शुक्ल की साहित्यिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए भी उनके प्रिय शिष्य वाजपेयी जी ने उनकी मान्यताओं से यत्र-तत्र अपनी असहमति स्पष्ट रूप से व्यक्त की और अपनी नयी स्थापनाएँ प्रस्तुत की। खासकर छायावाद को समझने एवं भारतीय परम्परा के विकास रूप में उसे स्थापित एवं प्रमाणित करने का जो कार्य वाजपेयी जी ने किया, वह हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में उनकी विशिष्टता एवं महत्ता को रेखांकित करता है।
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