'अमर भारती के ज्ञान-कण' नामक पुस्तक में १५० खण्ड हैं जिसमें अकारादिक्रम से हिन्दी में भिन्न-भिन्न विषयों पर भिन्न-भिन्न देशों, भिन्न-भिन्न भाषाश्रों तथा भिन्न-भिन्न साहित्यों से विचार इकट्ठे किए गए हैं। इसमें विश्व की आदिम पुस्तक ऋग्वेद से लेकर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त तक तथा यूरोप के बेकन से मिल्स, लाक, स्वेट मार्डन तक प्राचीन तथा अर्वाचीन विचारों का संक्षेपतः अवगाहन किया गया है। हमारे देश में इन्हें सुभाषित् व सूक्ति कहा गया है जो ऋग्वेद काल से ही पढ़ने को मिलती हैं। संस्कृत का साहित्य इन सुभाषितों से भरपूर है जो सात सौ के संग्रहों में पाठकों को सुलभ रहा है। संभवतः गीता पहली-सतसई थी और बाद में हाल की सतसई, गोवर्धन की आर्या-सप्तशती, दुर्गा-सप्तशती विहारी, तुलसी वृन्द आदियों की सतसइयां प्रसिद्ध हुई।
किसी विचार के विभिन्न पहलू शोधकार्य के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हैं। उनके अभाव में विषय को अर्थवत्ता का अन्दाज सही नहीं लगाया जा सकता। जैसे काम (नं. ४२२) पर सूक्ति है 'काम यर्याप एक निकृष्ट नियामक है तो भी शक्तिशाली स्रोत है'। इसके विपक्ष में तुलसी की सूक्ति है (नं. ४१६) 'काम क्रोध मद लोभ सब प्रबल मोह की धार। तिन मंह अति दारुण दुःखद माया रूपी नार' । इसी तरह पाठक को यश (नं. ४४३) 'यश और सत्कर्म का सम्बन्व धुएँ और आग जैसा है' । विपक्ष में (नं. ४४७) 'यश वह प्यास है जो बुझाए पर भी नहीं बुझती' । इस प्रकार सम्पादक ने उभयपक्षों को देने में जो प्रयास किया है यह महत्वपूर्ण है ।
बहुत वर्ष पहले पं. हंसराज जी ने अपने वैदिक कोष में भिन्न-भिन्न विषयों पर वैदिक शब्दों के निर्वचन इकट्ठे किए थे जो वस्तुतः संकल्पनाए थीं। उससे शोध कार्यकर्ताओं को लगभग पाँच दशकों तक अचूक सहायता मिली। ऐसा ही प्रयास डॉ. सहगल का है। इस संग्रह में वैदिक ग्रन्थों से, रामायण, महाभारत योगवासिष्ठ श्रादि मौलिक ग्रन्थां से सूक्तियाँ संगृहीत हैं जो भारत के मूलाधार हैं। इन्हीं विचारों ने देश तथा संस्कृति की रक्षा की है। पुस्तक के अन्त में तीन सूचियाँ हैं (१) मूल श्लोक सुभाषितों की (२) ग्रन्थ तथा प्रन्यकारों की (३) तथा विषयों के अवान्तर विचारों की। इन सूचियों ने संग्रह को पुस्तक कहलाने योग्य सिद्ध कर दिया है अन्यथा यह विज्ञप्तिमात्र ही रहती। आज जव पी. एच. डी. शोध-ग्रन्थों के अन्त में सूचियों का अभाव है तब इसमें तीन सूची-रत्नों का समावेश श्लाध्य शृङ्गार है। इससे अनेक देशों की भाषाओं में बिखरे हुए विचारों का संगम होगा। प्राज हम यूरोप के विचार को जानते हैं परन्तु उत्तर भारत दक्षिण भारत के तमिल श्रेण्य ग्रन्थ 'सिल्पाधिकारम्' को नहीं जानता जो हमारी शिक्षा की विडम्बना है। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय को चाहिए कि अपने देश के विद्वात् कार्यकर्ताओं की खोज करके उनसे ऐसे ग्रन्थों का सम्पादन कराए जिससे देश की सांस्कृतिक एकता उत्तरोत्तर दृढ़ हो ।
मैं वेद और कालिदास साहित्य के विशेषज्ञ, विद्वान् सम्पादक को इस रचना पर बधाई देता हूँ।
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