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शांकर एवं वल्लभ-दर्शन में नैतिक कर्म के संप्रत्यय का विश्लेषण: Analysis of the Concept of Moral Action in Shankara and Vallabha Philosophy

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भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य परम सत् तथा उसकी प्राप्ति हेतु विभिन्न साधनों पर विचार कर रहा है। इन साधनों के अन्तर्गत नैतिक कर्म भी आते हैं। भारतीय दर्शन के अन्तर्गत वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों में नैतिक कर्म या पुरुषार्थ को परम सत की प्राप्ति का अप्रत्यक्ष साधन एवं मानवीय कल्याण का मुख्य आधार माना गया है। इन सम्प्रदायों के सुप्रसिद्ध विद्वानों ने साधारण कर्म तथा नैतिक कर्म के विभेद की विस्तृत व्याख्या करते हुए, मानव-समाज को वह अमूल्य दृष्टि प्रदान की है, जिसके द्वारा व्यक्ति का 'है' और 'चाहिए' का द्वैत, जो नैतिक जीवन की जड़ में है, समाप्त हो जाता है, एवं उसकी नैतिकता का विस्तार सभी प्राणियों तक हो जाता है। वेदान्त-दर्शन के प्रमुख छः सम्प्रदाय हैं, किन्तु सभी सम्प्रदायों का अंतिम लक्ष्य एक ही है। संस्थापक आचार्य के पृथक्-पृथक् होते हुए भी, उनकी शिक्षा का उद्देश्य एक ही है, अतः परम सत्य की प्राप्ति हेतु अद्वैत दर्शन एवं शुद्धाद्वैत दर्शन के विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में नैतिक कर्म की अवधारणा का विश्लेषणात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

भारतीय दर्शन की वह विशेषता जो उसे पाश्चात्य दर्शन से पृथक् करती है, उसका आचार मीमांसा को महत्व देना है। भारत में दर्शन का महत्व इसलिए नहीं है कि वह दृश्य जगत् संबंधी हमारे ज्ञान में वृद्धि करता है, वरन इसलिए है कि वह हमारे जीवन के सर्वोच्च शुभ एवं उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्रदान करता है। भारतीय दार्शनिकों के अनुसार केवल सत्य की खोज और उसका ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् जीवन में उसके अनुरूप आचरण करना भी आवश्यक है। दर्शन हमें हमारे आदर्श एवं लक्ष्य बताता है तथा धर्म उसे प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित करता है। इस तरह दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।

इस ग्रन्थ को लिखने का प्रमुख कारण अधिकांश विद्वानों द्वारा वेदान्त के आचार-दर्शन, विशेषतः नैतिक कर्म की अवधारणा की उपेक्षा करना रहा है। शंकर के अद्वैत वेदान्त और अन्य वेदान्त सम्प्रदायों एवं पाश्चात्य समालोचकों द्वारा जो आरोप लगाये गये हैं, उन आरोपों का निराकरण कर, व्यावहारिक जीवन में शांकर दर्शन की उपयोगिता सिद्ध करना इस ग्रन्थ का अभीष्ट विषय है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत दर्शन में, चूंकि जगत् को भी सत्य माना गया है, अतः यहाँ नैतिकता संबंधी समस्या उतनी नहीं उठती, जितनी शांकर दर्शन में उपस्थित होती है। शंकराचार्य के दर्शन के सम्बन्ध में सामान्यतःः यह धारणा है कि चूंकि अद्वैतवाद में जगत् माया है, जीव मिथ्या है और मोक्ष नैष्कर्म्य है - जिसमें जगत् तथा जीव दोनों ब्रह्म में लीन हो जाते हैं अतः इसमें आचार-दर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है। इस ग्रन्थ में ऐसी भ्रान्त धारणाओं का निराकरण, शंकराचार्य की उक्तियों के आधार पर, किया गया है। यह विश्वास मेरे शोध-विषय के चयन की प्रेरणा रहा है कि वस्तुतः अद्वैत वेदान्त के आधार पर ही मानव-जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति एवं व्यावहारिक जीवन में अद्वैत दृष्टि के आधार पर किये गये नैतिक कर्मों की सहायता से ही विश्व-शांति के आदर्श को प्राप्त किया जा सकता है।

अपने ग्रन्थ को सफलतापूर्वक पूर्ण कर सकने में मेरे पूज्य पिताजी श्रीमान् एन.पी. भटनागर का आशीर्वाद एवं चित्र स्नेह सबसे सशक्त सम्बल के रूप में मेरा प्रेरणा-स्रोत रहा है। अतः मैं सदैव उनकी आभारी रहूँगी। मेरी पूज्य माँ श्रीमती सरिता भटनागर की भी मैं हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने अस्वस्थ रहने पर भी अध्ययन-काल की अवधि में मुझे अपने ग्रन्थ को सफलतापूर्वक पूर्ण कर सकने में मेरे पूज्य पिताजी श्रीमान् एन.पी. भटनागर का आशीर्वाद एवं चित्र स्नेह सबसे सशक्त सम्बल के रूप में मेरा प्रेरणा-स्रोत रहा है। अतः मैं सदैव उनकी आभारी रहूँगी। मेरी पूज्य माँ श्रीमती सरिता भटनागर की भी मैं हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने अस्वस्थ रहने पर भी अध्ययन-काल की अवधि में मुझे प्रत्येक उत्तरदायित्व से मुक्त रखा।

ग्रन्थ को प्रस्तुत करते हुए अपनी श्रद्धेय गुरु तथा निर्देशिका डॉ. (कु.) छाया राय, प्रवाचक, दर्शनशास्त्र विभाग, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर की मैं हार्दिक आभारी हूँ, जिनके विद्वता एवं प्रोत्साहन पूर्ण अमूल्य निर्देशन में ही इस ग्रन्थ की रचना है। गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना बड़ी औपचारिक बात प्रतीत होती है, विशेषतः ऐसे गुरु के प्रति जो पूर्णतः शोध-कार्यों के प्रति समर्पित है। उनकी गहरी सजगता एवं कुशल-निर्देशन में ही मेरा यह प्रयास पूर्ण हो सका है।

Specifications
Publisher: Gyan Bharati Publications
Author Vijay Bhatnagar
Language: Hindi
Pages: 225
Cover: HARDCOVER
9.00x6.00 inch
Weight 440 gm
Edition: 2021
ISBN: 9789385538605
HBZ422
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Book Description
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भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य परम सत् तथा उसकी प्राप्ति हेतु विभिन्न साधनों पर विचार कर रहा है। इन साधनों के अन्तर्गत नैतिक कर्म भी आते हैं। भारतीय दर्शन के अन्तर्गत वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों में नैतिक कर्म या पुरुषार्थ को परम सत की प्राप्ति का अप्रत्यक्ष साधन एवं मानवीय कल्याण का मुख्य आधार माना गया है। इन सम्प्रदायों के सुप्रसिद्ध विद्वानों ने साधारण कर्म तथा नैतिक कर्म के विभेद की विस्तृत व्याख्या करते हुए, मानव-समाज को वह अमूल्य दृष्टि प्रदान की है, जिसके द्वारा व्यक्ति का 'है' और 'चाहिए' का द्वैत, जो नैतिक जीवन की जड़ में है, समाप्त हो जाता है, एवं उसकी नैतिकता का विस्तार सभी प्राणियों तक हो जाता है। वेदान्त-दर्शन के प्रमुख छः सम्प्रदाय हैं, किन्तु सभी सम्प्रदायों का अंतिम लक्ष्य एक ही है। संस्थापक आचार्य के पृथक्-पृथक् होते हुए भी, उनकी शिक्षा का उद्देश्य एक ही है, अतः परम सत्य की प्राप्ति हेतु अद्वैत दर्शन एवं शुद्धाद्वैत दर्शन के विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में नैतिक कर्म की अवधारणा का विश्लेषणात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

भारतीय दर्शन की वह विशेषता जो उसे पाश्चात्य दर्शन से पृथक् करती है, उसका आचार मीमांसा को महत्व देना है। भारत में दर्शन का महत्व इसलिए नहीं है कि वह दृश्य जगत् संबंधी हमारे ज्ञान में वृद्धि करता है, वरन इसलिए है कि वह हमारे जीवन के सर्वोच्च शुभ एवं उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान प्रदान करता है। भारतीय दार्शनिकों के अनुसार केवल सत्य की खोज और उसका ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् जीवन में उसके अनुरूप आचरण करना भी आवश्यक है। दर्शन हमें हमारे आदर्श एवं लक्ष्य बताता है तथा धर्म उसे प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित करता है। इस तरह दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं।

इस ग्रन्थ को लिखने का प्रमुख कारण अधिकांश विद्वानों द्वारा वेदान्त के आचार-दर्शन, विशेषतः नैतिक कर्म की अवधारणा की उपेक्षा करना रहा है। शंकर के अद्वैत वेदान्त और अन्य वेदान्त सम्प्रदायों एवं पाश्चात्य समालोचकों द्वारा जो आरोप लगाये गये हैं, उन आरोपों का निराकरण कर, व्यावहारिक जीवन में शांकर दर्शन की उपयोगिता सिद्ध करना इस ग्रन्थ का अभीष्ट विषय है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत दर्शन में, चूंकि जगत् को भी सत्य माना गया है, अतः यहाँ नैतिकता संबंधी समस्या उतनी नहीं उठती, जितनी शांकर दर्शन में उपस्थित होती है। शंकराचार्य के दर्शन के सम्बन्ध में सामान्यतःः यह धारणा है कि चूंकि अद्वैतवाद में जगत् माया है, जीव मिथ्या है और मोक्ष नैष्कर्म्य है - जिसमें जगत् तथा जीव दोनों ब्रह्म में लीन हो जाते हैं अतः इसमें आचार-दर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है। इस ग्रन्थ में ऐसी भ्रान्त धारणाओं का निराकरण, शंकराचार्य की उक्तियों के आधार पर, किया गया है। यह विश्वास मेरे शोध-विषय के चयन की प्रेरणा रहा है कि वस्तुतः अद्वैत वेदान्त के आधार पर ही मानव-जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति एवं व्यावहारिक जीवन में अद्वैत दृष्टि के आधार पर किये गये नैतिक कर्मों की सहायता से ही विश्व-शांति के आदर्श को प्राप्त किया जा सकता है।

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