'प्राचीन राजवंश और जाट' नामक यह पुस्तक हमारी पिछली पुस्तक 'वैदिक आर्य और जाट' की ही अगली कड़ी है। जिसमें हमने वैदिक-काल से भी आगे बढ़कर उत्तर वैदिक काल किंवा महाभारतकालीन इतिहास को भी आधार बनाया है। विशेषकर पाणिनि की अष्टाध्यायी और पतंजलि का महाभाष्य इस विषय में हमारे बड़े काम के ग्रन्थ हैं। पाणिनि मुनि ने ही 'जट् सन् संघाते' जैसे सूत्र के माध्यम से उन्होंने जाट जन-गण की संघात्मक प्रवृत्ति की ओर ही स्पष्ट संकेत किया है असियाग तो त्रिगर्ती अथवा त्रिजों और योधेय, मद्र, शाल्व, वसाति, शूरा, ग्लूकायन, अश्मक (लोकेशन में) एवं मालव, क्षुद्रक, कठ और शिवि जैसे गणों का भी नाम आया है। उनके आपसी सम्बन्धों का भी उद्घाटन और अष्टाध्यायी करती ही हैं।
पाणिनि और पतंजलि के काल में जो गण थे, मध्यपूर्व काल में आकर वही गोत्र बन गए हैं और गण-संघ ही प्रकारान्तर से वर्तमान में जातियाँ हैं। गणों का उल्लेख महाभारत महाकाव्य में भी है। लेकिन उसका रचनाकाल विवादित और लम्बा है। हो सकता है कि महाभारत का अर्जुन अथवा नकुल उत्तरापथ-विजेता समुद्रगुप्त भी हो; जैसेकि रघुवंश महाकाव्य का (पाटल) अफगानिस्तान या पाताल लोक (जगत्) समुद्रगुप्त ही है। क्योंकि काव्यों में वाच्यार्थ रूद्रार्थ की अपेक्षा व्यंगार्थ अथवा गूढार्थ वहीं अधिक गहरा और वास्तविक होता है। उर्दू के क्रांतिकारी शायर फैज अहमद फैज ने तभी कहा था "अफसाने में जिसका जिक्र न था बाह बात बाद में बहुत नागवार गुजरी है।" इसलिए काव्य-ग्रन्थों को हमें काव्यात्मक दृष्टि से ही पढ़ना चाहिए, ऐतिहासिक से नहीं।
फिर तत्कालीन गण भी दो प्रकार के थे 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' और 'आयुद्धजीवी' । अर्थात् ऐसे गण जोकि वार्ता (कृषिकर्म) के ही साथ-साथ युद्ध में सशस्त्र सैनिकों का भी कार्य किया करते थे और शान्तिकाल में धरती-माता का वक्ष-विदारण करके वे उससे स्वर्ण-शस्य भी उपजाया करते थे। हरयाणा-पंजाब से लेकर राजस्थान और पश्चिमी-उत्तरप्रदेश के जाट-किसानों में यह प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में वर्तमान में भी मौजूद है। दूसरे, ये गण अथवा उनके संघ (कबीले) तलवार की मूठ पकड़ने के साथ जहाँ पर हल की मूठ पकड़ते थे; वहीं पर वे विधवा-विवाह भी रचाते ही थे। संभवतः मध्यपूर्व काल अथवा मध्यकाल में इन्हीं दो कारणों से उनका अलगाव आयुधजीवी संघों से हो गया था।
आयुद्धजीवी अथवा चाणक्य के शब्दों में शस्त्रोपजीवी गण-संघ केवल अस्त्र-शस्त्रों के सहारे से ही अपना जीवन-यापन किया करते थे। जैसेकि पातंजलि ने मालव और क्षुद्रक (खोखर) जैसे गंणों की इस विषय में चर्चा की है कि जब सिकन्दर का आक्रमण भारत के पश्चिमोत्तरी सीमान्त पर हुआ था तो मालवगण और क्षुद्रकगण उनके विरुद्ध संघर्ष-सन्नद्ध हो गए थे। लेकिन सेनापति सम्बन्धी विवाद को लेकर यह गण-संघ अर्थात् गठबन्धन बनते-बनते रह गया था। तथापि मालव (मल्ली जाटों) और मल्होत्रा जैसे पंजाबी-खत्रियों के गण ने सिकन्दर को अन्य गणों के सहाय से अकेले ही हराया था। पातंजल महाभाष्य का यह सूत्र इस विषय की जीवन्त साक्षी है "मालविकै एकार्भिजितम्" अर्थात् मालवों ने अकेले ही संघर्ष सन्नद्ध होकर विश्वविजेता सिकन्दर की सैन्य-वाहिनी पर विजय प्राप्त की थीं। हालाँकि शूद्रक या खोखर और शिवि एवं कठ तथा अश्वक या सिहाग (सुहाग) जैसे जाट गण भी उनके संग-साथ थे। सम्राट् बनने से पूर्व चन्द्रगुप्त का नाम हमें सेठ गोबिन्ददास रचित नाटक में 'शशिगुप्त' ही मिलता है।
वह बजौर (रावलपिंडी जिले) के कोहमोर नामक नगर या गाँव का निवासी था और अश्मक या अश्वक अश्वग> असिहाग> सिहाग नामक जाट-कबीले या युवा सरदार भी था। वह तक्षशिला स्थिति गुरुकुल का पूर्व स्नातक भी था। वहीं पर उसका सम्पर्क अपने आचार्य और निर्देशक विष्णुगुप्त कौटिल्य (सूर्खकोटल गाँव निवासी) या चाणक्य (चणकपुत्र) के साथ हुआ था। 'शशिगुप्त' नामक नाटक के अध्ययन से हमें यह ज्ञात होता है कि शशिगुप्त आरंभ में सिकन्दर का एक क्षत्रप भी सिन्ध प्रदेश का था। अतएव वह पोरस के साथ उसके युद्ध में खुलकर नहीं आया था। लेकिन वह सिन्ध में बसने वाला क्षुद्रक, मालव और शिवि एवं कठ (गठवाले, मलिक) तथा शिवि जैसे गणों को उसके विरुद्ध सुसंगठित भी कर रहा था। इसीलिए प्रवर्तक अथवा पोरस से युद्ध करने के बाद जब सिकन्दर की सेना सिन्ध के शुष्क मार्ग से लौटी ही थी तो उसने विद्रोह करके उसको संकट में डाल दिया था। सिकन्दर के चले जाने के बाद ही उसने प्रवर्तक अथवा पोरस से मिलकर मगध सम्राट् नन्द का निमूर्लन किया था।
अतएव भारतीय इतिहास में 'सिकन्दर-विजय' का सारा ही श्रेय अकेले महामति चाणक्य अथवा सम्राट् चन्द्रगुप्त को व्यर्थ ही दिया गया है। यह सामन्तवादी किंवा व्यक्तिगत वीरता वाली इतिहास-दृष्टि ही कही जाएगी। जबकि उसके साथ दुर्घर्ष संघर्ष तो सीमान्त के उपर्युक्त गण-संघों ने ही किया था। जोकि वर्तमान में भी हमें सर्वाधिक संख्या में जाट जैसी संघर्षशील और संगठित जाति में ही मिलते हैं। भले ही उनका विस्तार सिकन्दर के यवन-आक्रमण और अरब-आक्रमण के साथ सारे ही सप्त-सैंधव प्रदेश से भी बाहर हो गया था। पंजाबी मालवगणों ने ही ईसा की आरंभिक शताब्दियों में मध्यप्रदेश के मालवा को बसाया था, मूलतः वह पंजाब में ही है।
जहाँ पर सिकन्दर के आक्रमण के संदर्भ में नई जानकारी हमने यह दी है कि चन्द्रगुप्त मौर्य, नन्दवंश का विद्रोही राजकुमार अथवा मुरा नामक दासी का पुत्र नहीं था। 'कोह-मोर' नामक ग्राम-गोत्र के ही कारण उसको मौर्य कहा गया था। फिर वह बजाय पूर्वांचल के पश्चिमोत्तर का ही निवासी था और बजाय राजवंशी राजकुमार के वह एक गण-संघ का ही सदस्य और सरदार था। हरयाणा में आज भी जाटों में हमें मोर जैसा गण अथवा गोत्र मिलता है। जिस पिप्प्लीवन का निवासी उसको बताया गया है, वह भी वर्तमान में कुरुक्षेत्र या थानेश्वर के निकट राजमार्ग पर एक नगर अथवा गाँव ही है। नाप्ति शब्द संस्कृत के ज्ञाति (जाट) का ही विकार है। इसीलिए मूरा नामक दासीपुत्र वाली भ्रांति फैली होगी। अस्तु ।
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