बुन्देलखण्ड का निवाड़ी जिला ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बुन्देलखण्ड की ओरछा रियासत मध्यकाल में सर्वाधिक प्रभावशाली रियासत रही है। बुन्देला शासकों ने गढ़कुण्डार के दुर्ग पर अधिपत्य स्थापित कर लगभग सात शताब्दी तक शासन करते हुये इस भू-भाग को बुन्देलखण्ड नाम से प्रसिद्ध किया।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जावे तो यह भू-भाग पौराणिक काल में चेदि साम्राज्य का भाग था, जो चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक अस्तित्व में बना रहा। चौथी शती ई पू. में मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के साथ ही यह भू-भाग मगध का अंग बना, किन्तु स्थानिय प्रशासन का मुख्यालय सागर जिले के ऐरण नामक स्थल पर बना रहा। ऐरण के स्थानिय शासकों ने समुद्रगुप्त के आक्रमण तक इस भू-भाग पर अपना अधिकार बनाये रखा था।
गुप्तोत्तर काल के पश्चात गुर्जर प्रतिहार एवं चदेल शासकों का शासन रहा। चन्देल शासक यशोवर्मन के समय निवाड़ी जिले के कुढार नाम स्थल पर तालाब का निर्माण करवाया गया एवं उसी समय यहाँ की दुर्गम पहाड़ी को किले का रूप प्रदान करते हुये सैन्य केन्द्र बनाया गया। ई सन् 1182 के भीषण युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के हाथों हुई चन्देलों की पराजय के कारण यह भू-भाग (चंदेल राज्य का पश्चिमी भाग) चौहान साम्राज्य का अंग बना। पृथ्वीराज चौहान द्वारा तैनात खेतसिंह खंगार ने कालान्तर में खगार राज्य की स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर कुढार को मुख्यालय बनाया। लगभग 150 वर्ष खंगार वंश के शासन के बाद बुन्देला राजवंश ने यहाँ लम्बे समय तक शासन किया। इस काल में बड़े पैमाने पर मंदिरों महलों, छत्रियो, तालाबों एवं बावडियो का निर्माण हुआ, जो निवाड़ी जिले की महत्वपूर्ण धरोहर है। इन उल्लेखनीय धरोहरों में गढ़कुण्डार का दुर्ग एवं ओरछा के स्मारक बुन्देला स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण है। अपनी स्थापत्यगत विशेषताओं के कारण ही आरेछा के स्मारकों को यूनेस्को की विश्व धरोहर की संभावित सूची में शामिल किया गया है। जो शीघ्र ही विश्व धरोहर की सूची में शामिल हो सकता है।
संचालनालय पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय द्वारा ग्राम से ग्राम सर्वेक्षण की अपनी योजना के अंतर्गत पूर्व टीकमगढ़ जिले की तीन तहसीलों यथा निवाडी, ओरछा और पृथ्वीपुर का सर्वेक्षण सम्पन्न कराया, जो वर्तमान में निवाड़ी जिले में शामिल हैं। सर्वेक्षण प्रतिवेदनों के आधार पर ही निवाडी जिले के पुरातत्व पर केन्द्रित पुस्तक तैयार करायी गयी है. जिसे प्रकाशन योग्य बनाने में डॉ रमेश यादव, प्रकाशन अधिकारी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मुझे आशा है कि विभाग द्वारा प्रकाशित पुरातत्व पर केन्द्रित अन्य पुस्तकों के समान ही यह पुस्तक भी पुरातत्वविदों, इतिहासकारों, पुरातत्व एवं इतिहास के शोधछात्रों, विद्यार्थियों, जिज्ञासु पाठकों तथा जनसामान्य को महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
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