रेखीय विकास की दृष्टि से विचार किया जाय अथवा चाक्रिक, अतीत एवं उसकी घटनाओं की व्याख्या ही इतिहास है। इतिहास के प्रति बढ़ते आकर्षण, अतीत को उसके वास्तविक रूप में पहचानने की चेष्टा में आज इतिहास के विविध घटकों एवं उनको प्रकाशित विश्लेषित करने वाले स्नातों के सीमा-परिज्ञान और इतिहास-लेखन के समय उनके अध्ययन के प्रति बरती जाने वाली सावधानियों की विवेचना के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है। इतिहास के ऐसे ही स्रोतों में अभिलेखों का अपना विशिष्ट स्थान है। एक-दो अक्षरों से लेकर सहस्राधिक अक्षरों तक अनेक पङ्क्तियों वाले प्रस्तर एवं विविध आधारों पर लिखे गए ये अभिलेख मृण्मुद्रा आदि इतिहास लेखन की दृष्टि से बहुआयामी महत्त्व के हैं। ये अपने बाह्य एवं आन्तरिक दोनों रूपों में इतिहास-निर्माण, पुनर्निर्माण में सहायक होते हैं। बाह्य रूप में जहाँ अभिलेखों के उपादान, प्राप्ति-स्थल उसमें प्रयुक्त लिपि का समावेश होता है वहीं अन्तर्साक्ष्य में उनकी विषय वस्तु, उसमें वर्णित भाषा-शैली का। किन्तु प्राचीन भारतीय सन्दर्भ (प्रारम्भ से लेकर चौदहवी शती ई० तक) में इनके बाह्य एवं आन्तरिक साक्ष्यों में व्यापक विविधता दिखाई देती है और इनका तुलनात्मक अध्ययन भी इतिहास-लेखन को नई दिशा दे सकता है, अनसुलझी गुत्थियों का समाधान कर सकता है।
यद्यपि प्राचीन भारतीय परिवेश में सैन्धव सभ्यता में लघु ही सही परन्तु अभिलेखाङ्कन का अस्तित्व मिलता है किन्तु उसका इतिहास-लेखन में प्रयोग सम्भव नहीं हो सका है। वस्तुतः अशोक द्वारा प्रयुक्त वे राजाज्ञाएँ ही प्राचीनतम अभिलेख हैं जिनमें प्रयुक्त लिपियों के ध्वन्यात्मक मूल्यों से हम परिचित हैं और उनमें उत्कीर्ण तथ्यों से हम तत्कालीन इतिहास की विविध प्रवृत्तियों के निर्धारण में सफल हो पाए हैं। तदनन्तर अभिलेखों के उत्कीर्णन का बाहुल्य मिलता है। उनके स्वरूप और विषय-वस्तु में परिवर्तन संशोधन-परिवर्धन, एवं विकास होता है। जहाँ अशोक के समय के मात्र राजकीय अभिलेख ही मिले हैं वहीं कालान्तर में राजाओं के साथ-साथ उनके अधीनस्थ सामन्तों, अधिकारियों एवं जन-सामान्य के द्वारा वैयक्तिक अभिलेख भी लिखवाए जाने लगे।
अशोक की राजाज्ञाओं के लिए पालि-प्राकृत भाषा का प्रयोग है। प्रथम-द्वितीय शती ई० से अभिलेख लेखन के लिए संस्कृत भाषा का उपयोग होने लगता है और शक क्षत्रप शासक रुद्रदामन के समय से तो अभिलेखों में संस्कृत भाषा का वर्चस्व बन जाता है। यद्यपि ऐसा नहीं कि प्राकृत का संस्कृत भाषा स्थानापन्न हो गई। तदनन्तर 10-11 वीं शती तक प्राकृत अथवा स्थानीय भाषा प्रभावित प्राकृत का वर्चस्व मिलता है; कालान्तर में क्षेत्रीय शासकों द्वारा अपने अभिलेखों के लिए अपने क्षेत्र-विशेष में प्रयुक्त भाषा का प्रयोग किया जाने लगा।
यही बात लिपि के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है। यद्यपि अशोक के समय में ही उसके साम्राज्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अभिलेखों में उस क्षेत्र विशेष में प्रचलित लिपि का उत्कीर्णन मिलता है। कालान्तर में तो ब्राह्मी लिपि ही भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अपना रूप परिवर्तित करती है-शारदा, सिद्धमातृका, आदि नामाभिधान प्राप्त करती है और आज की भारत की बहुप्रचलित लिपि देवनागरी तथा अन्य अनेक लिपियों की जननी बनती है। ईसा के अनन्तर की शताब्दियों में भी प्रयुक्त कतिपय प्रतीक चिहनों का अद्यावधि निरापद उद्वाचन नहीं हो सका है।
अशोक तथा उसके कुछ बाद के अभिलेख जहाँ सरल विवरणात्मक शैली में लिखे गए मिलते है वहीं रुद्रदामन् के समय से प्रभाव प्राप्त संस्कृत भाषा के कारण अभिलेख संश्लिष्ट एवं आलङ्कारिक हो जाते हैं। शासक अथवा उसके अधीनस्थों के द्वारा लिखवाए गए अभिलेखों में वंश वृक्ष का उल्लेख होने लगता है। शासक अथवा उसके पूर्वजों की उपलब्धियों के विवरण में अतिरञ्जना बढ़ने लगती है। भारी-भरकम आडम्बरपूर्ण उपाधियों का उपयोग होने लगता है। गुप्तों के समय से अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियों की रचना का प्रारम्भ होता है और पूर्व-मध्ययुग तक आभिलेखिक प्रशस्तियों और काव्य में अन्तर कर पाना कठिन हो जाता है। किसी-किसी अभिलेख में तो पूरा का पूरा नाटक अथवा काव्य ही उत्कीर्ण कर दिया गया है। इस प्रसंग में अजमेर के शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण सोमदेव विरचित 'ललित विग्रह नाटक' और 'विग्रहराज के हरिकेलि नाटक' का उल्लेख किया जा सकता है। दक्षिण-पूर्व एशिया के संस्कृत अभिलेखों के सन्दर्भ में भी यही स्थिति लक्षित होती है।
दान के प्रसङ्ग में अभिलेख लिखवाने की परम्परा तो अशोक के समय में ही उसके द्वारा बराबर की पहाड़ियों में गुफाएँ बनवाकर दान देने और उसके उपलक्ष में अभिलेख लिखवाने के रूप में दिखाई देती है। सातावाहनों के अनेक अभिलेखों को भी इसी प्रसङ्ग में उद्धृत किया जा सकता है; किन्तु वाकाटक-गुप्त काल से दान की पुष्टि में जो ताम्र-पत्र लिखवाने की परम्परा चली, वह पूर्व मध्ययुग में अत्यन्त प्रभावशाली बन गई। अपने अधिकारियों अथवा कर्मचारियों की वृत्ति के लिए अथवा मन्दिरों एवं धार्मिक कार्यों के सम्पादन या देखरेख के लिए जारी किए गए ताम्र-पत्रों का बाहुल्य हो गया। यही कारण है कि इस युग को यदा-कदा 'ताम्र-शासन' के युग के नाम से अभिहित किया जाता है।
इस प्रकार अभिलेखों की भाषा, लिपि, स्वरूप एवं उपादान में बहुआयामी विकास हुआ जिन्हें बहुविध अन्तर के कारण कई वर्गोपवर्गों में रखा जा सकता है। स्वयं कल्हण की राजतरङ्गिणी में अभिलेखों को तीन वर्गों (1) प्रशस्तिपट्ट, (2) प्रतिष्ठा शासन एवं (3) वास्तु-शासन में रखा गया है। अन्तिम वास्तु-शासन के तो प्रकृष्ट और अनुप्रकृष्ट दो अन्य भेद भी किए गए हैं।
निश्चय ही ये अभिलेख अपने समय अथवा कभी-कभी पूर्व की भी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, धार्मिक, ललित कला, शैक्षणिक, आदि गतिविधियों के प्रकाशक हो सकते हैं। रुद्रदामन् के जूनागढ़ तथा वाशिष्ठी-पुत्र पुलमावि के उन्नीसवें वर्ष के नासिक अभिलेख से न केवल शक-क्षत्रप एवं सातवाहन वंश की गौरव गरिमा का भान मिलता है, वरन् तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य उभरकर सामने आता है, शक-सातवाहन सम्बन्ध का निरूपण भी होता है। खारवेल का हाथी गुफा अभिलेख खारवेल-विषयक विस्तृत ज्ञान का एक मात्र ऐतिहासिक स्रोत है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति न केवल समुद्रगुप्त के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व की साङ्गगोपाङ्गग सूचना देती है वरन् तत्कालीन वृहत्तर भारत के ऐतिहासिक परिदृश्य की स्पष्ट उद्भावना प्रस्तुत करती है। कालान्तर के अभिलेखों में प्रयुक्त वंशावली से अभिलेख के नायक एवं उसके पूर्व के शासकों के बारे में संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित सूचना मिलने लगती है। गुप्तोत्तर अभिलेखों से धार्मिक क्रिया-व्यापार एवं सामाजिक स्तरीकरण का निरूपण किया जा सकता है। इस युग में तो ऐतिहासिक काव्यों की शैली में अभिलेखों में भी विषयवस्तु की ऐतिहासिक व्याख्या का प्रयास लक्षित होता है। अभिलेखों के स्वरूप एवं विषय-वस्तु, भाषा-लिपि के परिवर्तन के तुलनात्मक अध्ययन से प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक स्वरूप एवं परिवर्तन का विकास-क्रम भी ढूँढ़ना सम्भव है।
किन्तु अभिलेखों के अध्ययन की अपनी सीमाएँ हैं। उनके उद्वाचन से लेकर उद्घाचित सामग्री के ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण तक में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उद्वाचित सामग्री को 'मक्षिका स्थाने मक्षिका' के रूप में विश्लेषित कर देने में इतिहास की मंशा के साथ व्याघात हो सकता है; क्योंकि कोई भी सामग्री आभिलेखिक होने मात्र से विश्वसनीय नहीं हो जाती। पूर्व मध्ययुग में तो आभिलेखिक एवं साहित्यिक रचना में अन्तर कर पाना कठिन हो जाता है। इस युग के अधिकांश अभिलेख, राजाओं के आश्रय-प्राप्त सुदूर क्षेत्रों से आमन्त्रित विद्वान् कवियों द्वारा लिखे गये प्रशंसात्मक हैं। वे शासक विशेष को धर्मानुमोदित और आदर्श शासक के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रतिवद्ध लगते हैं। दानपत्रों से तो लगता है कि उनका प्रारूप सुनिश्चित था, एक पग जमीन दान में जाय, दो हल अथवा एक गाँव या क्षेत्र विशेष सबके साथ नदी आदि के दान देने का उल्लेख है।
किन्तु इन सबसे अभिलेखों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। सभी विवरणों के अपने-अपने निहितार्थ होते हैं। अभिलेखों में क्षेपक प्रक्षेपक का अवकाश न होने के कारण भी साहित्य की अपेक्षा उनका महत्त्व बढ़ जाता है। परन्तु उनके सावधानीपूर्वक उद्वाचन एवं संश्लेषण विश्लेषण की आवश्यकता होती है। यद्यपि अभिलेखों पर समय-समय पर अनेक कार्य सम्पादित हुए; विभिन्न राजवंशो के अभिलेखों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं, प्रतिवर्ष इपिग्राफिकल सोसाइटी की बैठक होती है, परन्तु इतना होते हुए भी अभिलेखों के उद्वाचन एवं अध्ययन के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही है जबकि आज भी नित-नूतन मृण्मुद्राएँ और अभिलेख यत्र-तत्र उपलब्ध होते जा रहे हैं। ऐसे में अभिलेखों के उद्वाचन की प्रविधि उनके इतिहास-लेखन में प्रयोग के समय आने वाली कठिनाइयाँ, उनके समाधान के उपाय, आदि पर विचार अपेक्षित हैं और इस लक्ष्य की प्राप्ति, इतिहास लेखन में कुशल, पालि-प्राकृत, संस्कृत भाषाओं तथा ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि लिपियों के विशेषज्ञों के आभिलेखिक अध्ययन एवं प्रविधि विषय पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय सङ्गोष्ठी के आयोजन से ही सम्भव है।
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