बलदेव सहायजी के साथ मेरा मैत्री भाव आज से कोई चार दशक से भी अधिक पुराना है। तब वे जयपुर स्थित प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो के प्रभारी हुआ करते थे। यहां से जाने के बाद उन्होंने भारतीय सूचना सेवा के अन्तर्गत अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया और 1976 में वे सेवा निवृत हो गए।
अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद पिछले तेईस चौबीस वर्षों से जिस तरह उन्होंने स्वाध्याय और अध्यवसाय से अपना विद्या-व्यसन बनाये रखा और अपने ज्ञान क्षितिजों का विस्तार किया, वह अपने आप में बहुत प्रेरणादायक प्रसंग है। जनसम्पर्क और जहाजरानी पर तो उनको पुस्तकें बहुचर्चित हुई हैं, पिछले साल 'राजस्थान पत्रिका' में प्रकाशित 'जीने की कला' शीर्षक उनकी लेखमाला ने उनके सर्वथा नये ही स्वरूप का परिचय दिया।
बलदेव सहायजी ने इस लेखमाला में शरीर के सारे अवयवों को स्वस्थ रखने, मन और मस्तिष्क को अनुशासित करने और सदा प्रफुल्लचित्त रहकर आनन्द भाव में जीने के जो गुर बताए हैं, वे आत्मसात् करने योग्य हैं। बलदेव सहायजी ने जो कुछ लिखा है, वह उन्होंने स्वानुभूति और व्यवहार में आचरण करके लिखा है, इसलिए उसकी प्रामाणिकता पुख्ता है।
मुझे यह देखकर प्रसन्नता है कि उनकी उक्त लेखमाला अब पुस्तकाकार छप रही है। जिन दिनों यह लेखमाला धारावाहिक रूप में छप रही थी, उसकी सामग्री की भरपूर सराहना पाठकों ने की थी और उन्हीं के आग्रह पर इसे यह रूप दिया जा रहा है।
मुझे विश्वास है कि यह पुस्तक सामान्यजन से लेकर बड़े बुद्धिजीवियों तक सभी के लिए उपादेय सिद्ध होगी और बड़ी संख्या में लोग इससे लाभ उठा सकेंगे। मैं बलदेव सहायजी को इस पुस्तक के प्रकाशन पर अपनी हार्दिक बधाई देता हूँ और कामना करता हूं कि उनकी लेखनी निरन्तर इसी प्रकार चलती रहे।
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