शाब्दसूर्य नमस्कृत्य दयानन्दं मनःस्थितम्।
गुरुं च पितरौ नत्वा लेखनकार्यं करोम्यहम् ॥
[स्वरचित श्लोक]
शाब्दसूर्य = व्याकराणाचार्य स्वामी विरजानन्द दण्डी जी को, नमस्कृत्य -प्रणाम करके, दयानन्दं युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी को, मनःस्थितम् - मन में धारण कर, गुरु प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से ज्ञान प्रदाता गुरुजनों, च और, पितरौ अपने माता-पिता जी को, नत्वा नमन करते हुए, लेखनकार्यं -महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अनुपम ग्रंथ संस्कारविधि का सरल एवं संक्षिप्त रूप अथ संस्कार परिचय का लेखन, करोम्यहम् मैं कर रहा हूँ।।
भारतीय संस्कृति विश्व की समस्त संस्कृतियों में प्राचीन एवं वैज्ञानिक है। इस संस्कृति का मूल आधार है भारतीय संस्कार, जो मानव को मानव होने की पदवी देते हैं क्योंकि मनु जी महाराज ने स्पष्ट लिखा है- 'जन्मना जायते शुद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते' [मनुस्मृति, अध्याय-10, श्लोक-65] अर्थात् मानव जन्म से ही शूद्र होता है, संस्कारों की शरण में आकर वह मानव द्विज कहलाता है।
यह सर्वविदित है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ब्रह्मा से लेकर जैमिनिमुनि पर्यन्त ऋषियों का अनुसरण करते हुए विक्रम संवत् 1932 कार्तिक कृष्णपक्ष 30 शनिवार के दिन संस्कारविधिः इस महान् ग्रन्थ की रचना की थी। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी संस्कारविधिः में लिखते हैं- संस्कार का अर्थ होता है- शुद्ध करना, साफ करना, चमकना और भीतरी रूप को प्रकाशित करना। हमारी दिनचर्या की भाँति हमारी जीवनचर्या भी नियमित है। जन्म से मृत्यु पर्यन्त के मानव जीवन का गंभीर अध्ययन करके महर्षि दयानन्द सरस्वती ने उत्कृष्ट ग्रन्थ संस्कारविधिः हमें उपहारस्वरूप भेंट किया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के इस पवित्र ग्रंथ को और सरल हिन्दी में प्रस्तुत करने का एक छोटा सा प्रयास किया है क्योंकि इस भागमभाग की दिनचर्या में लोग संस्कृत के ग्रन्थों को न पढ़कर अनुवाद पढने का सहारा लेते हैं और गलत अनुवादों को पढ़ने से संस्कारों के विपरीत क्रिया करते हैं, जिससे उनके विपरीत व्यवहार को देखा गया है इसीलिए मैंने सन् 2010 में मन में ठान लिया था कि संस्कारविधिः का संक्षिप्त व सरल स्वरूप प्रस्तुत करूँगा, जिससे जनमानस आसान तरीके से संस्कारों की जानकारी लेकर इन संस्कारों को अपने जीवन का एक अंग बनाए।
ईशकृपा बिना संसार का कोई भी कार्य नहीं होता। यह पुस्तक लिखने के लिए ईश्वर ने जो मेधाबुद्धि प्रदान की, जिससे में इस जटिल कार्य को करने में सफल हुआ, ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापन करना असम्भव है।
माता-पिता तथा परिजनों के आशीर्वाद व सहयोग बिना कुछ भी कर पाना असंभव है, अतः माता-पिता एवं ज्येष्ठों के श्रीचरणों में दण्डवत् प्रणाम तथा धर्मपत्नी जी का भी आभार, जिनके सहयोग से यह कार्य पूर्णता की ओर अग्रसरित हो रहा है।
इस लघु पुस्तिका को लिखने में जिन-जिन विद्वानों का आशीर्वाद मिला, उनमें सर्वप्रथम मेरे पूज्य कुलगुरु डा० आचार्य सुरेश चन्द्र शास्त्री जी, जो मेरे जीवन के प्रत्येक चरण पर पथ-प्रदर्शक हैं, आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन है।
इस पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ के एक-एक शब्द पर अपनी व्याकरणिक शुद्धता का आशीर्वाद प्रदान करने वाले पूज्य आचार्य प्रो० प्रकाशचन्द्र वेदालंकार जी हैं। आपने पूरी पुस्तिका को आद्योपान्त पढ़कर अशुद्धियों का संशोधन कर मुझ पर विशेष अनुकम्पा दर्शाई, आपके प्रति कोटिशः अभिवादन तथा हृदय की अनंत गहराइयों से आभार एवं धन्यवाद।
तथा जिन विद्वानों ने इस पुस्तक को पढ़कर अपनी सम्मतियाँ प्रदान कर मुझे अपना आशीर्वाद दिया, उनमें प्रो. प्रकाशचंद्र वेदालंकार जी. डा. राकेश कुमार आर्य जी, आचार्य नरेन्द्र वेदालंकार जी, श्री राजकुमार दिवान जी, आचार्य यशपाल शास्त्री जी, डा. देवेशप्रकाश जी, सब गुरुजनों, आर्यजनों व ज्येष्ठों का आभार तथा धन्यवाद।
मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि आर्यसमाज के स्थापना दिवस के 150 वें वर्ष के पावन अवसर पर इस पुस्तक का प्रकाशन हो रहा है।
अंत में, पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि मेरे इस प्रथम प्रयास को पढ़कर आपके संज्ञान में जो भी त्रुटि आए, कृपया अवगत कराएं, जिससे इस पुस्तिका के द्वितीय संस्करण में अशुद्धियों का निराकरण किया जा सके।
मैंने अपनी अल्पमति से सभी संस्कारों को सरल शैली में संक्षिप्त रूप में बताने का भरसक प्रयास किया है। संस्कारों की विस्तृत जानकारी हेतु महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अनुपम ग्रंथ संस्कारविधिः को पढ़ें।
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