त्मजयी में उठायी गयी समस्या मुख्यतः एक विचारशील व्यक्ति की समस्या है। कथानक का नायक़ नचिकेता मात्र सुखों को अस्वीकार करता है : तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति-भर ही उसके लिए पर्याप्त नहीं। उसके अन्दर वह बृहत्तर जिज्ञासा है जिसके लिए केवल सुखी जीना काफ़ी नहीं, सार्थक जीना जरूरी है। यह जिज्ञासा ही उसे उन मनुष्यों की कोटि में रखती है जिन्होंने सत्य की खोज में अपने हित को गौण माना, और ऐन्द्रिय सुखों के आधार पर ही जीवन से समझौता नहीं किया, बल्कि उस चरम लक्ष्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया जो उन्हें पाने के योग्य लगा।
नचिकेता की चिन्ता भी अमर जीवन की चिन्ता है। 'अमर जीवन' से तात्पर्य उन अमर जीवन-मूल्यों से है जो व्यक्ति-जगत् का अतिक्रमण करके सार्वकालिक और सार्वजनीन बन जाते हैं। नचिकेता इस असाधारण खोज के परिणामों के लिए तैयार है। वह अपने आपको इस धोखे में नहीं रखता कि सत्य से उसे सामान्य अर्थों में सुख ही मिलेगा; लेकिन उसके बिना उसे किसी भी अर्थ में सन्तोष मिल सकेगा, इस बारे में उसे घातक सन्देह है। यम से साक्षात् मृत्यु तक से- उसका हठ एक दृढ़ जिज्ञासु का हठ है जिसे कोई भी सांसारिक वरदान डिगा नहीं पाता।
नचिकेता अपना सारा जीवन यम, या काल, या समय को सौंप देता हैं। दूसरे शब्दों में वह अपनी चेतना को काय सापेक्ष समय से मुक्त कर लेता है : वह विशुद्ध 'अस्तिबोध' रह जाता है जिसे 'आत्मा' कहा जा सकता है। आत्मा का अनुभव तथा इन्द्रियों द्वारा अनुभव, दो अलग बातें मानी गयी हैं। भारत के प्राचीन चिन्तकों ने यदि इन्द्रियों को प्रधानता नहीं दी, तो इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने शरीर या संसार को झूठ माना; बल्कि यह कि उन्होंने बुद्धि और बुद्धि से भी अधिक जो सूक्ष्म हो उस आत्मा को अधिक महत्त्व दिया। वे कठिन आत्म-निग्रह द्वारा सिद्ध करते रहे कि विषयों के अधीन बुद्धि नहीं, बुद्धि के अधीन विषय हैं। शारीरिक जीवन जीते हुए भी शरीर के प्रति अनासक्त रहा जा सकता है। उनका अनुभव था कि बिना आत्म-बल के मनुष्य अपनी शक्तियों का उचित उपयोग नहीं कर सकता, चालक-विहीन रथ की तरह वह निरंकुश अश्वों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जाएगा। किसी भी महान् लक्ष्य के लिए अर्पित होने से पहले अपने इस आत्म-विश्वास को पाना अत्यन्त आवश्यक है। तभी मनुष्य अपने लिए, तथा सबके लिए, निजी सुख-सुविधाओं से बृहत्तर कुछ प्राप्त कर सकता है- अपना जीवन किसी अमर अर्थ में जी सकता है। तब वह जीवन से केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला असहाय नहीं, जीवन को कुछ दे सकने वाला समर्थ मनुष्य होगा। उसके लिए तब यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है : उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। यथार्थ अब उसके बाहर नहीं, उसमें है, उससे है- अन्यथा वह कुछ नहीं है। सम्पूर्ण बाह्य परिस्थिति या तो उसकी चेतना से विकीर्ण है-चेतना जो उसके वश में है, चीजों के वश में नहीं-या फिर अँधेरी है। वह चाहे तो सब कुछ अस्वीकार करके स्वयं को काल को लौटा दे : चाहे तो उसे स्वीकार करके एक नया अर्थ दे।
पहली परिस्थिति में नचिकेता अपने आपको काल को सौंप देता है :
अर्थात् वह दिये हुए बाह्य जीवन को अस्वीकार करता है। आन्तरिक जीवन के प्रति सचेत होते हुए भी वह अभी अपने में उस आत्म-शक्ति का विकास नहीं कर पाया है जो बाहरी परिस्थितियों से विचलित न हो। वह निराशा के उस चरम बिन्दु पर पहुँच जाता है जहाँ साधारण जीवन कोई सान्त्वना नहीं। अस्तित्व पूर्णतः निरर्थक और असार लगता है। मन की वह वीतराग दशा जब सारे भौतिक मूल्य समाप्त हो जाते हैं- अस्तित्व जगत्-सापेक्ष नहीं रह जाता। स्वयं को सोचता हुआ व्यक्ति ही एक इकाई रह जाता है जिसके सामने दूसरी इकाई है केवल एक अनिर्वच महाशून्य। वह है, और उसके चारों ओर एक सपाट अँधेरा : उस अँधेरे में ऐसी कोई चीज नहीं जिसमें वह अपनी चेतना को लिप्त रख सके। आत्महत्या ही उसे एक रास्ता दिखाई देता है। भय-मिश्रित उत्कंठा उसके समस्त जीवन-बोध को आक्रान्त कर लेती है।
पास्काल का कहना था कि अनन्त विस्तार का अटूट मौन मुझे भयभीत करता है। 'यह गुम्बदे मीनाई, यह आलमे तनहाई। मुझको तो डराती है इस दश्त की पहनाई' में इक्क़बाल का संकेत भी उसी 'भय' की ओर है जिसे हम जगह-जगह साहित्य और दर्शन में व्यक्त पाते हैं और जो आधुनिक अस्तित्ववादी दर्शन के भी मूल आधारों में से है। लेकिन इस 'भय' या 'उत्कंठा' का परिणाम अन्ततः निराशावादी ही होगा, ऐसा मानना भारतीय दर्शन के एक महत्त्वपूर्ण स्थिति-निरूपण को ही गलत समझना होगा। मृत्यु के चिन्तन से जीवन के प्रति निराशा ही पैदा हो, ऐसा आवश्यक नहीं- कोई नितान्त मौलिक दृष्टिकोण भी जन्म पा सकता है। मृत्यु की गहरी अनुभूति ने जीवन को असमर्थ कर दिया हो, इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहाँ चिन्तक की दृष्टि कुछ इस तरह पैनी हुई कि वह मृत्यु से भी अधिक शक्तिशाली कुछ दे जाने के प्रयत्न में जीवन को कोई असाधारण निधि दे गया। बृहदारण्यक में 'अभयं वै ब्रह्म' में विश्वास करनेवाले याज्ञवल्क्य ज्ञान के जिस आदर्श को प्रतिष्ठित कर गये वह मृत्यु से परे की चीज़ है। बुद्ध भी रोग, जरा, मृत्यु को विचारते हुए जीवन को एक ऐसा दर्शन दे गये जो उनके बाद सैकड़ों वर्षों से जीवित है। शंकराचार्य, कबीर आदि अनेक ऐसे उदाहरण मिलेंगे जिनकी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि मृत्यु की तीव्र अनुभूति के कारण उत्तेजित हुई। मृत्यु के प्रति निरपेक्ष भी रहा जा सकता है, जैसे जीवन के बहुत-से तथ्यों के प्रति निरपेक्ष रहते हुए भी एक कामचलाऊ जीवन-दर्शन बना लिया जा सकता है। लेकिन मैं इस भय को निराधार मानता हूँ कि मृत्यु का चिन्तन भी जीवन के लिए उसी प्रकार घातक होगा जैसे मृत्यु स्वयं। मृत्यु को सोचने का यही परिणाम नहीं कि आदमी उसके सामने घुटने टेक दे और हताश होकर बैठा रहे। वह ऐसा कुछ करना चाह सकता है जिसे मृत्यु कभी, या आसानी से, नष्ट न कर सके। मृत्यु का सामना करना, उस पर विजयी होने की कामना भी बिल्कुल स्वाभाविक है। मृत्यु से बड़ा होने के प्रयत्न में वह जीवन ही से बड़ा हो जा सकता है। लेकिन यदि हम जीवन से मृत्यु के बारे में सोचना ही निकाल दें, तो अधिक सम्भावना यही है
कि हम किसी ऐसे जीवन-दर्शन को अपनाकर चलेंगे जिसकी तात्कालिक सफलता उतनी ही आसान और कल्पनारहित होगी, जितनी वह अस्थायी होगी। अगर हम उतने ही से सन्तुष्ट हो सकते हैं जितने से मृत्यु के बारे में कभी न सोचनेवाले प्राणी हुआ करते हैं, तो मृत्यु क्या किसी भी यथार्थ के बारे में गम्भीर चिन्तन की दलील व्यर्थ है।
यह आत्महत्या का बिन्दु, जिस तक नचिकेता पहुँचता है, मुझे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लगा- प्राचीन तथा आधुनिक दोनों ही सन्दर्भों में।
भारतीय दर्शन की तो शायद ही ऐसी कोई महत्त्वपूर्ण धारा हो जिसका प्रवर्तक इस तरह की वीतराग स्थिति से नहीं गुज़रता। मृत्यु को विचारते हुए सहसा जीवन से उपराम हो जाते हुए बुद्ध की निराशा नचिकेता की निराशा से बहुत भिन्न नहीं। इसी प्रकार गीता में, 'युद्ध नहीं करूँगा' कहकर अर्जुन जब हथियार डाल देता है उस समय जीवन की असारता के प्रति अकस्मात् सचेत हुए अर्जुन की वेदना का कोई अन्त नहीं। पहली परिस्थिति में, नचिकेता की ही तरह वे सब भी अपने आपको किसी-न-किसी रूप में संसार की अपेक्षा समाप्त कर लेते हैं।
हम देखते हैं कि इस बिन्दु से प्रत्येक चिन्तक लौटता है-फिर एक बार जीवन की ओर। वह फिर से जीवन को जीता है किसी ऐसे सत्य के लिए जिसे वह समझता है अमर है। यही उसका शाश्वत जीवन है, अमर जीवन है। वह सत्य 'निर्वाण' हो सकता है, वह सत्य 'ईश्वर' हो सकता है, वह सत्य 'ब्रह्म' हो सकता है- वह सत्य कोई ऐसा जीवन-सत्य हो सकता है जो मरणधर्मा व्यक्तिगत जीवन से बड़ा हो, अधिक स्थायी हो, या चिरस्थायी हो।
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