पण्डित बस्तीराम जी का नाम कौन नहीं जानता? जो लोग स्वामी दयानन्द जी की जीवनी जानते हैं वे दादा बस्तीराम जी के नाम को भी अवश्य जानते हैं। हरयाणा सहित पूरे उत्तर भारत में तो दादा बस्तीराम के पदचिह्न आज भी देखे जा सकते हैं। उनकी रचनायें हरयाणा की माताओं द्वारा लोकगीतों के रूप में अपनाई गई हैं। सत्य कथाओं के अतिरिक्त अनेक दंतकथायें भी उनके विषय में प्रचलित हैं। उनके जीवनकाल में उनकी अनेक भजनों की पुस्तकें प्रकाशित हुईं, उनके देहान्त के बाद भी लम्बे समय तक उनके साहित्य को खण्डों में आचार्य वेदव्रत जी रोहतक छापते रहे। 2006 ई. में स्व. चौधरी मित्रसेन जी आर्य ने अनेक आर्य भजनोपदेशकों के साहित्य को अपने परममित्र मानव निर्माण संस्थान के माध्यम से प्रकाशित करा कर उसे संरक्षित करने का कार्य किया, जिसमें 'पण्डित बस्तीराम सर्वस्व' भी थी। इन सब पुस्तकों में दादाजी के जीवन के संबंध में सामान्य जानकारी ही दी जा सकी थी। इस आत्मकथा का न तो कोई उल्लेख किया गया था और न ही कोई सन्दर्भ दिया गया था, जबकि न तो दादा बस्तीराम को हुये सदियाँ बीत गई हैं न इस आत्मकथा को प्रकाशित हुये सैंकड़ों वर्ष हो गये हैं, लेकिन पुरानी पीढ़ी सहित आज के अन्वेषक भी इसे भूल गये और आश्चर्य है कि किसी जीवनी लेखक के संज्ञान में यह नहीं आई या उन्होंने इसका महत्त्व नहीं समझा। यह आत्मकथा स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती द्वारा संचालित गुरुकुल झज्जर के मासिक पत्र 'सुधारक' के जून 1964 अंक में प्रकाशित हुई थी। दादा बस्तीराम जी के प्रमुख शिष्य थे- महाशय रामपत जी वानप्रस्थी। (ग्राम आसन, जिला रोहतक, 13 अप्रैल 1893-9 फरवरी 1983; महाशय जी के पिता चौधरी शेरसिंह हुड्डा स्वामी श्रद्धानन्द जी से प्रभावित थे और उनके सहयोगी थे।) उनसे दादाजी का निरन्तर सम्पर्क रहता था। महाशय जी के सुपुत्र श्री पं. सुखदेव जी शास्त्री स्वयं आर्यसमाज के विद्वान उपदेशक थे। उन पिता पुत्र का आर्यसमाज ऋणी है कि वे दादाजी के संस्मरणों को प्रत्यक्ष रूप में उनसे सुनकर लिखते रहे और यथासम्भव उनको प्रकाशित भी करते रहे। दादा बस्तीराम जी की एक और पुस्तक 'आर्यसमाज के प्रवक्ता' सुखदेव शास्त्री जी ने प्रकाशित कराई थी, जिसके बारे में आज लोग नहीं जानते। 1950 के आसपास दादाजी आसन गाँव में एक मास तक रुके थे और प्रचार किया था। सुखदेव शास्त्री जी अपने पूज्य पिता महाशय रामपत जी की प्रेरणा से दादाजी के उपदेशों का संकलन और प्रश्नोत्तर के माध्यम से उनके विचारों का संग्रह करते गये और यथासमय इनको प्रकाशित भी किया। यह सामग्री महाशय रामपत जी और पं. सुखदेव शास्त्री जी के जीवन काल में प्रकाशित हो गई थी, इसलिये इसकी प्रामाणिकता पर किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिये। (इस पुस्तक को धरोहर के रूप में संभलकर रखने के लिये और हमें प्रदान करने के लिये हम आदरणीय प्रकाशवीर जी सुपुत्र श्री पं. सुखदेव जी शास्त्री के आभारी हैं)
यह आत्मकथा कहीं इतिहास के अंधकार में खो जाती, यदि प्राचीन साहित्य के अन्वेषक और सोशल मीडिया में प्रचारक डॉ. विवेक आर्य (शिशु रोग विशषज्ञ, दिल्ली) के संज्ञान में नहीं आती।
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