आयुर्वेद विश्व की सबसे प्राचीन और सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति है। भगवान धन्वन्तरि इसे पृथ्वी पर लेकर आये। आयुर्वेद के सभी प्राचीन ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। बाद में संस्कृत में ही उनकी सरल तरीका की गई। धीरे-धीरे समयानुकूल हिन्दी भाषा में व्याख्या-टीका का प्रचलन हुआ। प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में लगभग दस सहस्र योगों का विवरण है लेकिन वर्तमान में केवल दो सौ के लगभग योगों का ही प्रचलन है। संभवतया शार्ङ्गधराचार्य ने सबसे पहले अनुभूत योगों का संकलन प्रारम्भ किया। अनुभूत योगों की मांग सदैव ही रही है क्योंकि एक चिकित्सक के लिए विभिन्न योगों का निर्माण और परीक्षण बहुत ही मुश्किल है। यूनानी चिकित्सा साहित्य में भी ऐसे अनुभूत प्रयोग कराबादीन के नाम से बने हैं जैसे कराबादीन निजामी।
मुगलों और अँग्रेजों के लम्बे समय तक शासन करने के कारण देश में यूनानी व पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति-एलोपैथी का प्रचार-प्रसार अधिक हुआ। एलोपैथी में नए-नए अनुसंधान होने के कारण उसे अधिक सफलता और लोकप्रियता मिली, लेकिन इन सबके बावजूद आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति ने ही अधिकांश लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। भारत की जलवायु और वातावरण के अनुसार भी रोगों के लिये आयुर्वेद ही सर्वश्रेष्ठ गुणकारी व वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है।
वर्तमान में हिन्दी में जो आयुर्वेदीय ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे या तो बहुत विस्तृत हैं या एकांगी और बहुत संक्षिप्त। विस्तृत ग्रन्थों में वैद्यों और सामान्य पाठकों की यह शिकायत रहती है कि "हमें योगों के एक विस्तृत जंगल में भटका दिया जाता है, हम निर्णय नहीं ले पाते कि सैकड़ों योगों में से किस योग का चुनाव करें।" रोगी की प्रकृति और रोग के लक्षणों की विभिन्नता के कारण सभी योग सभी रोगियों पर समान रूप से उपयोगी भी नहीं हो सकते। कतिपय व्यावसायिक लेखकों ने भी केवल संकलन कर या रूपान्तर कर आयुर्वेद के सम्मान में ठेस पहुँचाई है। उन्होंने अपने जीवन में एक भी रोगी का निदान नहीं किया, एक भी योग बनाना तो दूर रहा, उसके घटक द्रव्य भी कभी आँखों से नहीं देखे फिर भी पुस्तक लिख दी।
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने मध्यम मार्ग का अनुसरण किया है। पहले रोग का संक्षिप्त परिचय व कारण बताते हुये, विभिन्न रोगियों में पाये जाने वाले वास्तविक लक्षणों का विवरण दिया है। प्राथमिक चिकित्सा के रूप में घर में और आस-पास पाये जाने वाले द्रव्यों से ही चिकित्सा दी गई है। बाद में अनुभूत दो-तीन शास्त्रीय योग दिये हैं। आवश्यकतानुसार प्रसिद्ध और सफल चिकित्सकों के 'औषध व्यवस्था पत्र' भी हुबहु दिये हैं ताकि सम्बन्धित रोगी निस्संकोच लाभ उठा सके। नये पुराने आयुर्वेदीय ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त आयुर्वेदिक सेमिनारों एवं गोष्ठियों में प्राप्त अनुभव का उपयोग भी यथा सम्भव देने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में उल्लेखित अधिकांश शास्त्रीय योग मेरे द्वारा अथवा मेरे पिताजी द्वारा या मेरे परिचित वैद्य बन्धुओं द्वारा आजमाये हुये हैं। कतिपय ऐसे योग भी हैं जिनके सफल परीक्षण वैद्यों एवं पाठकों द्वारा किये जा चुके हैं और ऐसी सूचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में दी जा चुकी हैं। पाठकों से निवेदन है कि वे अपने अनुभव, अपने विचार, अपने प्रयोग सूचित करें ताकि आगामी संस्करण में आवश्यक संशोधन एवं परिवर्द्धन किया जा सके।
प्रस्तुत पुस्तक लेखन में मुझे स्व. मोहनलालजी दीक्षित 'गुरांसा' (लाडनूँ), वैद्य कृष्णानंदजी वैष्णव (लाडनूँ), वैद्य सोहनलालजी दाधीच (सुजानगढ़) और वैद्य संतोष कुमार जी शर्मा (डीडवाना) से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बहुत सहायता मिली, जिसके लिए मैं हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। अन्त में मैं श्री मूलचन्द जी गुप्ता के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिन्होंने शुद्ध जन-कल्याण और आयुर्वेद की उन्नति की इच्छा से इतने कम समय में इस पुस्तक को प्रकाशित किया।
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