स्थापनाः वेद, ज्ञान-विज्ञान का अथाह भण्डार है। इनकी संख्या चार है तथा इन चारों के अपने-अपने उपवेद हैं।
अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद है। यानि आयुः का ज्ञान कराने वाला ग्रन्थ रत्न अर्थात् वह ग्रन्थ जो प्राणिमात्र, विशेषतः मानव की आयुः को निर्धारित और प्रभावित करने वाले कारणों/उपायों का विवेचन प्रस्तुत करता है। भारतीय परम्परा के अनुसार (इसमें आयुर्वेद की परम्परा भी शामिल है) आयुर्वेद का आविर्भाव सृष्टि-संरचना के साथ ही हुआ था अर्थात् तब जब पृथवी पर मानव तथा अन्य प्राणियों का उदय हुआ था।
मानव के पृथ्वी पर जन्म लेने के साथ ही रोग-नीरोग का द्वन्द्व उसके साथ जुड़ा हुआ माना जाता है। भारतीय परम्परा के अनुसार रोगों में सर्वप्रथम ज्वर (बुखार) का उदय, दक्ष प्रजापति के यज्ञ के भगवान् रूद्र (शिव) द्वारा विध्वंस किए जाने के साथ जुड़ा हुआ बताया जाता है। और यह घटना सत्य युग की है।
आयुर्वेद का अर्थः आयुर्वेद एक यौगिक शब्द है। यह आयुः तथा वेद शब्दों के योग से बना है। आयुः का सामान्य अर्थ है अवस्था या उम्र तथा विद् धातु से बने वेद का अर्थ है, ज्ञान। अर्थात् आयुः का ज्ञान कराने वाला ग्रन्थ, यह हुआ आयुर्वेद। आयुः को प्रभावित करने वाले तत्त्वों यथा सुख-दुखः हित अहित, रोगता-नीरोगता आदि का जिस (ग्रन्थ) में विचार किया जाता है वह आयुर्वेद है।
उत्पत्ति तथा इतिहासः ब्रह्मा जी को आयुर्वेद प्रदाता समझा जाता है। जिन्होंने सर्वप्रथम इस ज्ञान का उपदेश अपने मानस-पुत्र दक्ष प्रजापति को दिया था। दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान भण्डार देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों को प्राप्त हुआ तथा उनसे देवराज इन्द्र ने यह ज्ञान प्राप्त किया। इन्द्र ने ही आत्रेय आदि ऋषियों को इस विद्या का ज्ञान करवाया।
महर्षि चरक ने आत्रेय संहिता का प्रतिसंस्करण (पुर्नसम्पादन) किया था और वही ग्रन्थ आज भारतीय चिकित्सा जगत् में चरक संहिता के नाम से प्रसिद्ध तथा सम्मानित है। इनके समय के बारे में मतैक्य नहीं है।
आज आयुर्वेदीय चिकित्सा शास्त्र में प्रधानतः 6 ग्रन्थों का विशेष महत्व है और ये ग्रन्ध हैं (1) चरक संहिता (2) सुश्रुत संहिता (3) वाग्भट्ट कृत अष्टसँग हृदयम् । इन तीनों ग्रन्थों को चिकित्सा जगत् में वृदत्त्रयी का नाम दिया गया है। इनके अतिरिक्त तीन अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं: (1) आचार्य शार्ङ्गधर की शार्ङ्गधर संहिता; (2) आचार्य भावमिश्र का भावप्रकाश (वर्तमान में दो भागों में उपलब्ध); (3) आचार्य माधव का माधव-निदानम् (मात्र रोग लक्षण ग्रन्थ)
इनके अतिरिक्त आयुर्वेद के अनेक प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनमें (19वीं शताब्दी के) भिषज्वर श्री लोलिम्बराज कृत वैद्य जीवनम् का महत्वपूर्ण स्थान है। इस पुस्तक में श्री लोलिम्बराज ने श्रृंगार रस प्रधान शैली (शैली की दृष्टि से चिकित्सा जगत् में यह अनूठा ग्रन्थ है) रोगों के इलाज का विस्तृत (संक्षिप्त) वर्णन प्रस्तुत किया है -
"यतः सर्वेषु रोगेषु प्रायशो बलवान् ज्वरः ।
अतस् तस्य प्रतीकारम् प्रथमं ब्रूमहे वयमः"
अर्थात् जिससे सब रोगों में ज्वर ही बलवान्, इसी कारण से हम तिसको चिकित्सा को (सर्वप्रथम तथा विस्तारपूर्वक) कहते हैं। यदि वैद्य प्रवर श्रीलोलिम्बराज 'वैद्य जीवनम्' में रोगोपचार (रोगों का इलाज) के साथ-साथ रोगों के कारण, लक्षण-प्रकार आदि का विवरण भी देते तो और अधिक ध्यान आकर्षित करती। इस "वैद्य जीवनम्" की एक विशेषता यह भी है कि रोगोपचार में प्रधानतः क्वाथ (काढ़ा) को उपचार का आधार बनाया गया है। कहीं-कहीं चूर्ण और वाटिका (गोली) का भी विधान है। अरिष्ट-आसव, रस, भस्म या पुट-पाक विधि द्वारा तैयार होने वाली औषधों को आधार नहीं बनाया गया। मात्र पाँचवें विलास के अन्तर्गत बाजीकरण तथा रस (रसायन) के सन्दर्भ मै पारद (पारा) सदृश वस्तुओं के उपयोग का वर्णन मिलता है।
लगभग 50 रोगों का न्यूनाधिक 200 (दो सौ) औषध द्रव्यों के साथ रोगोपचार प्रस्तुत किए गए हैं। इस ग्रन्थ की विषय वस्तु (रोग-विवरण) तथा औषध-द्रव्यों की सूची को भी परिशिष्ट रूप में वैद्य जीवनम् के हिन्दी रूपान्तर के साथ दिया गया है।
प्रस्तुत कृति के निर्माण का कारणः श्री लोलिम्बराज के वैद्य-जीवनम् में रोगों के कारण, लक्षण तथा प्रभाव आदि के विवरण के अभाव को ध्यान में रखते हुए मैंने चरक संहिता सुश्रुत संहिता (जो चिकित्सा शास्त्र की अपेक्षा शल्य-शाल्य - (सर्जरी) ग्रन्थ अधिक है) आचार्य वाग्भट्ट कृत अष्टाँग हृदयम् जैसे प्राचीन तथा शार्ङ्गघर, भावमिश्र तथा आचार्य माधव के (मध्यकालीन) और रस सार संग्रह, भैषज्य रत्नावली, योग तरंगिणी समान आधुनिक ग्रन्थों के अध्ययन के पश्चात् मुख्य 14 (चौदह) रोगों को ध्यान में रखकर तथा उनके कारण (रोगोत्पत्ति के) लक्षण तथा प्रभाव आदि का वर्णन प्रस्तुत करने के साथ साथ श्री लोलिम्बराज द्वारा प्रस्तुत उपचारों को इस रचना में यथाशक्ति यथास्थान रखने का प्रयास किया है ताकि वैद्य जीवनम् के इस अभाव पक्ष को किसी सीमा तक भाव पक्ष में बदला जा सके। साथ ही निदान (कारणादि) तथा उपचार विचार में अन्य ग्रन्थों द्वारा वर्णित उपचारों का भी यथास्थान वर्णन किया गया है।
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