बालाघाट क्षेत्र में ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के खिलाफ बैनगंगा नदी घाटी क्षेत्र तथा लांजी - कामठा में स्वराज की लड़ाई सच्चे अर्थों में चिमना बहादुर बहेकार नामक जमींदार ने लड़ी थी। यहाँ कामठा नामक परगना के जमींदार ने सितंबर, 1818 में ब्रिटिश उपनिवेशी सेना को प्रचंड ललकार से चुनौती दी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से 39 बरस पूर्व इस क्षेत्र में सशस्त्र क्रांति हुई थी। इसी आंदोलन की इस विशाल मीनार की एक सीढ़ी असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन, झण्डा सत्याग्रह और जंगल सत्याग्रह थे, जिसका भारतीय राजनीति और इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है तथा बालाघाट जिले ने भी इन आंदोलनों में लगातार संक्रिय भूमिका निभाई।
बालाघाट के स्वाधीनता संग्राम के लेखन का कार्य एक चुनौतीपूर्ण कार्य था जिसे पूर्ण करने में विविध स्रोतों, संसाधनों और व्यक्तित्वों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। जिले के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ कृष्ण मोदी, वारासिवनी के संस्मरणों ने इस शोध को मौलिक और अद्भुत स्वरूप प्रदान किया।
मै आभारी हूँ अपने सभी साथियों, मित्रों का यथा-1818 ई के क्रांति के महा नायक चिमना जी बापू के 13 वीं-14 वीं पीढ़ी के वंशज श्री विजय शामराव बाहेकर (गोंदिया), श्री आनंद वर्मा, श्री लोकचंद ठाकरे, श्री मनीष हेड़ाऊ और श्री विशाल गोखले और अनुजवत श्री राजा उत्कर्ष शुक्ल जिनका मुझे हर समय यथोचित सहयोग मिला। मैं इस शोध को समझने में, संसाधन जुटाने में महती भूमिका निभाने वाले विख्यात संपादक, विवेकवान चिंतक और लेखक, संस्कृति कर्मी श्री सुभाष मिश्र, रायपुर का विशेष तौर पर आभारी हूँ जिन्होंने अपने वारासिवनी स्थित पं. राधाकिशन मिश्र पुस्तकालय के द्वार मेरे शोध अध्ययन के लिए सहर्ष खोल दिये थे। मेरे अग्रज आध्यात्मिक शख्सियत पं. शिवकुमार शुक्ल 'महाकाल', वारासिवनी के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजन श्री दिलीप मराठे, श्री प्रदीप जैन 'अय्या', मित्र श्री अनिल पिपरेवार के इस अप्रतिम सहयोग का मैं आभारी रहूँगा।
इस शोध कार्य को पूर्ण करने में राष्ट्रीय भिलेखागार, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तकालय, राज्य अभिलेखागार, भोपाल, माधव राव सप्रे संग्रहालय भोपाल, केंद्रीय संग्रहालय नागपुर से मिले सहयोग के लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
मैं अपनी इस अक्षर यात्रा के लिए माता श्रीमती केसर शांडिल्य के आत्मीय स्नेह के लिए आजीवन ऋणी रहूँगा। बालाघाट जिले की ऐतिहासिकता और स्वतंत्रता आंदोलन पर शोध लिखते हुए मुझे परम श्रद्धेय स्वर्गीय पिता श्री साधुराम शांडिल्य की मधुर स्मृति बनी रही, जिससे मुझे अप्रत्यक्ष रूप से कुछ मौलिक एवं रचनात्मक कर गुजरने की प्रेरणा मिलती रही है और अपने परिवार के सभी सदस्यों का विशेषकर पितातुल्य स्वसुर स्व. श्री जी.पी. श्रीवास का जिनके उत्साहवर्धन सहयोग और आशीर्वाद ने मेरे लिए हमेशा पाथेय का कार्य किया।
जीवनसंगिनी स्नेहा का भी धन्यवाद, जिन्होंने इस फैलोशिप शोध अवधि में मुझे हर जिम्मेदारियों से मुक्त रखा, जिससे मैं अपने शोध कार्य, अध्ययन और अनवरत हुई यात्राओं को सुचारू ढंग से पूरा कर पाया। बेटू अद्वितीय शौर्य और लाडली तेजस्विता का भी इस शोध में अकिंचन योगदान मैं मानता हूँ जिनकी वजह से मैं इसे पूर्ण कर पाया।
मैं स्वराज संस्थान संचालनालय, संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश का अत्यंत आभारी हूँ जिन्होंने बालाघाट जिले के स्वाधीनता संग्राम के लेखन का महत्वपूर्ण दायित्व मुझे प्रदान किया। अंत में इस पुस्तक में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग के लिए सभी का धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
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