प्राक्कथन
सतसई-साहित्य के सुमन की परम्परा भारतीय साहित्य में बहुत पुरातन है। संस्कृत-साहित्य में दुर्गा सप्तशती, गाथा सप्तशती इत्यादि अनेक प्रसिद्ध सतसइयां लिखी गई। इन्हों से प्रभावित होकर संख्यापरक रचनाओं का हिन्दी में भी सूजन होने लगा। हिन्दी का सतसई-साहित्य अपने काव्य सौष्ठव के लिये जगत् प्रसिद्ध है। बिहारी की सतसई इस परम्परा की सशक्त रचना है जो अपने विषय वैविध्य, लालित्य, कल्पना की अद्भुत उड़ान, अनुपम शब्द अमन और संक्षिप्तता के लिये अद्वितीय है। पंजाब के कवि भी इस परम्परा से अछूते नहीं रहे। अब तक इस परम्परा से प्रभावित निम्नलिखित सतसइयों के पंजाब में रचित होने के प्रमाण मिले हैं: 1. वृन्द सतसई, 2. आनन्द प्रकाश सत्तसई. 3. ब्रम विलास सतसई और 4. बसन्त सतसई । 'वृन्द सतसई' को यह विभाग 'पंचनद' के अन्तर्गत प्रकाशित कर चुका है और अन्य तीनों सतसइयां अलग अलग इसी वर्ष पाठकों के हाथों में होंगीं। वृन्द सतसई को छोड़ कर शेष तीनों सतसइयां पहली बार प्रकाशित की जा रही हैं। प्रस्तुत बसन्त सतसई भी सतसई-साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती है। इस सतसई के लेखक बसन्त सिह 'ऋतुराण' अन्योक्तियां लिखने में बेजोड़ हैं। प्रस्तुत सतसई देवनागरी में अब पहली बार प्रकाशित हो रही है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी के लेखक और आलोचक पंजाब के इस मेधावी कवि और सतसईकार की काव्य छटा से हिन्दी जगत् को पूर्णतया परिचित करवायेंगे । बसन्त सतसई का सम्पादन श्री शमशेर सिंह 'अशोक' ने किया है। इस ग्रन्थ को पाण्डुलिपि भी उनके यहाँ हो सुरक्षित है।
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