किसी भी अंचल के लोकजीवन के बीच प्रचलित आंतरिक पर्व एवं त्योहार उस अंचल की सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक स्थितियों के परिचायक होते हैं। इन समस्त प्रतिमानों को सूक्ष्म दृष्टि से समझने हेतु पर्व व त्यौहार निष्पक्ष माध्यम हो सकते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर अंचल में मनाए जाने वाले विभिन्न पर्वो यथा छेरता, नुआखाई के आधार पर उस क्षेत्र की आर्थिक सम्पन्नता, 'माटी तिहार' मिट्टी के प्रति आस्था, लछमी जगार- अपने आराध्य के प्रति समर्पण, साथ ही साथ अन्य क्षेत्रीय पर्व भी सामाजिक व सांस्कृतिक स्थिति का बोध कराते हैं। इनके अध्ययन से इन प्रतिमानों के सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन कर पाना भी संभव प्रतीत होता है। इसी तारतम्य में बस्तर में मनाया जाने वाला 75 दिवसीय बस्तर दशहरा एक ऐसा पर्व दृष्टव्य होता है, जो जनजातीय व गैर जनजातीय लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक समन्वय की भावना का पालन करते हुए 600 से भी अधिक वर्षों से सम्पन्न कराया जाता रहा है।
बस्तर का दशहरा पर्व बस्तर के आदिवासियों के सामाजिक जीवन, उनकी धार्मिक आस्थाओं व परंपराओं के अनेकानेक प्रतिबिम्बों के निर्माण का माध्यम अर्थात् दर्पण सदृश्य प्रतीत होता है। अतएव बस्तर दशहरा पर्व पर शोध बस्तर के आदिवासियों के उक्त समस्त प्रतिमानों की विशेषताओं के शोध का उत्तम माध्यम है। 75 दिवसीय दशहरा पर्व का यह समयांतराल जिसमें विभिन्न विधि-विधान सम्पन्न कराए जाते हैं, तथा बस्तर अंचल के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से आए क्षेत्रवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विभिन्नताओं व विशेषताओं के दर्शन होते हैं, जो किसी क्षेत्र विशेष में जाकर अध्ययन करने पर भी सरलता से संभव नहीं है।
बस्तर की प्राकृतिक संपदा इसे सम्पन्न बनाती है, साथ ही यहाँ की आस्था को भी प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। पहले देवी दंतेश्वरी की भक्ति और राज्य के प्रति राजभक्ति के मिले-जुले प्रभाव से बस्तर दशहरे की कीर्ति स्थापित हुआ करती थी, परंतु अब बस्तर दशहरे में केवल देवी दंतेश्वरी का ही वर्चस्व स्थापित रह गया है। देवी दंतेश्वरी केवल एक वर्ग विशेष की देवी न होकर सभी वर्गों की आराध्य देवी प्रमाणित हुई हैं। अतः बस्तर दशहरा के संदर्भ में यह स्पष्ट करना स्वभाविक हो जाता है कि, यह वर्ग विशेष का पर्व न होकर सभी वर्गों की सामाजिक एकता का पर्व है, जो भारत के अन्य क्षेत्रों में होने वाले वर्ग संघर्ष व श्रेष्ठता के प्रदर्शन की भावना के विपरीत सामाजिक समभाव व सहभागिता का प्रमाण प्रस्तुत करता है।
पराधीन भारत में सैकड़ों देशी रियासतों में से बस्तर भी एक था, जो सी.पी. एण्ड बरार के प्रशासन क्षेत्र के अंतर्गत आता था। यहाँ काकतीय राजा राज्य किया करते थे। राजवंश के राजा प्रजा कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कई जनकल्याणकारी कार्य करते आए थे इसलिए इस पर्व के माध्यम से बस्तर की जनता राजपरिवार के प्रति स्वामि-भक्ति का प्रदर्शन करते हुए, स्वयं के श्रम-बल को इस हेतु समर्पित कर देती है।
बस्तर के आदिवासियों की सामाजिक पृष्ठभूमि एक पृथक रूप में दिखाई पड़ती है। इनके जीवन जीने का ढंग बिल्कुल अलग व निराला है। रियासत की उबड़-खाबड़ पथरीली जमीन, ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बंजर तथा अनुपजाऊ भूमि, इन सभी पहलुओं में बस्तर वासियों को देखकर आश्चर्य लगता है कि वैज्ञानिक प्रगति से बिल्कुल दूर रहकर अपने जीवन को इतना कष्टप्रद व्यतीत करने के बाद भी वे इतना प्रसन्नचित्त कैसे रहते हैं? जबकि बस्तरवासियों की समस्त संरचनाएँ उनके लिए ही नहीं अपितु किसी भी सामान्य जन के लिए भी जटिल सिद्ध हुई है।
भारत के ऐतिहासिक धारणाओं में आदिवासियों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अपना विशिष्ट महत्व प्रमाणित करती है। आदिवासियों की संस्कृति प्राचीनतम होने के साथ ही इनकी पृथक विशेषताएँ हैं। ये अपनी संस्कृति के अस्तित्व की रक्षा के लिए सदैव से कृत संकल्पित रहे हैं और अपनी स्थापित संस्कृति, परंपराएँ, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, परंपराओं और मान्यताओं को चिरकाल तक अक्षुण्ण बनाए रखना अपना दायित्य समझते हैं। विभिन्न अनुष्ठानों, जादू-टोना, बलि यहाँ तक नरबलि पर भी इनका विश्वास अडिग होने के साथ-साथ धार्मिक क्रियाकलापों में इनका अस्तित्व बनाए रखने हेतु संकल्पित हैं। वर्तमान में बलिप्रथा के स्थान पर नारियल फोड़ने की प्रथा का प्रचलन बढ़ा है।
आदिवासी संस्कृति में बाह्य सभ्यता का प्रभाव व अरण्यकीय संस्कृति में घुसपैठ से आदिवासी सभ्यता व संस्कृति, परिवर्तन के साथ-साथ अपनी मूल संस्कृति से दूर होती जा रही है, परंतु ऐसा कदापि नहीं है कि इन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत की परिवर्तनशीलता से कोई प्रभाव नहीं पड़ता यद्यपि ये आधुनिकता व शिक्षा के प्रचार-प्रसार से आधुनिक मान्यताओं व परंपराओं की ओर प्रवृत्त हुए हैं। यहाँ के वन व पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करने वाले अनेक वनवासी समुदाय, मानव सभ्यता के विकास के क्रम में अनेक कारणों से पृथक रह गए परिणामस्वरूप वे विकास की मुख्यधारा से दूर होते गए। भारत देश की स्वतंत्रता के पश्चात् प्रजातांत्रिक शासन के प्रारंभोपरांत सरकारी व विकासात्मक तंत्रों की इन दुर्गम क्षेत्रों में पहुंच प्रारंभ हुई अतएव आदिवासियों व गिरिजनों की सभ्यता ने विकास की बयार में एक नया स्वरूप धारण किया और एकदम पिछड़ी हुई सभ्यता ने संक्रमणशील सभ्यता के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। अद्य परिवेश में बस्तर की अनेक सांस्कृतिक विशेषताएँ लुप्त हो चुकी हैं जिनका विवरण स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ब्रिटिश नृतत्वशास्त्रियों ने अपने ग्रंथों में दिया है। तात्कालीन शोध ग्रंथों में वर्णित विषयों व आज के समय में हो रहे शोध के तथ्यों में अत्यधिक भिन्नता दिखाई देती है। इस विभिन्नताओं का विश्लेषण करने पर परिवर्तन का सकारात्मक व नकारात्मक स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
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